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आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में बस्तर के विस्थापित आदिवासियों को वोट का अधिकार खोने का डर

20 साल पहले हिंसा से भागे लोगों के लिए कोई आधिकारिक सर्वे, वेरिफिकेशन या पुनर्वास प्रक्रिया कभी पूरी नहीं हुई है.

छत्तीसगढ़ के माओवादी प्रभावित जिलों से आए हजारों आंतरिक रूप से विस्थापित लोग (IDPs)  जो दो दशकों से तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में रह रहे हैं… वो चुनावी सूची के चल रहे स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) के दौरान अपने वोट देने के अधिकार खोने के ख़तरे का सामना कर रहे हैं.

भारत के चुनाव आयोग (ECI) को दी गई एक औपचारिक शिकायत में चेतावनी दी गई है कि इन मतदाताओं के बड़े पैमाने पर नाम हटाने से “संवैधानिक सुरक्षा का गंभीर उल्लंघन” होगा.

हजारों प्रवासी आदिवासी परिवारों के लिए जीवित रहने का मतलब था तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के जंगलों में जाना.

आज, जब वे बिना ज़मीन के मालिकाना हक, राशन कार्ड या औपचारिक पहचान के अस्थायी बस्तियों में रह रहे हैं तो एक नया संकट सामने आ रहा है: उनके वोट देने के अधिकार का हमेशा के लिए छिन जाना.

छत्तीसगढ़ में चल रहे इलेक्टोरल रोल के स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) के दौरान, बूथ लेवल अधिकारियों (BLO) ने “गैर-निवासी” होने के आधार पर अंदरूनी तौर पर विस्थापित लोगों (IDP) के नाम हटाना शुरू कर दिया है.

समुदाय के नेताओं का कहना है कि यह बिना किसी नोटिस, बिना वेरिफिकेशन के और रिप्रेजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट, 1950 की धारा 22 और 23 का उल्लंघन करते हुए हो रहा है.

आंध्र प्रदेश के भद्राचलम के एक समुदाय प्रतिनिधि ने कहा, “जो चीज़ जीने के लिए अस्थायी पलायन के तौर पर शुरू हुई थी, वह अब स्थायी बहिष्कार बन गई है,” जहां ऐसे कई परिवार अनौपचारिक झुंडों में रहते हैं.

इलेक्शन कमीशन ऑफ़ इंडिया और छत्तीसगढ़ के चीफ़ इलेक्टोरल ऑफिसर को लिखे एक लेटर में विस्थापित आदिवासी परिवारों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठन वलसा आदिवासी समाख्या के अध्यक्ष करतम कोसा ने कहा कि छत्तीसगढ़ में बूथ लेवल ऑफिसर (BLO) “गैर-निवासी” होने के आधार पर संघर्ष के कारण विस्थापित नागरिकों के नाम हटा रहे हैं.

जबकि 20 साल पहले हिंसा से भागे लोगों के लिए कोई आधिकारिक सर्वे, वेरिफिकेशन या पुनर्वास प्रक्रिया कभी पूरी नहीं हुई है.

“ये लोग सलवा जुडूम आंदोलन से पहले और उसके दौरान माओवादी हिंसा के कारण अपनी जान बचाने के लिए भागे थे. अब उनके नाम हटाए जा रहे हैं.”

विस्थापन के कोई डॉक्यूमेंटेशन, मौजूदा निवास का कोई सबूत, और कोई औपचारिक पुनर्वास योजना न होने के कारण, उन्हें अपने गृह राज्य और जिस राज्य में वे रह रहे हैं, दोनों जगह वोटर लिस्ट से नाम हटाए जाने का ख़तरा है.

यह पहले के संकटों जैसा ही है, जिसमें ब्रू शरणार्थी, कश्मीरी प्रवासी और पिछले साल मणिपुर संघर्ष के दौरान विस्थापित हुए लोग शामिल थे, जिनके वोटिंग अधिकार विशेष व्यवस्था बनने के बाद ही सुरक्षित किए गए थे.

डर, पलायन और भूली-बिसरी जिंदगियों की 40 साल की कहानी

शांति प्रक्रिया के जाने-माने एक्टिविस्ट शुभ्रांशु चौधरी ने टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए कहा कि यह विस्थापन 1980 के दशक का है, जब माओवादी पहली बार बस्तर के दूरदराज के गांवों में घुसे और संगम बनाना शुरू किया, जिससे वड्डे नाम से जाने जाने वाले पारंपरिक गांव के नेताओं को चुनौती मिली.

चौधरी ने कहा, “उस समय कई बुजुर्ग पड़ोसी आंध्र प्रदेश भाग गए और जंगल के इलाकों में छोटी-छोटी बस्तियां बना लीं. बाद में जब माओवादी दलम बने और फिर सलवा जुडूम शुरू हुआ, तो बाकी परिवार भाग गए. आज के 90 प्रतिशत विस्थापित 2005 के बाद के हैं.”

जबकि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश उन्हें मानवीय आधार पर रहने की इजाज़त देते हैं. अस्थायी सोलर पैनल या पानी की सप्लाई देते हैं, इन बस्तियों को गाँव के तौर पर मान्यता नहीं मिली है, उन्हें ग्राम सभा की मंज़ूरी नहीं मिल सकती और उन्हें सड़कें, मोबाइल टावर या स्थायी सुविधाएँ नहीं मिल सकतीं. कोई भी राज्य ज़मीन का मालिकाना हक देने को तैयार नहीं है.

चौधरी ने कहा, “ECI ने दूसरी विस्थापित समुदायों के लिए खास कदम उठाए हैं, तो यहाँ क्यों नहीं? ये लोग हिंसा की वजह से भागे हैं. वे अपनी मर्ज़ी से प्रवासी नहीं हैं.”

चौधरी, जो 2019 से इस मुद्दे को फॉलो कर रहे हैं, कहते हैं कि राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) इस मामले की सुनवाई कर रहा है, लेकिन प्रोग्रेस रुकी हुई है.

तेलंगाना ने NCST को बताया कि बस्तर से 24 हज़ार विस्थापित लोग राज्य में रहते हैं, आंध्र प्रदेश ने यह आँकड़ा 8 हज़ार बताया.

जबकि वलसा आदिवासी समाख्या का दावा है कि असली संख्या 48,300 से ज़्यादा है.

छत्तीसगढ़ सरकार ने दावा किया कि एक सर्वे के अनुसार 14,159 से ज़्यादा IDP थे और NCST को बताया कि वह “एक प्लान के साथ वापस आएगी” लेकिन कभी नहीं आई.

चुनाव आयोग ने अभी तक इस मामले में कोई जवाब नहीं दिया है.

एसआईआर के दौरान बस्तर में खाली गांवों का दौरा करने वाले BLOs ने निवासियों को “लापता” के रूप में दर्ज किया है और उनके नाम वोटर लिस्ट से हटा दिए हैं.

विस्थापित परिवारों का डर

विस्थापित परिवारों को डर है कि वे तेलंगाना/आंध्र प्रदेश में निवास साबित नहीं कर पाएंगे. वहीं उनके पास छत्तीसगढ़ में राशन कार्ड या निवास प्रमाण पत्र नहीं हैं.

वे दोनों राज्यों में बिना वोटिंग अधिकार वाले नागरिक बन सकते हैं, जो दोनों राज्यों में अदृश्य होंगे.

ECI को लिखे पत्र में ये मांगें की गई हैं…

छत्तीसगढ़, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के CEOs द्वारा एक संयुक्त सर्वे.

विस्थापित लोगों को तब तक अपने गृह निर्वाचन क्षेत्रों में रजिस्ट्रेशन बनाए रखने की अनुमति देना जब तक पुनर्वास औपचारिक रूप से पूरा नहीं हो जाता.

मेजबान राज्यों में फिर से रजिस्ट्रेशन के लिए स्व-घोषणाओं, NGO प्रमाणपत्रों और BLO सत्यापन को स्वीकार करना.

ब्रू और कश्मीरी प्रवासियों के समान एक अस्थायी वैकल्पिक पहचान प्रोटोकॉल.

पहचाने गए विस्थापित लोगों के लिए सभी वोटर लिस्ट से नाम हटाने पर रोक.

(Representative image)

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