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आदिवासी की ज़मीन से देश का विकास, लेकिन वही क्यों ख़ाली हाथ है

राजस्व रिकॉर्ड में ज़मीन के मालिक अभी भी साहूकार और ज़मींदार ही हैं. अभी तक आदिवासी इस बात से ही संतुष्ट थे कि कम से कम खेती के लिए कुछ ज़मीन उसके क़ब्ज़े में है. लेकिन अब विकास की बड़ी बड़ी परियोजनाओं ने आदिवासियों की नींद उड़ा दी है. विनोद निकोले कहते हैं कि बड़ी विकास परियोजनाओं से आदिवासियों को कोई लाभ नहीं मिलता है. मसलन इस ज़िले में तीन बड़े बांध हैं. इन बाँधो से मुंबई की प्यास बुझाई जाती है. लेकिन यहाँ के आदिवासी गाँवों में पीने के पानी को लोग तरसते हैं.

महाराष्ट्र की डाहणू विधानसभा क्षेत्र से चुने गए विधायक विनोद निकोले को राज्य के सबसे ग़रीब विधायक के तौर पर भी जाना जाता है. वामपंथी दल सीपीएम के इस विधायक ने चुनाव आयोग दिए शपथ पत्र में चुनाव आयोग को जानकारी दी कि उनके पास कोई चल या अचल संपत्ति नहीं है.

यहाँ तक कि उनके पास अपना घर भी नहीं है. उन्होंने जब चुनाव का पर्चा भरा तो उस समय उनके पास मात्र 51000 रूपये थे. विनोद निकोले से हमारी मुलाक़ात वाकी नाम के गाँव में हुई.

उनसे लंबी बातचीत में पालघर, डहाणू और यहाँ के आदिवासियों के कई मसलों के बारे में पता चला. उन्होंने बताया कि सन 1945 से इस इलाक़े में आदिवासी ज़मीन के मालिकाना हक़ के लिए लड़ रहे हैं.

निकोले ने बताया कि यह एक आदिवासी बहुल इलाक़ा है. यहाँ की ज़मीनों पर बड़े ज़मींदारों और साहूकारों का क़ब्ज़ा था. जब आदिवासियों ने अपनी ज़मीन के लिए लड़ना शुरू किया तो ये साहूकार और ज़मींदार यहाँ से पलायन कर गए.

लेकिन राजस्व रिकॉर्ड में ज़मीन के मालिक अभी भी साहूकार और ज़मींदार ही हैं. अभी तक आदिवासी इस बात से ही संतुष्ट थे कि कम से कम खेती के लिए कुछ ज़मीन उसके क़ब्ज़े में है. लेकिन अब विकास की बड़ी बड़ी परियोजनाओं ने आदिवासियों की नींद उड़ा दी है.

वो कहते हैं कि चाहे बड़ी सड़कें हो या फिर रेल लाइन यहाँ तक कि बुलेट ट्रेन, सभी के लिए पालघर के आदिवासियों की ज़मीन अधिग्रहित की जा रही है. अब मसला ये है कि अधिग्रहण के बाद जो मुआवज़ा मिलेगा वो साहूकारों और ज़मींदारों को मिलेगा.

क्योंकि काग़ज़ उन्हीं के नाम पर बनाए गए हैं. आदिवासी फिर एक बार ठगा जा रहा है. ऐसी सूरत में आदिवासी के पास लड़ने के अलावा कोई चारा नहीं है.

विनोद निकोले कहते हैं कि बड़ी विकास परियोजनाओं से आदिवासियों को कोई लाभ नहीं मिलता है. मसलन इस ज़िले में तीन बड़े बांध हैं. इन बाँधो से मुंबई की प्यास बुझाई जाती है. लेकिन यहाँ के आदिवासी गाँवों में पीने के पानी को लोग तरसते हैं.

यहाँ के आदिवासी के खेत को पानी नहीं मिलता है. खेती सिर्फ़ बारिश के भरोसे होती है. वो कहते हैं कि अगर खेतों को पानी मिल जाए तो धान के अलावा यहाँ पर किसान सब्ज़ियाँ भी उगा सकता है.

लेकिन सरकार की प्राथमिकता में शहर है आदिवासी नहीं है. वो कहते हैं कि शहर का साइज़ लगातार बढ़ता जाता है, आदिवासी के पानी को लूट कर शहरों को दिया जाता है.

इस इंटरव्यू में और कई मसलों पर बातचीत हुई है. आप पूरा इंटरव्यू उपर देख सकते हैं.

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