कोविड 19 की दूसरी लहर ने भारत को बुरी तरह से चपेट में लिया है. इस घातक वायरस से हो रही मौत और संक्रमण के फैलाव के मामले में भारत ने दुनिया भर के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं.
कोविड-19 से किसी हद तक बचाव करने वाली वैक्सीन और दवाओं की क़िल्लत तो है ही, हज़ारों मौतें सिर्फ़ ऑक्सीजन की कमी से ही हो गई हैं. यह सिलसिला ना जाने कब तक और जारी रहेगा.
देश में लगभग हर आदमी ने अपने परिवार या आस-पास से ही किसी ना किसी नज़दीकी व्यक्ति को इस महामारी में खो दिया है. सभी के मन में यह डर बैठा हुआ है कि ना जाने कब बुरी ख़बर आ जाए.
इस महामारी ने देश की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं और प्रबंधन क्षमता दोनों को उघाड़ कर रख दिया है. आम आदमी के लिए तो पहले भी अस्पतालों में इलाज आसान नहीं था.
लेकिन कोविड-19 ने मध्यम वर्ग और काफ़ी हद तक अमीर वर्ग की ग़लतफ़हमी भी दूर कर दी. प्राइवेट अस्पतालों में लाखों रूपये ख़र्च करने के बाद भी लोगों की जान नहीं बच रही है.
इस महामारी ने जो क़हर बरपा किया है उसमें ख़बरें सुनने पढ़ने में डर लगता है. यह सलाह भी दी जा रही है कि जितना हो सके सकारात्मक बने रहें.
कुछ रचनात्मक करें और पॉज़िटिव बनें रहें. मीडिया भी ढूँढ ढूँढ कर कुछ पॉज़िटिव ख़बरें देने में जुटा रहता है.
इन पॉज़िटिव ख़बरों में आदिवासी भारत से जुड़ी कई ख़बरें नज़रों से गुज़री. इन ख़बरों में बताया गया था कि कैसे आदिवासी भारत अभी भी कोरोना वायरस की दूसरी लहर से बचा हुआ है.
इन ख़बरों में आदिवासी जीवन शैली की तारीफ़ों के पुल बांधे गए हैं.
मसलन आज ही एक वेबसाइट पर ख़बर दिखाई दी जो तेलंगाना के आदिवासी समुदाय से जुड़ी हुई है. इस ख़बर में बताया गया है कि तेलंगाना के आदिवासी गाँव इस घातक वायरस की दूसरी लहर से बिलकुल अछूते हैं.
ख़बर में यह भी बताया गया है कि इन आदिवासियों के खानपान और जीवन शैली ने इन आदिवासियों को कोरोना वायरस से बचा लिया है.
खान-पान के बारे में बताया गया है कि ये आदिवासी मुख्यतः रागी और ज्वार ही खाने में इस्तेमाल करते हैं. इसके अलावा ये आदिवासी शाम ढलते ही अपने घरों में चले जाते हैं.
इन आदिवासियों के बारे में बताया गया है कि ये आदिवासी हल्के गर्म पानी में हल्दी डाल कर नहाते हैं. इस वजह से इन आदिवासियों को इंफ़ेक्शन का ख़तरा कम है.
इस तरह की ख़बरें गुजरात, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु , झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश से कई ऐसी ख़बरें पढ़ने को मिलीं.
इन ख़बरों में कई में तो इस तरह का आग्रह था कि हम सभी को आदिवासी जीवन शैली से सीखना चाहिए. अगर हम लोग भी आदिवासी जीवन शैली अपना लें तो कई रोगों से बच सकते हैं.
कई ख़बरों में आदिवासी बस्तियों में सोशल डिस्टेंसिंग के बारे में बताया गया था. आदिवासियों के मुख्यधारा से अलग थलग रहने को भी कोरोना वायरस से बचे रहने का एक अच्छा कारण बताया गया था.
इन ख़बरों में आदिवासी जीवनशैली या खान-पान के बारे में जो भी कहा गया है उससे मेरी कोई आपत्ति नहीं है. मेरी आपत्ति उस बात से है जो नहीं बताई गई है.
यह बात सही है कि आदिवासी गाँवों में आमतौर पर घर थोड़े दूर दूर होते हैं. मध्य भारत के आदिवासी इलाक़ों में एक आदिवासी गाँव के टोलों या फलियों में कई बार किलोमीटर में दूरी होती है.
यह बात भी सही है कि आदिवासी इलाक़ों में रागी, ज्वार, बाजरा शामिल होता है. जो स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है. लेकिन इसके बावजूद यह बात भी तो उतनी ही सच है कि आदिवासी भारत में ग़रीबी और कुपोषण भयानक है.
देश के अन्य समुदायों की तुलना में आदिवासियों में कुपोषण ख़ासतौर से महिलाओं और बच्चों में बहुत अधिक है. शिक्षा के मामले में भी आदिवासी भारत दूसरे समुदायों की तुलना में काफ़ी पिछड़ा हुआ है.
यह बात सही है कि जंगल में रहने वाले आदिवासी समुदायों को जंगल में मिलने वाले औषधीय पेड़ पौधों का कमाल का ज्ञान है.
इस औषधीय ज्ञान का कई रोगों के इलाज के लिए आदिवासी इस्तेमाल भी करते हैं. लेकिन क्या कोविड-19 का इलाज भी इस औषधीय ज्ञान से हो सकता है.
यह कहना और मानना सरासर ग़लत है. जैसे डॉक्टर्स और वैज्ञानिक बरसों के अनुभव और शोध के आधार पर किसी रोग का इलाज या दवाई ढूँढते हैं, वैसे ही आदिवासियों का औषधीय ज्ञान कई पीढ़ियों के अनुभव से आता है.
मेरी नज़र में ये ख़बरें आदिवासी भारत में आधे सच की तरह हैं जो आमतौर पर पूरे झूठ से ख़तरनाक होता है. यह बात में इसलिए कह रहा हूँ कि पहले से ही हमारी सरकारें आदिवासी भारत में स्वास्थ्य सेवाओं, पोषण, शिक्षा और रोज़गार के मामले में कोई तीर नहीं मार रही हैं.
इस तरह की ख़बरें ऐसा माहौल बनाती हैं मानों आदिवासी भारत में कोविड-19 के मद्देनज़र कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं है.
इसके अलावा आदिवासी भारत में टीकाकरण हमेशा चुनौती भरा काम रहा है. इस तरह की ख़बरें इस लिहाज़ से भी आदिवासियों में भ्रम फैला सकती हैं.
ये ख़बरें ऐसा अहसास देती हैं कि पहली बात तो कोरोना वायरस आदिवासी भारत में पहुँच ही नहीं सकता. अगर यह वायरस आदिवासी इलाक़ों में पहुँच भी जाता है तो आदिवासियों का कुछ बिगाड़ नहीं सकता है.
पहले यह भ्रम पूरे भारत के बारे में फैलाया गया कि हम भारतीय की इम्युनिटि इतनी मज़बूत है कि यह वायरस हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता है.
फिर यह भ्रम फैलाया गया कि ग़रीब और मेहनतकश का यह वायरस कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा. अब इस तरह की ख़बरें आदिवासी भारत के बारे में भी यही भ्रम फैला रही हैं.
शायद यही भ्रम हमारी सरकार को भी हो गया था. अब तो यह कहने की भी ज़रूरत नहीं है कि यह भ्रम कितना घातक साबित हुआ है.
आदिवासी भारत के बारे में यह भ्रम पालना कि वहाँ यह बीमारी नहीं पहुँच सकती और पहुँच भी गई तो घातक नहीं होगी, एक बेहद ख़तरनाक धारणा है.
आदिवासी भारत से जुड़े कुछ तथ्यों पर ध्यान देंगे तो यह बात समझ में आ सकती है. मसलन इन तथ्यों को देखिए-
– भारत की कुल आदिवासी आबादी का 40 प्रतिशत से अधिक ग़रीबी रेखा के नीचे जीता है.
– आदिवासी आबादी में सिर्फ़ 10.7 प्रतिशत आबादी को ही नल का पानी नसीब है.
– आदिवासी आबादी का 41 प्रतिशत निरक्षर है, यानि अपना नाम तक लिखना नहीं जानते हैं.
– स्वच्छता अभियान के बाद भी अभी भी 70 प्रतिशत आदिवासी खुले में शौच करता है.
– लांसेट की रिपोर्ट के अनुसार भारत में एक आदिवासी औसतन 63.9 साल जीता है, जबकि बाक़ी भारतीयों के लिए यह औसत 67 साल है.
– 15 से 19 साल की लड़कियों का वज़न औसत से कम है. यानि वो कुपोषण का शिकार हैं.
आदिवासी भारत ख़ूबसूरत है और शहर की भागमभाग से दूर है. लेकिन आदिवासी भारत से जुड़े कुछ तथ्य हैं जो बदसूरत हैं. आदिवासी भारत की ख़ूबसूरती और जीवनशैली की तारीफ़ कीजिए.
लेकिन यह भ्रम ना पालें और ना ही फैलाएँ कि कोरोना वायरस आदिवासी भारत का कुछ नहीं बिगाड़ सकता है. क्योंकि देश के लगभग हर राज्य में जहां आदिवासी आबादी है यह वायरस उन तक पहुँच चुका है.
गुजरात, महाराष्ट्र और झारखंड में यह वायरस आदिवासियों की जान ले रहा है. मैंने पिछले 6-7 साल में आदिवासी भारत में कुछ समय बिताया है.
अपने सीमित अनुभव से कह सकता हूँ कि यह वायरस अगर आदिवासी इलाक़ों में घुस गया तो कुछ समुदायों के तो अस्तित्व पर ही ख़तरा पैदा हो जाएगा.