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कर्नाटक के आदिवासी किसानों ने अपनाई नई तकनीक, कर रहे हैं स्मार्ट खेती

इनका खास फायदा यह है कि ये सिर्फ फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को ही निशाना बनाते हैं, जबकि मिट्टी, फसल और इंसानों को नुकसान नहीं होता.

कर्नाटक के म्यसूरु जिले के एच.डी. कोटे तालुक के दो आदिवासी गांव—बसवनगिरि हाडी और सोल्लेपुरा—के किसानों की जिंदगी अब बदल रही है.

ये बदलाव आया है ICAR–UAS Bengaluru (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद – कृषि विश्वविद्यालय बेंगलुरु) की एक खास योजना के ज़रिए, जो ट्राइबल सब प्लान (TSP) के अंतर्गत चलाई जा रही है.

इस योजना की शुरुआत साल 2024 में हुई थी, लेकिन इसका असर 2025 में साफ दिखाई देने लगा है.

क्योंकि अब इन गांवों के 100 से ज्यादा आदिवासी किसान, खासकर महिला किसान, जलवायु-स्मार्ट खेती को अपनाने लगे हैं.

यह खेती मौसम और पर्यावरण को ध्यान में रखकर की जाती है, जिससे फसल अच्छी होती है और पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचता.

ICAR–UAS की टीम ने गांवों में जाकर किसानों को प्रशिक्षण दिया.

अब किसानों की फसलों की उपज बढ़ गई है. पहले जो नुकसान बारिश या कीटों की वजह से होता था, वह अब कम हो गया है.

खेती का खर्च घटा है और आमदनी बढ़ी है. किसानों को अब अपने खेतों पर कीट नियंत्रण, मिट्टी की जांच और फसल सुरक्षा के नए तरीके पता हैं.

यह परियोजना खासतौर पर 2024 के अंत में शुरू हुई और 2025 की फसल के दौरान इसका सबसे ज़्यादा असर देखा गया.

यह काम मुख्य रूप से एच.डी. कोटे तालुक के आदिवासी इलाकों में हुआ.

जलवायु परिवर्तन और लगातार बदलते मौसम की वजह से परंपरागत खेती अब कम सुरक्षित हो गई है.

इसीलिए यह योजना किसानों को न केवल टिकाऊ खेती सिखा रही है, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर भी बना रही है.

इस योजना के शुरू होने से पहले, एच.डी. कोटे तालुक के बसवनगिरि हाडी और सोल्लेपुरा गांवों के आदिवासी किसान कई तरह की मुश्किलों से जूझ रहे थे.

खेती पूरी तरह मौसम पर निर्भर थी—अगर बारिश समय पर नहीं होती, तो फसल सूख जाती थी.

कई बार अचानक तेज बारिश से खेतों में पानी भर जाता, जिससे बीज खराब हो जाते.

किसानों को कीट नियंत्रण की जानकारी नहीं थी. जब फसल पर कीड़े लगते, तो वे बाज़ार से खरीदे गए तेज़ रासायनिक कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल करते थे.

जिससे उनकी सेहत पर असर पड़ता और मिट्टी की उपजाऊ शक्ति भी धीरे-धीरे कम हो जाती थी. कई बार तो लागत भी वसूली नहीं हो पाती थी, और उधार लेना पड़ता था.

महिला किसान खेत में मेहनत करती थीं, लेकिन उन्हें खेती के आधुनिक तरीकों या प्रशिक्षण का कोई अवसर नहीं मिलता था.

मिट्टी की जांच, पोषण, और सुरक्षित बीज जैसी बातें गांव वालों को पता ही नहीं थीं। जानकारी की कमी और तकनीकी मदद के अभाव में उनकी पूरी खेती जोखिम भरी थी.

अब किसान जो कीटनाशक इस्तेमाल कर रहे हैं, वे पारंपरिक रासायनिक कीटनाशकों से अलग और काफी हद तक सुरक्षित हैं.

ये कीटनाशक जैविक या सूक्ष्मजीव आधारित (microbial) होते हैं, जैसे कि Arka microbial consortia, जिन्हें ICAR जैसे वैज्ञानिक संस्थानों ने विकसित और प्रमाणित किया है.

इनका खास फायदा यह है कि ये सिर्फ फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को ही निशाना बनाते हैं, जबकि मिट्टी, फसल और इंसानों को नुकसान नहीं होता.

ये न तो मिट्टी की उर्वरता को घटाते हैं, न ही ज़हरीले अवशेष छोड़ते हैं, जिससे उपज की गुणवत्ता भी बनी रहती है.

किसान अब इन्हें अपने खेतों में नियमित रूप से इस्तेमाल कर रहे हैं और इन्हें पूरी तरह सुरक्षित और लाभकारी मानते हैं.

पिछले साल के मुकाबले, इन आदिवासी किसानों की आमदनी लगभग 20 से 25 प्रतिशत बढ़ गई है.

इसका कारण है कि अब उनकी फसल ज्यादा अच्छी हो रही है,  और वे कम खर्च में अच्छी दवाइयां और खाद इस्तेमाल कर रहे हैं.

पहले कीटनाशकों पर ज्यादा पैसा लगता था, लेकिन अब दवाइयों पर खर्च करीब 30 से 40 प्रतिशत कम हो गया है.

इससे किसानों को ज्यादा फायदा हो रहा है और उनकी खेती भी सुरक्षित और टिकाऊ बन रही है.

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