HomeIdentity & Lifeअसम में आदिवासियों से झूठे वादे बीजेपी को भारी पड़ सकते हैं

असम में आदिवासियों से झूठे वादे बीजेपी को भारी पड़ सकते हैं

भाजपा असम के छह समुदायों को लंबे वक्त से अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का वादा करती आई है लेकिन यह वादा अभी तक पूरा नहीं हुआ है. जिसके चलते अब आए दिन इन समुदायों के हज़ारों लोग अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं.

इन दिनों असम में हजारों लोग सड़कों पर उतरे नजर आ रहे हैं. ये लोग अनुसूचित जनजाति (Scheduled tribe) का दर्जा देने के वादे को पूरा करने को लेकर राज्य में बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं.

8 अक्टूबर को चाय समुदाय के हजारों लोग तिनसुकिया की सड़कों पर उतर आए और एक विशाल रैली निकाली. उन्होंने दैनिक मजदूरी बढ़ाने, भूमि स्वामित्व अधिकार और समुदाय के लिए अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा दिए जाने की मांग की.

प्रदर्शनकारियों का कहना है कि सरकार ने पिछले चुनावों में कई वादे किए थे लेकिन उन पर अमल नहीं किया. हम सरकार से बार-बार आग्रह करते रहे हैं. उन्होंने हमारी मांगें पूरी करने का वादा किया था, लेकिन कुछ नहीं बदला.

चाय समुदाय के संगठन वर्षों से दैनिक मजदूरी में संशोधन, चाय बागान क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों को भूमि के पट्टे वितरित करने और अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की माँग कर रहे हैं.

सरकार का कहना है कि बातचीत जारी है लेकिन प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि बिना किसी स्पष्ट कारण के इस प्रक्रिया में देरी की जा रही है.

इससे पहले 26 सितंबर को असम के तिनसुकिया ज़िले से होकर गुज़रने वाली सदिया की एक प्रमुख सड़क पर हज़ारों लोगों ने मशाल जुलूस निकाला था. इस दौरान प्रदर्शनकारी राज्य की भारतीय जनता पार्टी सरकार के ख़िलाफ़ नारे लगा रहे थे.

उन्होंने कहा, “भाजपा ने हमें निराश किया है. अनुसूचित जनजाति नहीं, तो आराम नहीं.”

असम के इस हिस्से के मूल निवासी ताई अहोम समुदाय के प्रदर्शनकारी अनुसूचित जनजाति का दर्जा मांग रहे थे जिससे उन्हें शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिल सके.

ऑल ताई अहोम स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष मिलन बुरागोहेन ने कहा कि एक दशक से भी ज़्यादा समय हो गया है जब भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने पहली बार ताई अहोम और पाँच अन्य जातीय समुदायों को आदिवासी समूहों के रूप में वर्गीकृत करने का वादा किया था.

2016 से असम में सत्ता में बीजेपी लगातार खुद को मूल निवासी यानि आदिवासी समुदायों के हिमायती के रूप में पेश करती रही है, और उन्हें बंगाली मूल के मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करती रही है.

लेकिन बुरागोहेन ने कहा कि बीजेपी के दावे खोखले साबित हुए. उन्होंने कहा, “वे जाति, माटी और भेटी की रक्षा की बात करते हैं. लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया यह शर्मनाक है.”

ताई अहोम उन छह समुदायों में से एक है जो खुद को अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत करने की मांग कर रहे हैं. अन्य समुदाय हैं – मोरन, मटक, चुटिया, कोच-राजबोंगशी और चाय जनजातियां.

सितंबर महीने में इनमें से ज़्यादातर समुदायों ने तिनसुकिया, डिब्रूगढ़ और पूर्वी असम, जिसे ऊपरी असम भी कहा जाता है, वहां के अन्य स्थानों पर बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किए.

2011 की जनगणना के मुताबिक, असम की जनसंख्या 3.1 करोड़ है, जिसमें अनुसूचित जनजातियाँ 40 लाख यानि कुल जनसंख्या का 13 फीसदी हैं. अगर इन छह समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे दिया जाए, तो आदिवासी आबादी का हिस्सा लगभग 50 फीसदी तक बढ़ सकता है.

बुरागोहेन ने कहा कि अगर हमें एसटी का दर्जा दिया गया तो असम एक आदिवासी राज्य बन जाएगा.

उन्होंने कहा, “अगर असम एक आदिवासी राज्य बन जाता है तो भूमि अधिकार, राजनीतिक अधिकार और अवैध बांग्लादेशियों जैसे हमारे प्रमुख मुद्दे अपने आप सुलझ जाएंगे. क्योंकि हमें कोई ख़तरा नहीं होगा.”

असम में बंगाली मूल के मुसलमानों पर अक्सर पड़ोसी बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासी होने का झूठा आरोप लगाया जाता है.

छह समुदायों के नेता अक्सर तर्क देते हैं कि उन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता देने से बांग्लादेश से तथाकथित अवैध घुसपैठ की समस्या का महत्वपूर्ण समाधान होगा.

क्योंकि इससे अनुसूचित जनजाति समुदायों के उम्मीदवारों के लिए अधिक निर्वाचन क्षेत्र आरक्षित हो जाएंगे. उनका तर्क है कि इससे बंगाली मुस्लिम आबादी का चुनावी प्रभाव कम हो जाएगा.

लेकिन बुरागोहेन ने कहा कि भाजपा सरकार उन्हें आदिवासी के रूप में मान्यता देने की संभावना नहीं रखती, क्योंकि इससे उसकी हिंदू-मुस्लिम राजनीति का अंत हो जाएगा. इसके अलावा मुख्यमंत्री स्वयं एक गैर-आदिवासी ब्राह्मण हैं. अगर हमें अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे दिया गया, तो वे फिर कभी मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे.

सिर्फ लुभावने वादे

अनुसूचित जनजाति का दर्जा माँग रहे सभी छह समुदाय वर्तमान में राज्य की अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) सूची में शामिल हैं.

मोरन, मटक और चुटिया समुदाय मुख्य रूप से ऊपरी असम से हैं. कोच-राजबोंगशी, जिन्हें मेघालय में अनुसूचित जनजाति और पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जाति माना जाता है, मुख्य रूप से राज्य के पश्चिमी भाग में रहते हैं. जबकि ताई अहोम ऊपरी असम के अन्य जिलों के अलावा शिवसागर, जोरहाट और चराईदेउ में रहते हैं.

अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने की उनकी माँग को राज्य की मौजूदा अनुसूचित जनजातियों ने विरोध का सामना करना पड़ा है.

राज्य के अनुसूचित जनजाति संगठनों का कहना है कि इन समुदायों में वे विशेषताएं नहीं हैं जो भारत में आदिवासियों को दर्शाती हैं क्योंकि ये काफ़ी उन्नत समुदाय हैं. ये छह समुदाय आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़े नहीं हैं.

हालांकि, 2014 के आम चुनावों से पहले असम में एक जनसभा को संबोधित करते हुए, तत्कालीन भाजपा के प्रमुख प्रचारक नरेंद्र मोदी ने न केवल छह समुदायों की मांगों को स्वीकार किया बल्कि उनकी मांगों को न मानने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की भी आलोचना की.

नवंबर 2015 में मोदी सरकार में राज्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि असम के छह समुदायों को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता देने का प्रस्ताव प्रधानमंत्री के पास है और असम में 2016 के विधानसभा चुनावों से पहले इसे मंज़ूरी मिलने की संभावना है.

विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा के विज़न दस्तावेज़ या घोषणापत्र में यह भी कहा गया था कि अगर राज्य में उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वह “केंद्र सरकार के साथ मिलकर असम के छह समुदायों को समयबद्ध तरीके से अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलाने के लिए काम करेगी.”

फिर जनवरी 2019 में उस सालहुए लोकसभा चुनावों से कुछ महीने पहले, मोदी सरकार ने घोषणा की थी कि असम के छह समुदायों – ताई अहोम, कोच राजबोंगशी, चुटिया, टी ट्राइब्स, मोरन और मटक को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने वाला एक विधेयक संसद में पेश किया जाएगा.

गृह मंत्रालय ने एक बयान में कहा था, “सरकार ने कैबिनेट की मंज़ूरी की आवश्यकता को हटा दिया है. संसद के मौजूदा सत्र में एक विधेयक पेश किया जा रहा है.”

लेकिन ऐसा कोई कानून नहीं लाया गया.

असम में दो बार सरकार बनाने के बावजूद, भाजपा ने अपना वादा नहीं निभाया.

जनवरी 2021 में  तत्कालीन राज्य के स्वास्थ्य मंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने ऑल कोच राजबोंगशी स्टूडेंट्स यूनियन के 20वें शहीद दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि छह समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की प्रक्रिया शुरू हो गई है.

उसी महीने, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सिलचर में एक जनसभा में दावा किया कि केंद्र सरकार पहले ही छह समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे चुकी है.

नुकसान की भरपाई के लिए आगे आते हुए सरमा ने कहा कि नड्डा ने केवल “छह समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की हमारी प्रतिबद्धता दोहराई थी.”

सरमा अब असम के मुख्यमंत्री हैं. छह समुदायों द्वारा नए सिरे से शुरू किए गए विरोध प्रदर्शन का सामना करते हुए, उन्होंने 12 सितंबर को कहा कि उन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की प्रक्रिया “सकारात्मक प्रयासों के साथ सुचारू रूप से आगे बढ़ रही है.”

लेकिन उन्होंने उनसे अपना विरोध प्रदर्शन स्थगित करने की अपील की और चेतावनी दी कि आंदोलन केवल प्रक्रिया में देरी कर सकता है.

इससे छह समुदायों के नेताओं का गुस्सा और बढ़ गया है.

ऑल मोरन स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष पोलिंद्र बोरा ने कहा, “भाजपा सरकार बार-बार झूठ बोल रही है. हम सरकार के झूठ से थक चुके हैं.”

स्थानीय अनुमानों के मुताबिक, इस समुदाय की लगभग 3 लाख आबादी मुख्य रूप से तिनसुकिया ज़िले में रहती है और ज़िले के सभी पाँचों निर्वाचन क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका निभाती है.

तिनसुकिया से दो विधायक इसी समुदाय से हैं. दोनों ही भाजपा से हैं.

बोरा का कहना है कि मोरन लोग भाजपा को वोट देते रहे हैं. लेकिन अब वे हमें हल्के में नहीं ले सकते. उन्होंने झूठे वादों से हमें धोखा दिया है. अगर वे मूल निवासियों की सुरक्षा की बात करते हैं, तो उन्होंने हमें अनुसूचित जनजाति का दर्जा क्यों नहीं दिया?”

ऑल ताई अहोम स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष बुरागोहेन ने कहा कि अगर भाजपा 2026 के चुनाव से पहले अपना वादा पूरा नहीं करती है, तो हम दूसरे विकल्प पर विचार करेंगे.

असम चाय जनजाति छात्र संघ के प्रमुख धीरज गोवाला ने कहा कि चाय जनजातियाँ भाजपा को वोट देती रही हैं और पार्टी के छह विधायक और दो सांसद हैं. इसके बावजूद, सरकार हमारी माँग पूरी नहीं कर रही है, इसलिए हमें सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. हम 13 अक्टूबर को डिब्रूगढ़ में विरोध प्रदर्शन करेंगे.

असम में 96 समुदायों को चाय जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है.

चाय जनजातियों को आमतौर पर बगानिया कहा जाता है, जो चाय बागान श्रमिक और उनके परिवार है.

चाय जनजातियों को असम का मूल निवासी नहीं माना जाता है. जबकि उन्हें उनके मूल राज्यों में अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता प्राप्त है.

चाय जनजातियों और आदिवासी समूहों को उनके मूल राज्यों – ओडिशा, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जनजातियों के रूप में मान्यता प्राप्त है. जहां से उन्हें 1800 के दशक की शुरुआत में अंग्रेजों द्वारा लाया गया था.

असम में करीब 1 हज़ार बागानों में फैले चाय बागान समुदाय चुनावी नतीजों में निर्णायक भूमिका निभाते हैं.

वे पारंपरिक रूप से कांग्रेस समर्थक थे लेकिन 2014 से भाजपा के प्रति उनकी निष्ठा बदल गई.

ऑल आदिवासी स्टूडेंट्स एसोसिएशन ऑफ असम के महासचिव अमरज्योति सुरीन ने कहा कि 2016 के राज्य चुनावों से पहले, भाजपा ने चाय जनजातियों और आदिवासी समूहों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का वादा करते हुए बड़े पैमाने पर पर्चे बांटे, जिन्होंने भगवा पार्टी को भारी मतदान किया. लेकिन यह मूल मांग अभी भी अधूरी है.

अमरज्योति सुरीन का कहना है कि भाजपा सरकार में हमें अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है इसके बजाय, वे मुफ़्त चावल और नकद दे रहे हैं. भाजपा सरकार ने हमें हमारे संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया है.

चाय बागान श्रमिकों की न्यूनतम दैनिक मज़दूरी 250 रुपये है.

राजनीतिक परिणाम

विकासशील समाज अध्ययन केंद्र की लोकनीति द्वारा चुनाव के बाद किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि अनुसूचित जनजाति का दर्जा चाहने वाले छह समुदायों की 49 फीसदी आबादी ने भाजपा को वोट दिया था.

लेकिन करीब एक दशक बाद, यह समर्थन डगमगा सकता है.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि ये विरोध प्रदर्शन रणनीतिक हैं, जिनका उद्देश्य 2026 में होने वाले राज्य चुनावों से पहले सत्तारूढ़ भाजपा पर दबाव बनाना है.

हालांकि, पार्टी कुछ माँगों को मानकर, इन समुदायों की सौदेबाजी की शक्ति को कम करके, कोई रास्ता निकाल सकती है.

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा ने खुद को आदिवासी और मूलनिवासी हितों के रक्षक के रूप में स्थापित किया है लेकिन उसके शासन मॉडल, जिसे “ऊपर से नीचे तक और जमीनी हकीकत से कटा हुआ” माना जाता है…उसने असंतोष को बढ़ावा दिया है.

मांगों को पूरा करने में विफलता एक महत्वपूर्ण मतदाता आधार से अलग होने का जोखिम उठाती है, जिससे 2026 के चुनावों से पहले पार्टी का समर्थन कम हो सकता है.

हालांकि, भाजपा की प्रतीकात्मक रियायतें या कल्याणकारी योजनाएं लागू करने की प्रवृत्ति, इस प्रतिक्रिया को कम कर सकती है.

2021 के विधानसभा चुनावों से पहले भी कम से कम तीन जातीय समुदायों, मोरन, मटक और कोच, को स्वायत्त परिषदें प्रदान की गई थीं. जिससे उन्हें अधिक प्रशासनिक और राजनीतिक स्वायत्तता मिलती है.

इसके बाद नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए, जो बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान से आए गैर-मुस्लिम प्रवासियों को भारतीय नागरिकता देने में तेज़ी लाता है.

असम मेंइस कानून ने राज्य की जनसांख्यिकी और पहचान पर ख़तरे को लेकर व्यापक भय और विरोध को जन्म दिया. और भाजपा उन्हें वापस अपने पाले में लाया.

राजनीतिक वैज्ञानिक के मुताबिक ये विरोध प्रदर्शन राजनीतिक प्रभाव के पुनर्संतुलन को दर्शाते हैं जो शासन की सीमाओं की परीक्षा लेते हुए बातचीत के रास्ते खुले रखते हैं.

इन मांगों को ख़तरे के तौर पर खारिज किया जाता है या समझौते के अवसर के तौर पर स्वीकार किया जाता है, यही आखिर में असम में भाजपा के चुनावी भाग्य का निर्धारण करेगा.

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