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छत्तीसगढ़: आदिवासी सीटों पर कांग्रेस क्यों पिछड़ गई

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को कुल 33 सीटों का नुकसान हुआ है. इसमें से आधी से ज़्यादा आदिवासी इलाकों की सीटे हैं. बीजेपी के चुनाव प्रचार के अलावा कांग्रेस के लिए भूपेश बघेल सरकार में उपमुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव के खोदे गड्डे ख़तरनाक साबित हुए.

छत्तीसगढ़ देश का एक ऐसा राज्य है जहां विधान सभा की एक तिहाई सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. यहां की जनसंख्या का इतना ही यानी एक लगभग एक तिहाई हिस्सा भी अलग-अलग आदिवासी समुदायों का है. 

इसलिए इस राज्य में आदिवासियों के समर्थन के बिना किसी भी पार्टी का सत्ता में आना मुश्किल होता है. छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनाव परिणाम फिर इस बात को स्थापित कर रहे हैं. कांग्रेस पार्टी को साल 2018 में राज्य के आदिवासी समुदायों ने ज़बरदस्त समर्थन दिया था. 

राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने आदिवासी पहचान को केन्द्र में रख कर केंद्र सरकार के युनिवर्सल सिविल कोड (UCC) को लागू करने के सुझाव की कड़ी आलोचना की थी. उन्होंने कहा कि अगर यूसीसी लागू होता है तो आदिवासी परंपराएं और प्रथाएं समाप्त हो जाएंगी. 

इसके अलावा भूपेश बघेल सरकार ने वन उत्पादों का दाम बढ़ा कर भी आदिवासी समर्थन को बनाए रखने का प्रयास किया. लेकिन भूपेश बघेल और कांग्रेस पार्टी के ये प्रयास नाकाफी साबित हुए. 

दूसरी तरफ बीजेपी ने आदिवासियों के विकास के लिए केंद्र सरकार की घोषणाओं और योजनाओं का प्रचार किया. इसके साथ ही बीजेपी के सहयोगी संगठनों ने डीलिस्टिंग यानि धर्म परिवर्तन कर चुके आदिवासियों को आरक्षण से वंचित करने की मांग के साथ आंदोलन चलाया.

बस्तर के इलाके में इस आंदोलन ने आदिवासी समुदायों में बंटवारा पैदा किया. इस मुद्दे पर भूपेश बघेल को यह शाबासी दी जा सकती है कि उसने इस मुद्दे पर हिंसा फैलाने की कोशिशों को नाकाम कर दिया. लेकिन इस मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी या भूपेश बघेल स्पष्ट कोई राय नहीं दे पाये. यह बीजेपी के लिए एक बेहत्तर स्थिति थी.

छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनाव में आदिवासी वोटर की मनस्थिति और पार्टियों को दिए वोट का आकलन करते हुए सीएसडीएस (CSDS) के सह-निदेशक संजय कुमार कहते हैं, “छत्तसीगढ़ की सरकार(भूपेश बघेल सरकार) आदिवासियों को यह विश्वास नहीं दिला पाई कि उसने उनके विकास और अधिकारों की सुरक्षा के लिए काम किया है. आदिवासी इलाकों में मतदाता इस मुद्दे पर बंटा हुआ था. 32 प्रतिशत मतदाता यह मानता था कि आदिवासियों के लिए केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों ने काम किया था.”

संजय कुमार आगे कहते हैं, “चुनाव परिणामों में आदिवासी वोटों का बंटवारा उसी आधार पर नज़र आता है. जो आदिवासी यह मान रहे थे कि केंद्र सरकार ने आदिवासियों के लिए ज़्यादा काम किया है उन्होंने बीजेपी को वोट किया है. जो लोग यह मानते थे कि राज्य सरकार ने आदिवासी हितों का ध्यान रखा तो उन्होंने कांग्रेस पार्टी के पक्ष में वोट किया.”

संजय कुमार कहते हैं कि जो आदिवासी यह मानते थे कि दोनों ही सरकारों ने आदिवासियों के लिए काम किया है उसमें से ज़्यादातर ने बीजेपी के लिए ही वोट किया है. इसके अलावा बीजेपी को घर वापसी यानि डिलिस्टिंग जैसे अभियान का फ़ायदा हुआ है. सीएसडीएस सर्वे यह दावा करता है कि इस अभियान का ज़्यदातर आदिवासी मतदाता ने समर्थन किया है.

आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित प्रदेश की 29 सीटों में बीजेपी को 16, कांग्रेस 12 और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी को एक सीट मिली है. वर्ष 2018 के चुनाव में एसटी वर्ग की 29 में से दो सीटें ही भाजपा के पास थीं.  बाकी 27 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस का कब्जा था.

इस लिहाज़ से देखें तो कांग्रेस पार्टी को आदिवासी समुदायों में भारी नुकसान हुआ है. 2023 के विधान सभा चुनाव में उसे 2018 कि तुलना में 15 सीटें कम मिली हैं. लेकिन इस चुनाव में भी कांग्रेस पार्टी का आदिवासी इलाकों में वैसा हाल नहीं हुआ है जैसा बीजेपी का 2018 के चुनाव में हुआ था. 2018 में बीजेपी आदिवासियों के लिए आरक्षित कुल 29 सीटों में से मात्र तीन जीत पाई थी.

इसके बावजूद कांग्रेस पार्टी को आदिवासी इलाकों में जो नुकसान हुआ है वह निश्चित ही निर्णायक साबित हुआ है. कांग्रेस पार्टी को छत्तीसगढ़ में कुल 33 सीटों का नुकसान हुआ है. उसमें से आधे से ज़्यादा सीटें उसने आदिवासी इलाकों में खोई हैं. 

आदिवासी इलाकों में कांग्रेस पार्टी को हुए नुकसान के कई और कारण बताए जाते हैं. मसलन भूपेश बघेल सरकार ने किसानों की धान खरीदी मूल्य बढ़ाया, उनका कर्ज़ माफ़ किया लेकिन आदिवासी समुदायों के लिए इन घोषणाओं का ज़्यादा मतलब नहीं था.

इसके अलावा हसदेव अरण्य और सिलगेर जैसे इलाकों में आदिवासी आंदलोन ने भी शायद कुछ ना कुछ भूमिका कांग्रेस की हार में निभाई है. लेकिन आदिवासी इलाकों में कांग्रेस की हार के दो बड़ी वजह अगर चिन्हित करनी हों तो पहली बीजेपी का दोहरा प्रचार और कांग्रेस में टीएस सिंह देव का अपने ही सरकार को लगातार मुश्किल में डालने की रणनीति कही जा सकती है.

बीजेपी ने जहां आदिवासी इलाकों में नरेन्द्र मोदी सरकार की घोषणाओं और योजनाओं का प्रचार किया और ज़मीन पर आदिवासियों में धर्म परिवर्तन को मुद्दा बनाया. जिसने आदिवासियों में ध्रुवीकरण पैदा किया. इसके अलावा टीएस सिंह देव ने हसदेव अरण्य मामले में चल रहे आंदोलन को हवा दी. नतीजा ये निकला कि वे अपनी सीटे भी हारे और सरगुजा जहां 2018 में 9 आदिवासी आरक्षित सीटों सहित उनकी पार्टी ने सभी 14 सीटें जीती थीं, इस चुनाव में गँवा दी. 

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