HomeIdentity & Lifeबेमौसम बारिश और गर्मी ने केरल के आदिवासियों के लिए मुश्किलें बढ़ाई

बेमौसम बारिश और गर्मी ने केरल के आदिवासियों के लिए मुश्किलें बढ़ाई

केरल के वायनाड ज़िले के (Tribes of Wayanad) आदिवासी समुदाय जैसे चोलानायकन (Cholanayakan Tribes) और कट्टुनायकन (Kattunayakan tribes) अपने जीवन यापन के लिए शहद इकट्ठा (Honey collection) करने पर ही निर्भर है. लेकिन बैमौसम बारिश और गर्मी ने शहद उत्पादन पर प्रभावित किया है.

केरल के वायनाड ज़िले में चोलानायकन और कट्टुनायकन या जेनु कुरुम्बर आदिवासी सादियों से शहद इकट्ठा करने का काम कर रहे हैं.

लेकिन गर्मी से सूखा पड़ने और देर से हुई बारिश ने वायनाड में कृषि क्षेत्र को नुकसान पहुंचाया है.

मौसम में ऐसे बदलाव के कारण मुधमक्खियों की संख्या में काफी कमी हुई है.

यह भी पता चला है कि यहां होने वाली बेमौसम बारिश शहद उत्पादन में कठनाई पैदा कर रही है. क्योंकि यह बारिश जंगल में पेड़ों के फूल के खिलने की अवस्था को प्रभावित कर रही है. जिसकी वज़ह से इन जंगलों में मुधमुक्खियों की संख्या भी कम हो गई है.

पिछले साल यहां रहने वाले आदिवासियों ने 500 किलो शहद जमा किया था. लेकिन बेमौसम बारिश और गर्मी की वज़ह से होने वाले प्रभाव के कारण आदिवासी 300 किलो ही शहद इकट्ठा कर पाए हैं.

वायनाड में रहने वाले आदिवासी अप्रैल से सितंबर के महीने में शहद इकट्ठा करने का काम करते हैं. आदिवासी शहद इकट्ठा करने के लिए अपनी पांरपरिक तकनीक का इस्तेमाल करते हैं. यह तकनीक आदिवासियों को अपने पुरखों से मिली है.

यह आदिवासी अपने शहद को अनुसूचित जनजाति विकास विभाग (Tribal Development Department) को बेचते हैं. इन्हें एक किलो शहद के लिए 400 रूपये दिए जाते हैं.

बेमौसम बारिश से पहले शहद बिक्री में कोविड-19 के समय गिरावट आई थी.

शहद इकट्ठा करने की अनोखी तकनीक

शहद इकट्ठा करने के लिए आदिवासी घने जंगलों में जाते है और एक हफ्ता वहीं बीताते हैं. वे जंगली जानवरों के हमलों से बचते हुए लंबे पेड़ों पर चढ़ाई करते हैं. इन पेड़ों की ऊँचाई 80 फीट तक होती है

ये आदिवासी चांद की रोशनी में मधुमक्खियों के छत्ते से शहद इकट्ठा करते हैं. इसके अलावा यह अपने पांरपरिक उपकरण जैसे सूखे नारियल के पत्तों से बना धुआँ उड़ाने का यंत्र और रस्सियाँ का इस्तेमाल करते हैं.

इसके साथ ही बांस का इस्तेमाल पेड़ से दूसरे पेड़ तक जाने के लिए किया जाता है. शहद इकट्ठा करते समय आदिवासी टॉर्च या किसी भी रोशनी देने वाले उपकरण का इस्तेमाल नहीं करते.

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