HomeGround Reportमनकिरिड़िया या मांकड़िया आदिवासी: टाइगर ने जंगल से किया बेदख़ल

मनकिरिड़िया या मांकड़िया आदिवासी: टाइगर ने जंगल से किया बेदख़ल

ओडिशा की आदिम जनजाति मनकिरिड़िया के लोगों से मिलने के लिये हम राज्य के मयूरभंज ज़िले के जसीपुर ब्लॉक पहुंचे. भुवनेश्वर से जसीपुर का रास्ता 400 किलोमीटर से ऊपर है.रास्ते की सड़क बेहतरीन थी, लेकिन बारिश की वजह से समय कुछ ज़्यादा लग गया.

इसलिए जसीपुर पहुंचते-पहुंचते हमें देर रात हो गई थी.सुबह हुई तो अहसास हुआ कि जसीपुर एक छोटा सा कस्बा है, लेकिन सिमलीपाल टाइगर रिज़र्व फॉरेस्ट की वजह से काफ़ी मशहूर है. रिज़र्व फॉरेस्ट का भी मनकिरिड़िया आदिवासियों की कहानी में अहम ज़िक्र होगा. लेकिन सबसे पहले बात जसीपुर में मनकिरिड़िया-हिलखड़िया विकास एजेंसी की करते हैं.

ये एजेंसी इन आदिम जनजातियों के लिये माइक्रो प्रोजेक्ट चलाती है. मोटेतौर पर कहें तो मनकिरिड़िया आदिवासियों के लिये जो कुछ भी किए जाने की ज़रूरत है वो इसी एजेंसी का काम है.

2011 की जनगणना के अनुसार मनकिरिड़िया या मांकड़िया की कुल आबादी 2222 है. हालांकि इन आंकड़ों पर कुछ लोगों का कहना है कि असल में इन आदिवासियों की आबादी इससे कम है.

जबकि कुछ लोगों का कहना ये है कि यह आबादी ज़्यादा भी हो सकती है, क्योंकि एक बड़ी संख्या में मनकड़िया आदिवासी रोज़ी-रोटी की तलाश में बाहर निकल जाते हैं, और उनकी गिनती नहीं हो पाती. आदिवासी भारत में, और ख़ासतौर से आदिम जनजातियों के बारे में हमारा अनुभव भी यही कहता है कि जनगणना के आंकड़ों में काफ़ी त्रुटियां हैं.

मनकिरिड़िया विकास एजेंसी के दावे और स्कूलों की हक़ीक़त

जसीपुर में मनकिरिड़िया विकास एजेंसी के तत्कालीन स्पेशल ऑफिसर हज़ारी मगेंराज से हमारी मुलाक़ात हुई. उन्होंने बातचीत में बताया कि मनकिरिड़िया या मांकड़िया आदिम जनजाति के आदिवासियों के स्वास्थ, शिक्षा और विकास के लिए कई प्रबंध किए गए हैं.

इसके अलावा उन्होंने बताया कि प्रशासन इस बात को लेकर सचेत है कि उनकी जनसंख्या में नेगेटिव ग्रोथ ना हो. यानि उनकी आबादी धीरे-धीरे ख़त्म ना हो. मगेंराज ने विस्तार से हमें इन आदिवासियों के विकास से जुड़ी योजनाओं की जानकारी दी.

उन्होंने हमें बताया कि जसीपुर में बाक़ायदा एक स्कूल बनाया गया है जहां इन आदिवासियों के बच्चों की शिक्षा के इंतज़ाम के साथ-साथ उनके खाने पीने और रहने की बेहतरीन व्यवस्था मौजूद है.

मनकिरिड़िया जनजाति से जुड़े आंकडों और एजेंसी के कई दावों के साथ हमने हज़ारी मगेंराज से विदा ली. अब बारी थी इन दावों और आंकड़ों की पड़ताल की. सबसे पहले हम मनकिरिड़िया आदिवासी बच्चों के लिये बनाये गये स्कूल की तरफ़ निकले क्योंकि यह स्कूल विकास एजेंसी के दफ़्तर से बहुत दूर नहीं है.

स्कूल की इमारत पहली ही नज़र में आपको प्रभावित करती है. दो मंज़िला शानदार इमारत है. स्कूल के प्रांगण में नए पेड़ लगाए गए हैं. लेकिन अंदर की तस्वीर आपका दिल तोड़ देती है. एक कमरे को छोड़कर सभी कमरे खाली पड़े हैं.

इतनी शानदार इमारत है लेकिन बच्चे इतने कम कि एक ही कमरे में सभी क्लासों की पढ़ाई हो रही थी. इस स्कूल में एक भी अध्यापक स्थाई नहीं है. जब अध्यापकों से बच्चों के बारे में पूछते हैं तो अध्यापक अपना ही रोना रोने लगते हैं. क्योंकि उनके अपने मसले हैं.

यहां पर लड़कियों के लिए अलग से स्कूल है. इसमें कुल 370 छात्राओं के नाम दर्ज हैं. लकिन यंहा भी गिनी-चुनी छात्राएं हैं.

स्कूल की लड़कियों के लिये खाना बनाने के लिये बड़ी रसोई और खाना खिलाने के लिये एक बड़ा सा हॉल है. खाने में क्या-क्या और कब-कब दिया जाना है उसका चार्ट बाक़ायदा दीवार पर मौजूद है. सभी बच्चों को समय पर गरमागरम खाना मिल सके इसके लिये मशीनें लगाई गयी हैं.

मसलन, चावल और सब्ज़ियां धोने के लिए बड़ी मशीन लगी है. लेकिन इन मशीनों पर जमी धूल बताती है कि शायद ही कभी इन मशीनों का इस्तेमाल हुआ है. इसकी एक वजह हमें ये नज़र आयी कि स्कूल में कभी इतने आदिवासी बच्चे आए ही नहीं कि इन मशीनों को इस्तेमाल किया जा सकता, या फिर इन मशीनों के इस्तेमाल की ज़रूरत पड़ती.

चार्ट के हिसाब से उस दिन बच्चों को चावल, दाल और मछली मिलनी चाहिए. लेकिन दिन के दो बज चुके थे, अभी सिर्फ़ चावल उबाला गया था. दाल का नामोनिशान नहीं था. बच्चों को चावल के साथ नमक परोसा गया.

इस स्कूल में 370 छात्राओं की संख्या पर जसीपुर में काम करने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता दीपक मरांडी कहते हैं कि हिल खड़िया और मांकड़िया आदिम जनजाति की जो जनसंख्या है उस हिसाब से तो यह संभव ही नहीं है.

वो सवाल उठाते हुए कहते हैं कि अगर 370 लड़कियां स्कूल जा रही हैं तो उस हिसाब से तो मांकड़िया आबादी कम-से-कम 4000 या उससे ज़्यादा होनी चाहिए. लेकिन इनकी आबादी तो सरकारी आंकड़ों के हिसाब से भी 2000 से ज़्यादा नहीं है.

दुरदुरा की सरकारी बस्ती और आदिवासियों का हालचाल

अगले दिन हम मनकिरिड़िया आदिवासियों की बस्ती दुरदुरा की तरफ़ चल पड़े. यह बस्ती जसीपुर से कोई 15 किलोमीटर दूर है.दुरदुरा में मनकिरिड़िया बस्ती बिलकुल जंगल के किनारे पर है. मनकिरिड़िया बस्ती में जब हम पहुंचे तो ज़्यादातर लोग घरों के बाहर ही बैठे या टहलते मिले.

इसकी वजह शायद ये है कि इन आदिवासियों को एसबेस्टोस की चादरों वाले घर दिये गये हैं. इन घरों में गर्मी के मौसम में तो कम-से-कम नहीं रहा जा सकता.

मांकड़िया औरतें

मनकिरिड़िया आदिवासी गुज़र-बसर के लिये रस्सी बनाने का काम करते हैं.इन आदिवासियों को प्रशासन की तरफ़ से कभी सियाल लता से बैग जैसी चीज़ें बनाने की ट्रेनिंग दी गयी थी. लेकिन इन बैगों की मांग शायद बाज़ार में है नहीं. इसलिए इन बैगों को बनाने में या और ट्रैनिंग लेने में उनमें कोई उत्साह नज़र नहीं आता है.

दरअसल झारखंड, पश्चिम बंगाल और कई दूसरे राज्यों में जिन आदिवासियों को बिरहोर कहा जाता है, उन्हें ही ओडिशा में मनकिरिड़िया बुलाते हैं. इन आदिवासियों को यहां मनकिरिड़िया शायद इसलिये बुलाया जाता है क्योंकि ये बंदर का मांस खाते हैं.

वैसे एंथ्रोपोलोजिस्ट कहते हैं कि बिरहोर शब्द एस्ट्रो-एशियाटिक भाषा समूह का शब्द है जिसमें बिर का मतलब है जंगल, और होर का मतलब है आदमी. यानि जंगल का आदमी. और अपने नाम के हिसाब से ये आदिवासी जंगल में ही रहते, और मौसम और ज़रूरत के हिसाब से जंगल में अपने रहने की जगह बदलते जाते.

यानि कि ये जनजाति एक घुमंतु जनजाति (Nomadic Tribe) है.लेकिन आमतौर पर ये अपना डेरा जंगलों में उन जगहों पर डालते जहां से खेती किसानी करने वाले लोग बहुत दूर ना हों. इसकी वजह थी कि वो अपनी बनाई रस्सी और दूसरी वनोपज इन लोगों को बेच सकें.

रस्सी बनाना मांकड़िया आदिवासियों का परंपरागत काम है

PVTG की श्रेणी में रखा गया है

सरकार ने बिरहोर या मनकिरिड़िया को PVTG की श्रेणी में रखा है. इसका मतलब ये है कि मनकिरिड़िया जनजाति के प्रति सरकार और समाज को बेहद संवेदनशील होने की ज़रूरत है, नहीं तो इनका वजूद ख़तरे में पड़ सकता है.

लेकिन ऐसा लगता है कि योजना बनाने वालों को इन आदिवासियों की जीवनशैली और समाज को समझने पर कुछ और समय लगाना चाहिए. मोटेतौर पर सरकारी योजनाओं की नाकामयाबी की जो वजह समझ में आती हैं, उनमें:

1.नीति बनाने वालों में आदिवासी संस्कृति और जीवनशैली को समझने का अभाव,

2. आदिवासियों की जीविका और संभावित वैकल्पिक जीविका के साधनों पर सही समझ की कमी,

3. जीविका से जुड़े कार्यक्रमों का टिकाऊ ना होना,

4. आदिवासी उत्पादों को सही बाज़ार ना मिलना, और

5. आदिवासियों को योजनाओं और कार्यक्रमों की सही जानकारी ना देना.

मनकिरिड़िया आदिम जनजाति के लिये रोज़ी-रोटी के टिकाऊ वैकल्पिक साधन पैदा करना इनके लिये बनाई गई विकास एजेंसी की सबसे अहम ज़िम्मेदारी है. अगर प्रशासन इन आदिवासियों को मुख्यधारा में जोड़ना चाहता है तो उसकी यह ज़रूरी शर्त है.

बल्कि ये कहा जा सकता है कि अगर उनके लिये रोज़गार के साधन पैदा नहीं किये जाते हैं तो उनकी पहचान तो छोड़िये, उनके वजूद को भी बचाना मुश्किल हो सकता है. खेती शायद जीविका का एक स्थाई साधन इन आदिवासियों के लिये बन सकता है, लेकिन मनकिरिड़िया आदिवासियों को खेती के लिए ज़मीन नहीं मिली है.

मांकड़िया आदिवासियों के लिए टिकाऊ रोज़गार की ज़रूरत है

सरकार ने जंगलों में खाने की तलाश में घूमते रहने वाली इस आदिम जनजाति को जंगलों से बाहर लाकर बसा दिया है. लेकिन आज भी खुद को ज़िंदा रखने की जद्दोजहद में मनकिरिड़िया आदिवासी जंगल के ही भरोसे हैं.एक पूरा दिन इनकी बस्ती में काटने के बाद हमने उनसे विदा ली, इस इरादे के साथ कि अगले दिन हम भी इनके साथ जंगल जायेंगे. इनकी ज़िंदगी की इस जद्दोजहद को समझने के लिये.

सिमलीपाल के जंगल में टाइगर या आदिवासी

अगले दिन सुबह सात बजे हम एकबार फिर दुरदुरा पहुंचे. जंगल निकलने से पहले ये लोग कुल्हाड़ी को तेज़ करते हैं. हम लोगों के बस्ती पहुंचने के तुरंत बाद हम जंगल की तरफ़ निकल पड़े. थोड़ी देर इनके बीच इस बात पर चर्चा होती है कि जंगल में किस दिशा में जाना है.

फिर हम जंगल की एक पगडंडी पकड़ लेते हैं. जंगल में खड़ी चढ़ाई थी, हमारी टीम की सांस फूल रही थी, लेकिन ये आदिवासी बड़ी सहजता से बोलते-बतियाते आगे बढ़ रहे थे. क़रीब घंटे भर जंगल में जाने के बाद इन्हें वो सियाल लता मिल जाती है, जिससे इनकी रोज़ी-रोटी चलती है.

देखते-देखते ये आदिवासी पेड़ों पर चढ़ जाते हैं, और इन बेलों को काटने लगते हैं, उसके बाद इस लता की छाल उतारी जाती है. काम ख़त्म होने पर थोड़ा सुस्ताते हुए इन लोगों से कुछ और बात होती है. इस बातचीतसे पता चलता है कि सिमलीपाल जंगल के टाइगर रिज़र्व फ़ॉरेस्ट होने से इनके जीवनशैली पर गहरा असर पड़ा है.

फ़ॉरेस्ट गार्ड को ये लोग टाइगर पुलिस कहते हैं. जब मैंने उनसे पूछा कि क्या वो अब भी जंगल से बंदर या दूसरे छोटे-मोटे जानवर पकड़ते हैं, तो उनमें से एक आदिवासी ने हंसते हुए अपनी कलाइयां जोड़कर हथकड़ी लगने का इशारा किया.

यानि अब इन आदिवासियों को इस जंगल में शिकार की अनुमति बिलकुल नहीं है. क्योंकि यह एक टाइगर रिज़र्व जंगल है, इस जंगल में अब टाइगर को शिकार की अनुमति है, आदिवासियों को नहीं.

जंगल से सियाल लता बटोरते मांकड़िया लड़के

जंगल में इन आदिवासियों के साथ कुछ घंटे बिताकर हम वापस लौटते हैं. सुस्ताने के बाद पहाड़ पर चढ़ने से उतरना ज़्यादा मुश्किल लग रहा था. लौटते समय इन आदिवासियों ने दूसरा रास्ता लिया. लौटते वक़्त ये लोग दिन के खाने का जुगाड़ भी जंगल से ही करते चल रहे थे.

कुछ लोग साग जुटा रहे थे, तो कुछ लोग जंगली खुंभी (Mushroom) जमा कर रहे थे.मनकिरिड़िया आदिवासियों के साथ उनकी बस्ती और जंगल में बिताये समय के बाद हमें अहसास हुआ कि ये आदिवासी लंबे समय से खेती करने वाले समाज के संपर्क में हैं.

इसलिए जीविका के तौर पर खेती एक विकल्प इनके लिए हो सकता है. इसके साथ ही इन आदिवासियों के लिए बनाये जा रहे कार्यक्रम इनकी जीवनशैली को ध्यान में रखकर बनाये जाएं. सरकार कहती है कि इन आदिवासियों को एक जगह पर बसाया गया है, ताकि इनको एक सम्मानजनक ज़िंदगी दी जा सके.

इसके साथ ही इस आदिम जनजाति को धीरे-धीरे आधुनिक दुनिया में शामिल किया जा सके. लेकिन लगता है कि सरकार ने जो मंशा बताई और जो असली मंशा थी वो अलग-अलग हैं. इस आदिम जनजाति को जंगल से बाहर निकाला गया, क्योंकि टाइगर के लिए जंगल में शिकार बचाना था.

सिमलीपाल के जंगल में कई तरह की मशरूम मिलती है

इस आदिम जनजाति के बारे में एक जो सबसे अफ़सोसजनक तथ्य है, वो येकि 2006 में बने ऐतिहासिक वनाधिकार क़ानून में दिए अधिकार भी इन्हें हासिल नहीं हो रहे हैं. इस क़ानून का सेक्शन 2(h) रिज़र्व फ़ॉरेस्ट में आदिम जनजातियों के पारंपरिक परिवेश (Customary Habitat) को परिभाषित करता है.

लेकिन मयूरभंज के सिमलीपाल टाइगर रिज़र्व (Simlipal Tiger Reserve) में इन आदिवासियों का प्रवेश रोक दिया गया है, यह कहते हुए कि जंगली जानवर, ख़ासतौर से टाइगर, इन आदिवासियों पर हमला कर सकते हैं. अब यह बात अपने आप में हास्यास्पद लगती है.

सदियों से जो आदिवासी इन जंगलों में शिकार और वनोत्पाद के सहारे जीते रहे, उन्हें जंगली जानवरों का डर दिखाया जा रहा है.

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