HomeLaw & Rightsकार्पोरेट लूट के खिलाफ संगठनों की राष्ट्रपति से गुहार

कार्पोरेट लूट के खिलाफ संगठनों की राष्ट्रपति से गुहार

इन संगठनों ने सरकार पर हमला बोला है कि सरकार विकास के नाम पर खेती लायक ज़मीन को बिना इजाज़त के पूंजीपतियों को बेच रही है. और सरकार के इस फैसले के कारण बीच में पिसता है गरीब किसान...

बीते दिनों 29 और 30 जुलाई को भूमि अधिकार आंदोलन के राष्ट्रीय बैठक में निर्णय लिया गया था कि 13 अगस्त 2025 को भूमि कब्जा और कॉर्पोरेट लूट के खिलाफ राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाया जाएगा.

किसानों का कहना है कि यह सिर्फ ज़मीन की लड़ाई नहीं है, बल्कि यह हमारे रोज़गार, लोकतंत्र और गरिमा की रक्षा का संघर्ष है.

पिछले एक दशक में विकास के नाम पर चलाई जा रही नीतियों और परियोजनाओं ने किसानों, आदिवासियों, दलितों, पशुपालकों, मछुआरों और अन्य मेहनतकश वर्गों को उनकी भूमि, जंगल और जल स्रोतों से और अधिक दूर कर दिया है.

भूमि अधिकार आंदोलन के आह्वान पर आज देश भर के किसान संगठनों,जन आंदोलन एवं मानवाधिकार समूहों ने राष्ट्रपति को पत्र भेजकर मांग किया है कि प्राकृतिक संसाधनों को निजी कंपनियों को बेचना और सौंपना तुरंत रोका जाए.

पत्र में लिखा गया है कि पानी, भूजल, जंगल, ज़मीन और खनिज जैसे प्राकृतिक संसाधन सभी लोगों के हैं. मांग की गई है कि इन संसाधनों को निजी कंपनियों को न बेचा जाए.

साथ ही, पिछले 11 सालों में सरकार द्वारा कॉर्पोरेट कंपनियों और स्वार्थी लोगों को जो भी ज़मीन और जंगल दिए गए हैं, उनकी पूरी तरह से जांच की मांग भी की गई है.

पत्र में लिखा है कि इसमें पर्यावरण पर असर और समाज पर असर की भी गहराई से जांच और उसपर और जानकारी जनता के सामने आना चाहिए.

इंडस्ट्रियल कॉरिडोर, खान क्षेत्रों (माइनिंग ज़ोन) और बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स जैसे भारतमाला, सागरमाला, स्मार्ट सिटी, स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन (एसईजेड) और बिज़नेस कॉरिडोर के नाम पर जो भूमि अधिग्रहण हो रहा है, इस पर भी लोगों ने असहमति जताई है.  उनके खिलाफ जाकर ये अधिग्रहण किया जा रहा है.  

यह सब 2013 के भूमि अधिग्रहण क़ानून का उल्लंघन है.

दूसरा भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार कानून 2013, वन अधिकार कानून 2006 और पेसा कानून 1996 जैसे जनता के अधिकारों से जुड़े कानूनों को पूरी तरह से लागू किया जाए और इन्हें कमज़ोर या बदला नहीं जाना चाहिए.

इन कानूनों को हाईवे, रेलवे, खनन, औद्योगिक शहरों, व्यापार कॉरिडोर या किसी भी विकास परियोजना के नाम पर नज़र अंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए.

ऐसे इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स, जिन्हें विकास के नाम पर थोपा जा रहा है, जबकि उनका लाभ केवल पूंजीपतियों और बड़े उद्योगपतियों को होता है न कि आम लोगों को.

ये योजनाएं जन केंद्रित भी नहीं होती और न ही समावेशी होती है. कॉर्पोरेट लैंड बैंक और लैंड पूलिंग को खारिज करें, उपजाऊ खेत की ज़मीन को बचाएं.

लैंड बैंक और कॉर्पोरेट लैंड पूलिंग योजनाएं ज़मीन हथियाने के छिपे हुए तरीके हैं, जिन्हें तुरंत बंद किया जाना चाहिए.

बिना किसानों की जानकारी, उनकी सहमति और ग्राम सभा की मंजूरी के ज़मीन का ट्रांसफर करना संविधान और किसानों के अधिकारों का उल्लंघन है.

उपजाऊ कृषि भूमि को मॉल, एसईजेड, रियल एस्टेट जैसी गैर-कृषि गतिविधियों में बदलने पर पाबंदी लगनी चाहिए ताकि खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण, पारिस्थितिकी और ग्रामीण आजीविका को बचाया जा सके.

सह-अस्तित्व के सिद्धांत को बनाए रखने और संरक्षण उपायों के नाम पर वनवासियों को विस्थापित न करें, बल्कि पारिस्थितिक न्याय और सतत आजीविका को बढ़ावा दिया जाए. भूमि सुधार कानूनों का पूर्ण कार्यान्वयन एवं आजीविका अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित हो.

सीलिंग सरप्लस, चारागाह भूमि, बेनामी भूमि, भूदान भूमि और बटाईदारी कानून सहित सभी भूमि सुधार प्रावधानों को लागू करें और भूमि को भूमिहीनों में पुनर्वितरित करें.

राज्य-समर्थित सहकारी एवं सामूहिक खेती मॉडल को बढ़ावा दें ताकि लोकतांत्रिक व सतत तरीक़े से कृषि का आधुनिकीकरण हो सके और कॉर्पोरेट कब्ज़ा रोका जा सके.

सबसे अमीर 1% पर 2% वार्षिक संपत्ति कर और 33% उत्तराधिकार कर लागू करें, ताकि भोजन, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और पेंशन जैसे सार्वभौमिक अधिकारों के लिए धन उपलब्ध हो सके.

पिछले 11 वर्षों से किसानो की लिए एमएसपीसी 2+50% और कर्ज माफी से इनकार किया गया है. किसानों की आय दोगुनी करने की बजाय, लागत और संकट दोगुना हो गया है.

भारत का लगभग 48% कार्यबल कृषि पर निर्भर है और लगभग 60% परिवार ग्रामीण भारत में रहते हैं.

नव-उदारवादी नीतियों के तहत किसान समुदाय की दुर्दशा सरकारी आंकड़ों से स्पष्ट है.

ग्रामीण भारत में 2200 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन की खपत को गरीबी की पहचान मानते हुए, 1993-94 में 58% लोग इस स्तर से नीचे था.

यह वह समय था जब 1991 में नवउदारवाद की शुरुआत हुई थी. 2011-12 में यह आंकड़ा बढ़कर 68% हो गया.

2017-18 तक हालत इतनी खराब हो गई कि सरकार ने उस वर्ष का उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण सार्वजनिक करने से ही मना कर दिया और आंकड़ों को बदल डाला.

फिर भी जो थोड़ी जानकारी सामने आई, उससे यह स्पष्ट हुआ कि 80.5% ग्रामीण लोग इस न्यूनतम कैलोरी स्तर से नीचे थे.

सरकार का दावा कि वह किसानों, मछुआरों और पशुपालकों के हितों से कभी समझौता नहीं करेगी.

लेकिन पिछले 11 वर्षों की नीतियां पूरी तरह से कृषि वर्ग को गरीब और असहाय बनाने वाली रही है.

कृषि भूमि, जंगल, खनिज और जल जैसे सभी संसाधनों को देशी-विदेशी कॉरपोरेट कंपनियों के हवाले किया जा रहा है.

भारत एक कृषि प्रधान देश है. इसलिए मौजूदा निर्यात-आधारित विकास मॉडल के बजाय राज्य के नेतृत्व में कृषि आधारित विकास की दिशा अपनाई जानी चाहिए.

किसानों को लाभकारी मूल्य और मजदूरों को न्यूनतम जीवन निर्वाह मजदूरी देकर देश की 140 करोड़ जनता की क्रय शक्ति को बढ़ाना ही वह वैकल्पिक रास्ता है. इससे घरेलू  औद्योगिक उपभोक्ता उत्पादों को प्रभावी ढंग से अवशोषित कर सकता है और भारत वैश्विक बाज़ार में मुकाबला कर सकता है तथा आगे बढ़ सकता है.

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