HomeAdivasi Dailyआदिवासी धर्म बदले,तो क्या ST रहेंगे?

आदिवासी धर्म बदले,तो क्या ST रहेंगे?

1970 के दशक में उन्होंने डीलिस्टिंग बिल पेश किया, जिसे उस समय 348 सांसदों का समर्थन मिला और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र भी लिखे गए, पर राजनीतिक दबाव के चलते नीति नहीं बनी. अब डॉ. रावत उसी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं और यह मांग फिर से संसद में उठी है.

राजस्थान के उदयपुर से भाजपा सांसद डॉ. मनालाल रावत ने लोकसभा में एक संवेदनशील और अहम मुद्दा उठाया.

उन्होंने कहा कि जो आदिवासी लोग अब अपना धर्म बदल चुके हैं, उन्हें अनुसूचित जनजाति (ST) की सूची से हटाया जाना चाहिए.

उनका कहना है कि इन लोगों को अब भी आदिवासियों के लिए मिलने वाली सुविधाएं मिल रही हैं, जबकि असली जरूरतमंद आदिवासी इससे वंचित हो रहे हैं.

सांसद ने कहा कि एसटी समुदाय के लोगों को शिक्षा, नौकरियों और सरकारी योजनाओं में आरक्षण जैसी सुविधाएं मिलती हैं.

लेकिन जिन लोगों ने ईसाई या इस्लाम धर्म अपना लिया है, वे अब आदिवासी संस्कृति से अलग हो गए हैं.

बावजूद इसके वे सभी लाभ उठा रहे हैं, जिससे सही मायनों में वंचित और पारंपरिक आदिवासी समुदायों को नुकसान हो रहा है.

डॉ. रावत ने लोकसभा में यह भी कहा कि संविधान का अनुच्छेद 342 एसटी की परिभाषा देता है, लेकिन उसमें धर्मांतरण करने वालों को लेकर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है.

इसके उलट अनुसूचित जाति (SC) के लोगों को अगर वे धर्म बदलते हैं तो उनके आरक्षण और लाभ खत्म हो जाते हैं.

लेकिन एसटी में ऐसा नहीं होता, जिससे एक बड़ा असंतुलन पैदा हो रहा है.

सांसद ने सुझाव दिया कि राजस्थान में हर गांव की ग्राम सभा को यह जिम्मेदारी दी जाए कि वे देखें कि कौन-कौन से परिवार अब आदिवासी संस्कृति और परंपरा नहीं मानते हैं.

अगर कोई धर्म बदल चुका है और सामाजिक तौर पर भी अब आदिवासी परंपरा से अलग है, तो ऐसे परिवारों को एसटी सूची से हटाने की प्रक्रिया शुरू की जाए.

डॉ. रावत ने याद दिलाया कि मुद्दा नया नहीं है.

1967 में कांग्रेस नेता डॉ. कार्तिक उरांव ने धर्मांतरित आदिवासियों को सूची से हटाने की मांग संसद में उठाई.

1970 के दशक में उन्होंने डीलिस्टिंग बिल पेश किया, जिसे उस समय 348 सांसदों का समर्थन मिला और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र भी लिखे गए, पर राजनीतिक दबाव के चलते नीति नहीं बनी.
अब डॉ. रावत उसी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं और यह मांग फिर से संसद में उठी है.

उस वक्त 348 सांसदों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया था, लेकिन सरकार ने उस समय कोई फैसला नहीं लिया.


इस मुद्दे पर अब देशभर में बहस शुरू हो गई है.  कुछ लोग इसे धार्मिक स्वतंत्रता में दखल मान रहे हैं, जबकि सांसद और उनके समर्थक इसे सांस्कृतिक संरक्षण का मामला बता रहे हैं.

सांसद का कहना है कि एसटी सूची में वे ही लोग रहें जो अभी भी अपनी पारंपरिक आदिवासी संस्कृति, रीति-रिवाज और समाज से जुड़े हुए हैं.

डॉ. रावत ने केंद्र सरकार से अपील की है कि वह इस विषय पर स्पष्ट कानून बनाए, ताकि धर्मांतरण के बाद भी एसटी दर्जा बनाए रखने वालों को रोका जा सके.

उन्होंने इसे संविधान के साथ न्याय करने और असली आदिवासियों को उनका अधिकार देने का सवाल बताया है.

सांसद डॉ. मनालाल रावत का यह बयान संसद में न सिर्फ चर्चा का विषय बना है बल्कि यह आदिवासी समाज और उनके अधिकारों को लेकर एक नई बहस की शुरुआत भी है.

जनजाति सुरक्षा मंच (JSM) नाम का संगठन, जो कई राज्यों में काम करता है, लगातार यह मांग कर रहा है कि धर्म बदल चुके आदिवासियों को सरकारी लाभ नहीं मिलने चाहिए.

उनका कहना है कि ऐसे लोग अब असली आदिवासी पहचान से अलग हो चुके हैं.

इसलिए उन्हें एसटी की लिस्ट से हटाना जरूरी है, ताकि जो लोग आज भी अपनी परंपराएं निभा रहे हैं, उन्हें उनका हक मिल सके.

वहीं दूसरी तरफ, जो आदिवासी अब ईसाई धर्म अपना चुके हैं, उनका कहना है कि वे भले ही धर्म बदल चुके हैं, लेकिन वे अब भी आदिवासी ही हैं.

उनका कहना है कि धर्म बदलने से उनकी जातीय पहचान नहीं बदल जाती.

वे मानते हैं कि सरकार को धार्मिक स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए और उन्हें एसटी से नहीं हटाना चाहिए.

इस मुद्दे पर आदिवासी समाज दो हिस्सों में बंट गया है.

एक तरफ वे लोग हैं जो कहते हैं कि धर्म बदलने के बाद आदिवासी लाभ नहीं मिलने चाहिए.

दूसरी तरफ वे लोग हैं जो कहते हैं कि आदिवासी पहचान जन्म से होती है, धर्म से नहीं। इसलिए हटाना गलत होगा.

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