HomeAdivasi Dailyआदिवासी मामलों का मंत्रालय ग्रेट निकोबार परियोजना की समीक्षा करेगा

आदिवासी मामलों का मंत्रालय ग्रेट निकोबार परियोजना की समीक्षा करेगा

ग्रेट निकोबार परियोजना (Great Nicobar Mega Project) पर पर्यावरण कार्यकर्ताओं, विशेषज्ञों और आदिवासी अधिकारों की चिंता करने वाले लोगों ने सवाल किये हैं. यह कहा जा रहा है कि यह परियोजना पर्यावरण को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाने के साथ ही शोम्पेन जनजाति (Shompen Tribe) को भी ख़तरे में डाल सकती है.

जनजातीय मामलों के मंत्री जुएल ओराम (Jual Oram) ने कहा है कि केंद्रीय जनजातीय मामलों का मंत्रालय ग्रेट निकोबार द्वीप (Great Nicobar Island) पर 72,000 करोड़ रुपये की इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट (Infrastructure Project) के वन मंजूरी के कागजात की जांच करेगा.

जबकि इस प्रोजेक्ट पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) सरकार जोर दे रही है और उसके मुताबिक अगले कदम तय किए जाएंगे.

लेकिन पिछले हफ्ते एक इंटरव्यू में ओराम ने अपने कार्यकाल के दौरान आदिवासी समुदायों के वन और भूमि अधिकारों पर विशेष ध्यान देने के अपने पक्के इरादे की बात की है.

संसद में मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने इस परियोजना के लिए दी गई मंजूरी को वापस लेने की मांग की है. कांग्रेस ने कहा है कि विशेषज्ञों और संवैधानिक संगठनों द्वारा उठाए गए पर्यावरणीय चिंताओं और क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों के भूमि अधिकारों के कथित उल्लंघन की रिपोर्टों के बीच इसकी जमीनी समीक्षा होनी चाहिए.

पिछले सोमवार को कांग्रेस के नेता जयराम रमेश (Jayram Ramesh) ने ग्रेट निकोबार (Great Nicabor) में चल रहे मेगा इंफ्रा प्रोजेक्ट (Mega Infra Project) को निलंबित करने और निष्पक्ष समीक्षा करने की मांग की है.

जुएल ओराम ने कहा है कि मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में आने वाले संवैधानिक और कानूनी मामलों में वह आदिवासी समुदायों के भूमि अधिकारों के मुद्दों को प्राथमिकता देगें.

इसके साथ ही उन्होंने कहा कि जहां भी आदिवासियों की सहमति की अनदेखी की जा रही हो, वहां सीधे या राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) के समन्वय से हस्तक्षेप कर सकते हैं.

ग्रेट निकोबार परियोजना के लिए पर्यावरण और वन मंजूरी पर राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) और एनसीएसटी द्वारा उठाई गई चिंताओं के बारे में पूछे जाने पर ओराम ने कहा, “यह एक विशिष्ट मामला है.

इस मामले की फाइलों को देखने में समय लगेगा. लेकिन हम संबंधित फाइलों और दस्तावेजों को मंगवाकर उठाए गए मुद्दों पर गौर करेंगे और फिर हम आगे का रास्ता निर्धारित करने के साथ आगे बढ़ सकते हैं.”

इस ग्रेट निकोबार परियोजना में द्वीप पर एक ट्रांस-शिपमेंट बंदरगाह, एक अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, टाउनशिप विकास और 450 एमवीए गैस और सौर-आधारित बिजली संयंत्र विकसित करना शामिल है.

इस परियोजना क्षेत्र में 130 वर्ग किलोमीटर से अधिक प्राचीन वन क्षेत्र शामिल होगा. है इस प्रोजेक्ट को पहले ही एक विशेषज्ञ समिति द्वारा जरूरी शर्तों में से एक पर्यावरणीय मंजूरी भी प्रदान कर दी गई है.

सरकार ने अगस्त 2023 में संसद को बताया कि इसके लिए संभवतः 9.6 लाख पेड़ काटे जाएंगे और इस ख़ास वर्षावन की कटाई से पर्यावरम को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए ‘क्षतिपूर्ति वनीकरण’ की योजना बनाई गई है. लेकिन यह योजना हरियाणा राज्य में हजारों किलोमीटर दूर और बिल्कुल अलग पारिस्थितिक क्षेत्र में बनाई जा रही है.

इस परियोजना को जहां पर लागू किया जा रहा है वहां कुल 7.114 वर्ग किलोमीटर आदिवासी आरक्षित वन भूमि है. यहां पर शोम्पेन (Shompoen Tribe) के लोग रहते हैं.

शोम्पेन एक विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूह (Particularly Vulnerable Tribal Group) है. उस ज़मीन को भी इस परियोजना के लिए इस्तेमाल किए जाने की जानकारी मिली है.

इस बारे में सरकार ने जोर देकर कहा है कि इस काम के कारण उन्हें स्थानांतरित नहीं किया जाएगा.

इस बीच, एनसीएसटी (NCST), आंध्र प्रदेश सरकार के पूर्व जनजातीय मामलों के सचिव, रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट ई.ए.एस. सरमा (E.A.S. Sarma) की शिकायत की जांच कर रही है.

इस शिकायत में उन्होंने परियोजना के लिए वन मंजूरी प्रक्रिया में वन अधिकार अधिनियम (FRA) के उल्लंघन का आरोप लगाया है. उनका कहना है कि इस के लिए सरकार ने संविधान के अनुसार एनसीएसटी से परामर्श भी नहीं किया था.

देश भर में आदिवासी समुदायों और लोगों द्वारा एफआरए दावों की बड़ी संख्या में अस्वीकृति पर भी जुएल ओराम ने ध्यान देने की बात कही है.

इस बारे में ओराम ने कहा कि ये अस्वीकृतियाँ एक “मामला-दर-मामला मुद्दा” थीं, जो राज्य या केंद्र शासित प्रदेश पर निर्भर करती हैं और इसे इसी तरह देखा जाना चाहिए.

हालांकि, उन्होंने कहा कि हम यह सुनिश्चित करेंगे कि हम उन सभी के लिए काम करें जिनका वन भूमि पर वैध अधिकार है.

फरवरी 2024 तक एफआरए कार्यान्वयन रिपोर्ट से नवीनतम उपलब्ध सरकारी आंकड़ों से पता चला है कि कुल 50 लाख 26 हज़ार 801 एफआरए दावे प्राप्त हुए थे. इनमें से 34.9 प्रतिशत को खारिज कर दिया गया और 15.5 प्रतिशत निपटान के लिए लंबित हैं.

इन रिपोर्टों से यह भी पता चला है कि अंडमान और निकोबार प्रशासन ने एफआरए के तहत स्थानीय आदिवासियों को केंद्र शासित प्रदेश में किसी भी वन भूमि को न तो मान्यता दी है और न ही स्वामित्व प्रदान किया है.

यहजो वन संरक्षण नियम, 2017 के तहत एक आवश्यक कदम है. प्रोजेक्ट के चरण-I मंजूरी से पहले जो अक्टूबर, 2022 में दी गई थी.

लेकिन केंद्र शासित प्रशासन ने तर्क दिया है कि मौजूदा अंडमान और निकोबार द्वीप समूह (आदिवासी जनजातियों का संरक्षण) अधिनियम 1956 (पीएटी56) क्षेत्र में आदिवासियों के वन अधिकारों की पर्याप्त सुरक्षा करता है.

पीएटी 56 द्वीप के प्रशासक को आदिवासी रिजर्व के रूप में भूमि की अधिसूचना और अधिसूचना रद्द करने का एकमात्र अधिकार देता है.

वही यह निर्धारित करता है कि वनवासी और आदिवासी अपने दैनिक जीवनयापन के लिए किन क्षेत्रों का उपयोग कर सकते हैं.

ग्रेट निकोबार परियोजना के लिए चरण-1 की मंजूरी दिए जाने के कुछ हफ्ते बाद कैम्पबेल बे स्थित जनजातीय परिषद ने ग्राम सभा द्वारा दी गई सहमति वापस ले ली और आरोप लगाया कि बैठक के सदस्यों के हस्ताक्षर प्राप्त करने के बाद विवरण टाइप किए गए थे.

इस बीच, एनजीटी के आदेश के मुताबिक, पर्यावरण मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता वाली एक एक्सपर्ट कमेटी द्वारा परियोजना के लिए पर्यावरणीय मंजूरी की जांच की गई है लेकिन इस जांच के परिणाम अभी तक सार्वजनिक नहीं किए गए हैं.

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