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तमिलनाडु के इरुला आदिवासी गांव की बदहाल हालत, 40 साल से विकास से वंचित

इरुला जनजाति की अनसुनी कहानी, न बिजली, न सड़क, न शौचालय बस संघर्ष ही संघर्ष, जहां 40 साल बाद भी नहीं पहुंची विकास की रौशनी

तमिलनाडु के कृष्णगिरि जिले में थल्ली पंचायत यूनियन के अंतर्गत आने वाला दसैयानमडुवु गांव एक ऐसा स्थान है, जहां इरुला जनजाति के लोग आज भी पुराने तरीकों से जीवन जी रहे हैं.

यह गांव हरे-भरे जंगलों के बीच बसा हुआ है और यहां करीब 40 इरुला परिवार रहते हैं. इनकी कुल आबादी लगभग 200 लोगों की है.

ये लोग छोटे-छोटे कच्चे घरों और पुरानी सरकारी इमारतों में रहते हैं, लेकिन इनके पास न तो बिजली है, न पक्की सड़कें, न शौचालय और न ही गंदा पानी निकालने की व्यवस्था.

इन समस्याओं से परेशान होकर गांव के लोगों ने जिला कलेक्टर एस. दिनेश कुमार को पत्र लिखकर मदद मांगी है.

इरुला जनजाति दक्षिण भारत की एक पुरानी जनजाति है जो मुख्य रूप से तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश में रहते है.

‘इरुला’ शब्द का मतलब तमिल में ‘अंधेरा’ होता है.

ऐसा कहा जाता है कि पहले यह लोग जंगल में रहते थे और रात में शिकार करते थे, इसलिए इन्हें यह नाम मिला.

अंग्रेजों के समय इन्हें ‘सांप पकड़ने वाले’ के नाम से भी जाना जाता था, क्योंकि ये जहरीले सांपों को बिना डरे पकड़ लेते थे.

आज भी ये लोग जंगल से लकड़ी, फल-फूल और जड़ी-बूटियाँ इकट्ठा करके अपना जीवन चलाते हैं.

दसैयानमडुवु गांव में ज़्यादातर इरुला लोग ही रहते हैं, लेकिन आसपास कुछ और आदिवासी समुदाय जैसे वेंबा और कुरुम्बा के लोग भी पाए जाते हैं.

इनका जीवन बहुत ही साधारण है. गांव के पुरुष सुबह जंगल जाते हैं शिकार या लकड़ी बटोरने के लिए, और महिलाएं घर पर काम करती हैं, बच्चे की देखभाल करती हैं और जंगल से सब्जियाँ और फल लाती हैं.

यहां के बच्चे स्कूल नहीं जा पाते क्योंकि नजदीक में कोई स्कूल नहीं है. महिलाएं पारंपरिक साड़ी और पुरुष धोती पहनते हैं.

इनकी भाषा ‘इरुला’ होती है जो तमिल भाषा से मिलती-जुलती है. त्योहारों पर ये जंगल के देवताओं की पूजा करते हैं और गीत-नृत्य से खुशियाँ मनाते हैं.

आज इस गांव की हालत काफी खराब है.

करीब 40 साल पहले राज्य सरकार ने इनके लिए कुछ घर बनाए थे, लेकिन अब वो घर टूट-फूट चुके हैं.

कई परिवार झोपड़ियों में रहते हैं और बारिश से बचने के लिए प्लास्टिक की चादरें छत पर डालते हैं. बिजली की सुविधा नहीं है, जिससे रात में अंधेरा छा जाता है.

लोग मोमबत्ती या तेल की लैम्प से काम चलाते हैं.

गांव में शौचालय नहीं है. सभी को खुले में जाना पड़ता है, खासकर महिलाओं के लिए यह बहुत शर्म की बात है.

एक स्थानीय निवासी पी. ज्ञानासेकरन बताते हैं कि कई महिलाएं हर दिन खुले में शौच जाती हैं, जिससे उन्हें डर लगता है और असुविधा होती है.

गांव में नाली की भी कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे गंदा पानी फैल जाता है और बीमारी का खतरा बढ़ता है.

इलाज की सुविधा भी यहां नहीं है.

अस्पताल बहुत दूर है. छोटी-मोटी बीमारियों के लिए लोग जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन जब कोई गंभीर बीमारी होती है, तो इलाज मिलना मुश्किल हो जाता है.

पीने के लिए साफ पानी की भी कमी है. लोग जंगल के पास के स्रोतों से पानी लाते हैं, लेकिन वह पानी हमेशा सुरक्षित नहीं होता.

इन सब मुश्किलों के बावजूद गांव के लोग हार नहीं मान रहे हैं.

उन्होंने प्रशासन से गुहार लगाई है कि पुराने घरों की मरम्मत की जाए, जिनके पास घर नहीं हैं उनके लिए नए मकान बनाए जाएं.

बिजली कनेक्शन दिया जाए और शौचालय, सड़क और नाली की सुविधा दी जाए. उनका कहना है कि जिला कलेक्टर को गांव आकर खुद स्थिति देखनी चाहिए.

इरुला जनजाति का जीवन जंगल से जुड़ा हुआ है, लेकिन अब वनों की कटाई और कानूनों के कारण उनकी रोज़ी-रोटी भी खतरे में है.

पहले वे सांप पकड़कर पैसा कमाते थे, लेकिन अब उस पर भी रोक है.

सरकार को चाहिए कि उन्हें वैकल्पिक काम सिखाए जैसे जंगल आधारित पर्यटन या जड़ी-बूटी संग्रह.

साथ ही, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा भी दी जानी चाहिए ताकि अगली पीढ़ी आगे बढ़ सके.

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