HomeAdivasi Dailyराष्ट्रीय एकता दिवस पर शोक में क्यों डूब जाते हैं आदिवासी

राष्ट्रीय एकता दिवस पर शोक में क्यों डूब जाते हैं आदिवासी

जब राष्ट्रीय एकता दिवस आदिवासियों के लिए विस्थापन, बेरोज़गारी और सरकारी उदासीनता की याद बनकर लौटता है...

आज 31 अक्टूबर को देश भर में सरदार वल्लभभाई पटेल की 150वीं जयंती पर राष्ट्रीय एकता दिवस का भव्य उत्सव मनाया जा रहा है.

देशभर में सांस्कृतिक कार्यक्रम और एकता दौड़ जैसे आयोजन हो रहे हैं. प्रधानमंत्री से लेकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह तक, भारत की अखंडता में सरदार पटेल के योगदान को याद कर रहे हैं.

2018 में इसी दिन गुजरात के नर्मदा ज़िले में सरदार पटेल की स्टैचू ऑफ यूनिटी नामक 182 मीटर ऊंची प्रतिमा का उद्घाटन किया गया था.

लेकिन इस भव्य मूर्ति के आस-पास बसे आदिवासी गांवो के लिए ये दिन गर्व के क्षणों की जगह विस्थापन और सरकार के उदासीन रवैये की याद लेकर आता है.

2013 से शुरू हुई नाराज़गी

यह कहानी 2013 में शुरू हुई, जब सरदार पटेल की प्रतिमा बनाने की घोषणा की गई थी. वर्तमान प्रधानमंत्री और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने ये घोषणा की थी.

इस परियोजना के लिए नर्मदा ज़िले के आस-पास के 72 गांवों की ज़मीनें अधिग्रहित की गईं थीं. इस परियोजना से लगभग 75,000 आदिवासी प्रभावित हुए.

डॉ. प्रफुल वसावा और छोटूभाई वसावा जैसे स्थानीय नेताओं ने तब ही कहा था कि सरकार इस परियोजना के नाम पर आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन कर रही है.

2018 की रिपोर्टों के अनुसार, परियोजना से प्रभावित 72 गांवों में से 32 में पुनर्वास अधूरा छोड़ा गया, 7 गांवों को केवल नकद मुआवज़ा दिया गया और 6 गांवों को केवड़िया कॉलोनी के लिए अधिग्रहीत किया गया.

उद्घाटन से पहले ‘मौन विरोध’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 31 अक्टूबर 2018 को मूर्ति का उद्घाटन किया. लेकिन उससे एक दिन पहले ही नर्मदा ज़िले के आदिवासी इलाकों में सन्नाटा पसरा था. यह सन्नाटा विरोध का प्रतीक था.

72 गांवों में चूल्हे नहीं जले क्योंकि आदिवासियों ने उस दिन को “शोक दिवस” घोषित किया था.

एक स्थानीय कार्यकर्ता अनंद मजगांवकर ने बताया था कि 13 गांव सीधे भूमि अधिग्रहण से प्रभावित हुए हैं. यहां लगभग 20,000 आदिवासी रहते थे. इन आदिवासियों की ज़मीन सिर्फ़ मूर्ति के लिए नहीं, बल्कि सड़कों, होटलों और टूरिज़्म सुविधाओं के लिए भी ली गईं.

उद्घाटन से एक रात पहले 90 से अधिक सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को हिरासत में लिया गया ताकि कोई विरोध न किया जाए.

2020: ‘ब्लैक डे’ और आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारी

दो साल बाद, जब प्रधानमंत्री मोदी 2020 में फिर से केवड़िया आए, तो आदिवासी समुदायों ने इस दिन को काले दिन के रूप में मनाने का फैसला किया.

उनका कहना था, “यह हमारी ज़मीन थी और अब यह हमारी पहुंच से बाहर कर दी गई है.”

लेकिन इससे पहले कि विरोध होता, स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया, और इलाके के कुछ हिस्सों में मोबाइल इंटरनेट सेवा भी बंद कर दी गई.

आदिवासी नेता छोटूभाई वसावा ने कहा था,“सरकार इसे पर्यटन परियोजना बताकर बेचना चाहती है, जबकि यह हमारे अस्तित्व पर हमला है. जिनकी ज़मीनें गईं, उन्हें आज तक रोज़गार या ज़मीन नहीं मिली.”

2025 में भव्यता के बीच विस्थापित आदिवासियों की स्थिति

साल 2025 में नर्मदा ज़िले का एकतानगर एक भव्य पर्यटक स्थल बन चुका है. लेकिन इस चकाचौंध से कुछ ही किलोमीटर दूर, नर्मदा के पहाड़ी गांवों के आदिवासीअब भी टूटी उम्मीदों के साथ जीने को मजबूर हैं.

नर्मदा ज़िले की कुल आबादी का लगभग 87% हिस्सा आदिवासी है. लेकिन यहां साक्षरता दर केवल 62.5 प्रतिशत है जबकि राज्य औसत 78 प्रतिशत है.

कई रिपोर्ट्स बताती हैं कि जिले में कोई आधुनिक सरकारी अस्पताल या आईसीयू सुविधा नहीं है. नीति आयोग (NITI Aayog) के ज़िला पोषण प्रोफाइल, 2022 (District Nutrition Profile) के अनुसार, बच्चों और महिलाओं में कुपोषण और एनीमिया के स्तर राज्य औसत से कहीं अधिक है.

राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक, 2023-24 (National Multidimensional Poverty Index) के अनुसार, नर्मदा ज़िले में गरीबी दर प्रतिशत 22.62 है. यह राज्य में डांग के बाद दूसरे स्थान पर आता है.

इंडियन एक्सप्रेस की 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार, नर्मदा में 952 आंगनवाड़ी-केंद्रों में से 146 काफ़ी खराब हालत में हैं. इनमें से कई बिना पानी, शौचालय और बिजली की सुविधा के चल रहे हैं.

राज्य विधानसभा में भी यह स्वीकार किया गया कि कई आंगनवाड़ी केंद्र किराए के भवनों में चल रहे हैं और नई इमारतों के निर्माण के लिए कई टेंडर निरस्त हुए हैं.

इन आंकड़ों से साफ़ है कि नर्मदा के आदिवासी इलाकों में बुनियादी ज़रूरतें जैसे शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य अब भी अधूरी हैं.

एक तरफ एकतानगर में हेलिपैड, स्मार्ट बसें, लग्ज़री होटल और सोलर पार्क जैसे आधुनिक देखने को मिलती है, वहीं दूसरी तरफ सिर्फ कुछ किलोमीटर दूर बसे गांवों में महिलाएं अब भी प्रसव के समय अस्पताल पहुंचने से पहले रास्ते में दम तोड़ देती हैं.

नर्मदा का एकमात्र सिविल अस्पताल, राजपीपला में है. यहां सीमित स्टाफ और उपकरणों के कारण अधिकांश मरीजों को आज भी 90 किलोमीटर दूर वडोदरा भेज दिया जाता है.

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