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असम की चुनावी फ़िज़ा में आंदोलन सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन रहे हैं

असम के छ समुदाय अनुसूचित जनजाति के दर्जे को लेकर एक के बाद एक प्रदर्शन कर रहे हैं. अगले साल होने वाले चुनावों से पहले बीजेपी की मुश्किलें बढ़ती हुईं नज़र आ रही हैं.

असम में रहने वाले छ समुदाय लंबे समय से अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल किए जाने की मांग कर रहे हैं.

इसमें अहोम, चुटिया, मटक, मोरन, कोच राजबंशी और चाय जनजाति शामिल हैं.

ये सभी समुदाय समय-समय पर एसटी दर्जे की मांग करते रहे हैं.

पिछले माह यानी सितंबर में भी मोरन, मटक और कोच राजबंशी समुदायों ने गोलकगंज, तिनसुकिया और डिब्रूगढ़ में सक्रियता से प्रदर्शन किया और बड़ी विरोध रैली निकाली.

अब चाय बागान श्रमिक भी 8 अक्टूबर को तिनसुकिया ज़िले में एक विशाल आंदोलन की तैयारी कर रहे हैं.

आयोजकों के अनुसार, यह राज्य में चाय जनजातियों का अब तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन होगा. इसमें लगभग एक लाख लोग शामिल होंगे.

आंदोलनकारियों की मुख्य मांग है कि चाय जनजाति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाए.

इसके साथ ही वे भाजपा सरकार के कई कई अधूरे वादों से भी नाराज़ हैं.

आंदोलन की तैयारी

असम टी वर्कर्स यूनियन, असम टी ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन (ATSA), ऑल आदिवासी स्टूडेंट्स एसोसिएशन ऑफ असम (AASAA), आदिवासी छात्र संघ और कई महिला संगठनों ने मिलकर इस आंदोलन की योजना बनाई है.

इन संगठनों का कहना है कि यह आंदोलन केवल मज़दूरी या नौकरी की लड़ाई नहीं है बल्कि सम्मान, न्याय और अस्तित्व की लड़ाई है.

बीजेपी के अधूरे वादे

चाय बागान श्रमिकों की यह मांगें काफ़ी पुरानी हैं.

भाजपा सरकार ने 2014 के आम चुनावों में सत्ता में आने के 100 दिन के भीतर चाय जनजाति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का वादा किया था.

असम में एसटी दर्जे की मांग कर रहे सभी छह समुदायों को ये भरोसा दिया गया था.

हालांकि, एक दशक से अधिक समय बीत जाने के बावजूद यह वादा पूरा नहीं हुआ है.

यूनियन लीडर्स का कहना है कि चाय बागान श्रमिकों की स्थिति में सुधार की बजाय और भी गिरावट आई है.

न्यूनतम मज़दूरी ₹351 निर्धारित की गई थी लेकिन यह भी सही तरीके से लागू नहीं हो पाई है.

इसके अलावा, भूमि पट्टों की कमी और बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण ये समुदाय और भी हताश हुआ है.

विभिन्न स्त्रोतों, के अनुसार, असम की आबादी का 17 से 20 प्रतिशत हिस्सा उन आदिवासी समुदायों का है जिन्हें चाय जनजाति कहा जाता है.

उनका वोट बैंक चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाता है. इसलिए इनकी मांगों की अनदेखी राजनीतिक दृष्टि से भी चुनौतीपूर्ण हो सकती है.

एसटी दर्जा देने में चुनौती

असम में फिलहाल जो समुदाय अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल हैं वे इन छह जातीय समूहों को आदिवासी का दर्जा देने के पक्ष में नहीं हैं.

फिलहाल ये छह समुदाय ओबीसी की सूचि में आते हैं. हालांकि अप्रैल में राज्य सरकार इन समुदायों में से कुछ को संरक्षित समुदाय का दर्जा देने का निर्णय लिया था.

लेकिन आदिवासी संगठनों ने इसका भी विरोध किया था.

असम के आदिवासी संगठनो का कहना है कि ये समुदाय पहले से ही संपन्न हैं, इसलिए इन्हें एसटी का दर्जा देने की ज़रूरत नहीं है.

2016 में, असम के आदिवासी संगठनों की एक समन्वय समिति ने 10 जनजातियों – बोडो, राभा, तिवा, कार्बी, डिमासा, मिशिंग, सोनोवाल, हाजोंग, गारो और देउरी का प्रतिनिधित्व किया.

उसने सिंगला समिति को लिखा कि छह “उन्नत और आबादी वाले ओबीसी समुदायों” को एसटी का दर्जा देने का प्रस्ताव “असम के मौजूदा एसटी को खत्म करने की साजिश” है.

केंद्र ने छह समुदायों की मांग और उसके परिणामों पर विचार करने के लिए 1 मार्च 2016 को गृह मंत्रालय में तत्कालीन विशेष सचिव (आंतरिक सुरक्षा) महेश कुमार सिंगला की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी.

असम आदिवासी संगठन समन्वय समिति (CCTOA) ने समय-समय पर सिंगला समिति की आलोचना की और अपनी शिकायत भी लिखकर भेजीं.

सीसीटीओए ने कहा, “ये छह समुदाय शैक्षणिक और आर्थिक रूप से उन्नत हैं और संख्या में भी अधिक हैं और मौजूदा एसटी समुदाय इन उन्नत समूहों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते. एक बार उन्हें एसटी का दर्जा मिल गया तो मौजूदा समुदाय निर्वाचित निकायों और शिक्षा और नौकरियों से बाहर हो जाएंगे.”

साथ ही उन्होंने बताया कि मौजूदा एसटी समुदायों के भूमि अधिकार भी छीन लिए जाएंगे.

सीसीटीओए ने यह भी कहा कि भारत के रजिस्ट्रार जनरल ने 1981 से 2006 के बीच इन छह समुदायों की मांगों को बार-बार खारिज किया है.

मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने हाल ही में इन समुदायों से धैर्य रखने की अपील की थी. लेकिन बीजेपी को वादे करने से पहले, इन समुदायों को एसटी दर्जा देने में आने वाली चुनौतियों और भूतकाल में इन मांगों को खारिज करने के कारणों को समझना चाहिए था. क्योंकि वादे करने से उम्मीद बढ़ती है.

10 साल पहले किए गए वादे आज तक अधूरे हैं. इस स्थिति में इन समुदायों का आक्रोश बढ़ना लाज़मी है.

अगले साल यानि 2026 के मार्च-अप्रैल महीने में राज्य विधान सभा चुनाव होंगे. इसलिए यह सही समय है जब उन समुदायों को सरकार और अन्य राजनीतिक दलों को लोगों के मुद्दे प्राथमिकता पर रखने का दबाव बनाना चाहिए.

इसलिए असम में अनुसूचित जनजाति में शामिल किए जाने की मांग करने वाले संगठन एक के बाद एक बड़े प्रदर्शन कर रहे हैं.

Image credit – ETV bharat

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