जब ज़मीन छिन जाती है तो सिर्फ़ खेत ही नहीं आत्मनिर्भरता भी खत्म हो जाती है. यह वाक्य आदिवासी और दलित समुदायों की दशकों पुरानी पीड़ा को बखूबी बयां करता है.
ओडिशा सरकार ने इसी पीड़ा को समझते हुए राज्य की अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लिए एक नई योजना का प्रस्ताव रखा है.
सरकार का कहना है कि इससे अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के ज़मीन मालिकों को आर्थिक संकट के समय राहत मिलेगी और उनके भूमि अधिकार सुरक्षित होंगे.
क्या है ओडिशा सरकार की नई योजना?
राज्य सरकार ने प्रस्ताव दिया है कि एससी और एसटी समुदाय के लोग यदि बीमारी, बच्चों की पढ़ाई या विवाह के लिए अपनी ज़मीन बेचना चाहें तो वे सरकार को बेच सकेंगे.
यह बिक्री एक तरह की अस्थायी बिक्री होगी. इसमें सरकार ज़मीन को कुछ वर्षों तक अपने पास सुरक्षित रखेगी और जब बेचने वाला व्यक्ति दोबारा ज़मीन खरीदने की स्थिति में होगा तो उसी दाम पर उसे उसकी ज़मीन वापस दे दी जाएगी.
राजस्व और आपदा प्रबंधन मंत्री सुरेश पुजारी ने स्पष्ट किया कि इस योजना का मुख्य उद्देश्य प्रभावशाली वर्गों द्वारा एससी और एसटी समुदाय पर दबाव बनाकर ज़मीन हथियाने से रोकना है.
क्यों जरूरी है यह योजना?
आदिवासी और दलित समुदायों की ज़मीनें लंबे समय से दो तरह के खतरों से घिरी रही हैं. इसमें आर्थिक मजबूरी और सामाजिक दबाव कारण रहे हैं.
बच्चों की पढ़ाई, इलाज या पारिवारिक ज़रूरतों के समय वे कम दामों में ज़मीन बेचने को मजबूर हो जाते हैं.
कई बार दबंग लोग गैरकानूनी तरीके से ज़मीन हड़प लेते हैं और बेचने वाला व्यक्ति दोबारा उसे हासिल नहीं कर पाता.
इस योजना के ज़रिए राज्य सरकार ने एक ‘सुरक्षा चक्र’ बनाने की कोशिश की है. इस योजना में ज़रूरतमंद को ज़मीन बेचने की सुविधा भी मिलेगी और वह फ़िर से मालिक भी बन सकता है.
ज़मीन की नीलामी की शर्त
अगर कोई व्यक्ति तय समय में अपनी ज़मीन वापस नहीं खरीद पाता है तो सरकार उस ज़मीन को नीलाम करेगी.
ज़मीन की नीलामी के लिए भी एक महत्वपूर्ण शर्त रखी गई है. यह ज़मीन सिर्फ उसी समुदाय (SC/ST) के किसी अन्य व्यक्ति को ही बेची जाएगी.
कुल मिलाकर इस व्यवस्था का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि समुदाय की ज़मीन बाहरी लोगों के हाथ में न जाए और समुदाय के पास ही रहे.
इससे समुदाय अपनी ज़मीन पर अपना अधिकार बनाए रख सकेगा.
सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से प्रेरित कदम!
ओडिशा सरकार की यह योजना हाल ही में आए एक सुप्रीम कोर्ट के फैसले की भावना से भी जुड़ी हुई है.
मध्य प्रदेश के रतलाम ज़िले में एक मामला आया था, जहां कुछ आदिवासी परिवारों ने आर्थिक मजबूरी में गैर-आदिवासी को ज़मीन बेची थी.
मामला कोर्ट तक पहुंचा और सरकार ने इसे निरस्त करने की मांग की. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि अगर ज़मीन अधिसूचित क्षेत्र में नहीं आती और सौदा पारदर्शी है, सही कीमत पर हुआ है और ज़रूरत के कारण किया गया है तो इसे रोका नहीं जाना चाहिए.
इस मामले की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि धारा 165 की उपधारा (6) में दो भाग हैं-
क्लॉज़ (i) कहता है कि अगर कोई ज़मीन ऐसी जगह स्थित है जहाँ ज़्यादातर आदिवासी लोग रहते हैं और जिसे सरकार ने अधिसूचित (नोटिफाइड) क्षेत्र घोषित किया है और वह ज़मीन किसी आदिवासी के नाम पर है तो उस ज़मीन को किसी गैर-आदिवासी को बेचना पूरी तरह से मना है.
यानि ऐसे इलाकों में आदिवासी ज़मीन सिर्फ आदिवासियों को ही बेच सकते हैं, गैर-आदिवासियों को नहीं.
क्लॉज़ (ii):
अगर ज़मीन अधिसूचित क्षेत्र के बाहर है तो आदिवासी कुछ ज़रूरी कारणों जैसे शादी, कर्ज चुकाना या बसने के लिए,
गैर-आदिवासी को ज़मीन बेच सकते हैं. लेकिन शर्त ये है कि सौदा सही हो, ज़मीन की सही कीमत मिले और यह कोई फर्जी सौदा न हो.
यही सोच ओडिशा सरकार की योजना में भी दिखती है.
यहां सरकार इन समुदायों की मजबूरी को समझते हुए रास्ता बनाने की कोशिश कर रही है.
समिति तय करेगी ढांचा
सरकार का कहना है कि इस योजना को पूरी तरह से लागू करने से पहले एक उच्चस्तरीय समिति बनाई जाएगी.
यह समिति समुदाय के प्रतिनिधियों, अधिकारियों और कानूनी विशेषज्ञों से चर्चा करेगी और विस्तृत नियमावली तैयार करेगी.
यह नियम तय करेंगे कि किन स्थितियों में ज़मीन बेची जा सकती है, कैसे पुनर्खरीद की जाएगी और किस प्रक्रिया से नीलामी होगी.
फिलहाल क्या हैं ज़मीन बेचने के नियम?
ओडिशा में एसटी समुदाय को अनुसूचित क्षेत्रों में अपनी ज़मीन गैर-आदिवासियों को बेचने की अनुमति नहीं है. इन अनुसूचित क्षेत्रों में मयूरभंज, सुंदरगढ़, कोरापुट, मलकानगिरी, नबरंगपुर, रायगढ़, संबलपुर की कुचिंदा तहसील, केंदुझर, कंधमाल, गजपति, गंजाम, कालाहांडी और बालासोर के कुछ हिस्से शामिल हैं.
इन क्षेत्रों में ज़मीन बेचने से पहले उप-ज़िलाधिकारी (Sub-Collector) से अनुमति लेना अनिवार्य है.
जबकि गैर-अनुसूचित क्षेत्रों में नियम थोड़े आसान हैं लेकिन वहां भी ज़मीन का स्थानांतरण कड़ी निगरानी में होता है.
पिछला प्रयास क्यों विफल रहा?
नवंबर 2023 में बीजेडी सरकार एससी और एसटी समुदाय को बिना किसी रोक-टोक ज़मीन बेचने की अनुमति देने वाला प्रस्ताव लाई थी.
इस प्रस्ताव पर काफी विरोध हुआ और सरकार को यह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा.
विरोध का मुख्य कारण यह था कि इससे प्रभावशाली वर्गों को एससी और एसटी वर्ग की ज़मीन हथियाने का मौका मिल सकता था.
अब सरकार ने एक संतुलित और संरक्षित योजना पेश की है.
ओडिशा की नई ज़मीन योजना एक ऐसा सामाजिक-आर्थिक उपकरण साबित हो सकती है जो दलित और आदिवासी समुदायों को मजबूरी के समय राहत दे. लेकिन इस योजना की सफ़लता का पता तब चलेगा तब इसके नियम बनकर तैयार हो जाएंगे. क्योंकि इसमें सरकार द्वारा खरीदी गई ज़मीन की नीलामी की जो बात कही गई है वह प्रक्रिया कितने वर्षों बाद शुरु होगी, यह एक महत्तवपूर्ण सवाल होगा.
फिलहाल इसे एक नीतिगत प्रयोग के रूप में देखा जा सकता है. अगर यह सफल रहा तो देश के अन्य राज्यों के लिए एक मिसाल बन सकता है.