जब दुनिया जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वॉर्मिंग और जंगलों की कटाई से जूझ रही है, शहरों में मीटिंग्स हो रही हैं. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मिट्स हो रहे हैं, तब कुछ सरल समाधान धरती की गोद में ही छिपे हुए हैं.
आदिवासी समुदायों का जीवन जंगलों से गहराई से जुड़ा होता है. उनके लिए पेड़ सिर्फ़ लकड़ी या छांव नहीं होते, बल्कि उनकी पहचान, उनके भोजन और उनकी संस्कृति का हिस्सा होते हैं.
बीते कुछ सालों में तेज़ी से बढ़ते तापमान, अनियमित बारिश और पेड़ों की अंधाधुंध कटाई ने इन जंगलों को बंजर बना दिया है.
उजड़ते हुए इन जंगलों को देखते हुए, अब आदिवासी महिलाएं खुद मोर्चा संभाल रही हैं.
वे बिना किसी आधुनिक मशीन या भारी निवेश के, सिर्फ मिट्टी, खाद, कुछ देसी बीज और अपनी समझदारी के दम पर एक पारंपरिक तरीके से इन उजड़े हुए जंगलों को दोबारा हरा-भरा करने का प्रयास कर रही हैं.
ओडिशा और छत्तीसगढ़ की आदिवासी महिलाएं अपने हाथों से ‘बीज बॉल’ बना रही हैं.
बीज बॉल क्या होती है?
बीज को मिट्टी, गोबर या कम्पोस्ट के साथ मिलाकर छोटी-छोटी गोलियां बनाई जाती हैं, इन्हें बीज बॉल कहा जाता है.
यह एक पारंपरिक तकनीक है जिसमें इन बॉल्स को सुखा कर जंगलों, खाली पड़ी जमीनों या बंजर पहाड़ियों में फेंका जाता है.
बारिश के समय ये बीज अंकुरित हो जाते हैं और धीरे-धीरे एक नया जंगल तैयार होने लगता है.
बीज बॉल तकनीक को पारंपरिक ‘ब्रॉडकास्ट सीडिंग’ का उन्नत रूप माना जाता है.
इसमें बीजों को सीधा ज़मीन पर डालने की बजाय, मिट्टी और खाद से बने गोले में रखकर फैलाया जाता है, ताकि बीजों की सुरक्षा हो और अंकुरण की संभावना बढ़े. यानी यह तरीका न केवल सस्ता और प्राकृतिक है, बल्कि बीजों को जानवरों और मौसम की मार से भी बचाता है.
ओडिशा में कहां किया जा रहा है इस तकनीक का उपयोग?
ओडिशा का कश्मीर कहा जाने वाले दरिंगबाड़ी गांव की आदिवासी महिलाएं इस दिशा में कदम बढ़ा रही हैं.
दरिंगबाड़ी कंधमाल ज़िले में स्थित एक खूबसूरत हिल स्टेशन है. यहां की महिलाएं अब अपने गांव की ‘लांडा पहाड़’ जैसी बंजर पहाड़ियों को फ़िर से हरा करने का ज़िम्मा उठा रही हैं.
उन्होंने पारंपरिक जैविक तरीके से बीज बॉल बनाकर इन इलाकों में बिखेरना शुरू किया है.
‘बिहाना माटी पिंडुला’ नाम से जाने वाली ये बीज बॉल्स, गांव की आदिवासी महिलाएं खुद बना रही हैं.
इन बीज बॉल्स में सियाली लता, हरड़, आंवला, इमली, महुआ, जामुन, बरगद, देसी आम, कठहल, नींबू, सीताफल और रामफल के अलावा और भी कई प्रकार के स्थानीय पेड़ों के बीजों का इस्तेमाल किया जाता है.
बीज़ों की विवधता का मकसद वन्य जीवों को भोजन देना और जैव विविधता बनाए रखना होता है.
इस प्रयास में जागृति नाम की एक स्थानीय स्वयंसेवी संस्था भी इन आदिवासी महिलाओं का साथ दे रही है. ये संस्था ओड़िशा राज्य सरकार की फॉरेस्ट राइट्स इनिशिएटिव के तहत काम कर रही है.
डानेकबाड़ी, सोनापुर और बड़ा बांगा पंचायतों की महिलाएं भी वन प्रबंधन समितियों के साथ मिलकर ये काम कर रही हैं.
इससे पहले किस राज्य में शुरु हुई थी ये पहल?
ओडिशा से एक साल पहले, छत्तीसगढ़ के धमतरी ज़िले में भी आदिवासी महिलाओं ने ऐसा ही एक अभियान शुरू किया था.
खास बात यह है कि इस काम में PVTGs यानी अति पिछड़े जनजातीय समूहों ने भी भाग लिया था.
पिछले साल की एक समाचार रिपोर्ट के अनुसार, धमतरी ज़िले की तत्कालीन कलेक्टर नम्रता गांधी का कहना था कि यह पहल सिर्फ पेड़ लगाने तक सीमित नहीं है, बल्कि जंगलों में लगी आग, अतिक्रमण और मिट्टी की गुणवत्ता में आई गिरावट जैसी चुनौतियों से जूझते क्षेत्रों को फ़िर से जीवन देने का प्रयास है. गर्मियों में जमा किए गए बीजों को मिट्टी, सिल्ट और वर्मी-कम्पोस्ट के साथ मिलाकर करीब 15,000 बीज बॉल्स तैयार की गई थीं.
इन बॉल्स में जामुन, अमरूद, लौकी जैसे फल-फूल देने वाले पौधों के बीज भी डाले गए थे.
इसका एक उद्देश्य यह भी था कि जब जंगलों में भोजन उपलब्ध होगा तो जानवर गांवों की तरफ नहीं आएंगे और किचन गार्डन को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे.
गर्मी में समुदाय के बुजुर्ग और लोग मिलकर बीज इकट्ठा करते, फिर उन्हें बीज बॉल्स में बदलते और बारिश के समय ‘ब्रॉडकास्ट सीडिंग’ यानी हाथों से बिखेरने की तकनीक से जंगलों में फैलाया जाता.
यह काम मिट्टी की जांच के बिना नहीं किया जाता था. ये आदिवासी समुदाय पहले ये समझते हैं कि कौन-से बीज कहां लगाए जाएं ताकि वे पनप सकें.
इस परियोजना में धमतरी जिले के आलमुड़ा करहैया, नेगिनाला, गोविंदपुर, सरंगपुरी, कोलियारी, पलगांव, बारनहारा और बगरुमनाला जैसे इलाकों को चुना गया था.
साथ ही कांकेर जिले के भानुप्रतापपुर ब्लॉक की 20 पंचायतों की महिलाओं ने भी इस प्रयास में भाग लिया.
बीज बॉल की यह पहल न केवल जंगलों को, बल्कि जीवन, आजीविका और जैव विविधता को भी पुनर्जीवित कर रही है.
आज जब जलवायु संकट की बात हर मंच पर होती है, तब यह पहल ज़मीनी स्तर पर किया जा रहा एक बेहतरीन प्रयास माना जा रहा है.