वारली जनजाति भारत की एक प्राचीन आदिवासी जनजाति है, जो मुख्य रूप से महाराष्ट्र के पालघर, ठाणे, नासिक और डांग (गुजरात) क्षेत्रों में पाई जाती है .
इनकी पहचान उनकी अनूठी संस्कृति, प्रकृति से जुड़ा जीवन, और विशेष रूप से उनकी प्रसिद्ध वारली चित्रकला (Warli Painting) के लिए होती है.
वारली समुदाय आमतौर पर पहाड़ियों, जंगलों और खेतों के पास वाले गांवों में रहते है.
उनकी जीवनशैली प्रकृति पर निर्भर है, और खेती, मछली पकड़ना, पशुपालन तथा जंगल से संसाधन एकत्र करना इनका मुख्य व्यवसाय है.
वे वर्षा पर निर्भर फसलों जैसे चावल, बाजरा और कोदो की खेती करते हैं.
इनकी बस्तियाँ मिट्टी और लकड़ी के घरों से बनी होती हैं और घरों की दीवारें गोबर व मिट्टी से पोती जाती हैं.
वारली लोग आमतौर पर अपनी आदिवासी भाषा में बात करते हैं. इसके अलावा वे मराठी, कोकणी बोलते हैं.
वारली आदिवासी समुदाय की अपना धर्म और परंपराएँ हैं. वारली जनजाति की सबसे बड़ी सांस्कृतिक देन है वारली पेंटिंग कही जा सकती है. यह चित्रकला दुनिया भर में मशहूर है.
1970 के दशक में जब यह कला बाहरी दुनिया में पहुँची, तो कलाकारों और डिज़ाइनरों ने इसकी सादगी और प्रतीकात्मकता को अपनाया.
आज यह कला भारत की प्रमुख जनजातीय कलाओं में से एक है. जिसे UNESCO और कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सम्मान मिला है.
वारली चित्रकला बनाने की प्रक्रिया पारंपरिक होती है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी वरली जनजाति के लोगों से चली आ रही है.
सबसे पहले, दीवारों को लाल मिट्टी, गोबर और पानी के मिश्रण से पोता जाता है जिससे एक चिकनी और लाल-भूरी भूमि बनती है.
इसके बाद, चित्र बनाने के लिए चावल के आटे को पानी में घोलकर सफेद रंग तैयार किया जाता है. कलाकार इस सफेद रंग को छोटी-छोटी छड़ी, तिनके या उंगली की मदद से दीवार पर आकृतियाँ बनाते हैं.
चित्रों में आकृतियाँ जैसे वृत्त, त्रिभुज और वर्ग का इस्तेमाल किया जाता है, जो मनुष्य, पशु, पेड़-पौधे और प्राकृतिक दृश्यों का दर्शन करते हैं.
इस पूरी प्रक्रिया में कलाकारों की कल्पना, संस्कृति और परंपराओं का गहरा सम्मेलन होता है, जो इस कला को जीवंत और अनोखा बनाता है.
वारली चित्रकला में वृत्त, त्रिभुज, और वर्ग ये तीनों मूल आकार हैं, जिनका उपयोग सभी चित्रों को बनाने के लिए किया जाता है.
- वृत्त (Circle): यह आकृति आम तौर पर सूर्य, चंद्रमा, और आकाश को दर्शाने के लिए इस्तेमाल होती है। यह जीवन, निरंतर, और एकता का प्रतीक भी होती है.
- त्रिभुज (Triangle): त्रिभुज का प्रयोग पहाड़ों, पेड़ों, और मनुष्यों को दर्शाने के लिए किया जाता है. मनुष्य की आकृति अक्सर दो त्रिभुजों को मिलाकर बनाई जाती है, ऊपर का त्रिभुज छाती और नीचे का कमर या कूल्हे को दिखाता है.
वारली चित्रकला में मनुष्यों के चेहरे चेहराविहीन (faceless) होते हैं.
चेहरा न होना यह दर्शाता है कि सभी लोग समाज में समान हैं . कोई छोटा-बड़ा नहीं, कोई उच्च-निम्न नहीं.
- वर्ग (Square): वर्ग को पृथ्वी, स्थिरता, और पवित्र स्थान के रूप में माना जाता है. इसे कभी-कभी पूजा स्थल या खास जगह के लिए चित्रित किया जाता है.
वारली जनजाति की इस विश्व प्रसिद्ध चित्रकला की उत्पति समुदाय की धार्मिक आस्थाओं में मिलती है.
वारली पेंटिग्स समुदाय में शादी-ब्याह के अवसर पर देवताओं को बुलाने के लिए दिवारों पर बनाई जाती थी.
यह कला मुख्यत महिलाएं ही जानती थीं. लेकिन धीरे धीरे इस कला को वारली आदिवासी समुदाय के पुरुषों ने भी सीख लिया.
महाराष्ट्र और गुजरात के डांग इलाके में अभी भी वारली आदिवासी परिवारों में शादी के दौरान ये पेंटिग्स घर की एक दिवार को लीप कर बनाई जाती हैं.
लेकिन अब इस चित्रकला को बनाने के लिए पैसे दे कर कलाकार बुलाए जाते हैं. अब ज़्यादातर परिवारों में वारली पेंटिग्स बनाने वाले लोग नहीं रहे हैं.
वारली जनजाति की एक और प्रसिद्ध परंपरा “तारपा” है. यह माना जाता है कि तारपा के मधुर संगीत से उनके पूर्वजों की आत्मा खुश हो जाती है.
तारपा एक जनजातीय वाद्य यंत्र है जो महाराष्ट्र की वरली जनजाति द्वारा विशेष अवसरों पर बजाया जाता है.
यह मुख्यतः फसल कटाई के त्योहारों, शादी समारोह, और सांस्कृतिक नृत्यों के दौरान उपयोग में लाया जाता है.
तारपा को बांस और कद्दू जैसी प्राकृतिक चीज़ों से बनाया जाता है. इसके अलावा इस वाद्य यंत्र को अक्सर मोर पंखों से सजाया जाता है.
इसका सिरा बड़ा और गोल होता है, और इसमें एक सिरे से फूंक मार कर संगीत उत्पन्न किया जाता है.
इससे निकलने वाली ध्वनि में एक खास प्रकार की गूंज होती है, जो नृत्य और उत्सव का माहौल बना देती है.
तारपा सिर्फ एक वाद्य यंत्र नहीं है, बल्कि वरली जनजाति की आत्मा, उनकी पूर्वजों की स्मृति और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है.
वारली लोग मानते हैं कि जब तारपा की धुन बजती है, तो उनके पूर्वजों की आत्माएं उस संगीत के माध्यम से जीवित हो उठती हैं.
यह ध्वनि उन्हें उनके इतिहास, परंपराओं और प्रकृति से जोड़ती है.
तारपा के संगीत पर वारली जनजाति के स्त्री-पुरूष मिल कर नाचते हैं. इस वाद्य यंत्र का संगीत बीन जैसा ही होता है.
इस संगीत पर आदिवासी कई बार पूरी पूरी रात नाचते रहते हैं.
तारपा संगीत आदिवासियों के लिए मनोरंजन और उत्सव के साथ साथ पूर्वजों की उपस्थिति और आशीर्वाद का प्रतीक है.