HomeLaw & Rightsआदिवासी इलाकों में सरकार का सर्वर स्लो क्यों चलता है?

आदिवासी इलाकों में सरकार का सर्वर स्लो क्यों चलता है?

देश की मुख्यधारा से आज भी दूर रहने वाले आदिवासी समूहों की भोजन परंपरा पूरी तरह से बदल गई है. यह बदलाव सरकार के फ्री राशन से आया है. इस बदलाव से उनका पोषण संतुलन बिगड़ गया है. लेकिन यह राशन हासिल करने के लिए भी आदिवासी को 15-20 दिन तक धक्के खाने पड़ते हैं.

देश साल 2047 में आज़ादी के 100 साल मना रहा होगा, वर्तमान सरकार का यह दावा है कि तब तक भारत एक विकसित देश बन चुका होगा.

लेकिन छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले का एक गांव पुटी पखना शायद तब भी 1947 में ही अटका रह जाएगा यानि वह और 100 साल पीछे चला जाएगा.

पुटी पखना और उसके आसपास के गांवों के आदिवासियों की जो कहानी ज़्यादा दुखद है क्योंकि यह कहानी कोरबा जि़ले की कहानी है.

छत्तीसगढ़ का यह ज़िला राज्य की उर्जा राजधानी है. यह ज़िला सिर्फ़ छत्तीसगढ़ के लिए बिजली पैदा नहीं करता है, बल्कि कई राज्यों के बिजली घरों को कोयला भी देता है.

यहां के जंगलों को काट कर दनादन कोयले की नई खाने खोली जा रही हैं…यानि भारत साल 2047 में जब एक विकसित देश बन चुका होगा  तो उसमें कोरबा की भूमिका भी दर्ज होगी.

ढेकी का अविष्कार कब और कहां हुआ इस पर इतिहासकारों में एक राय नहीं है. कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि ढेकी की उत्पत्ति शायद ऋगवेद काल में हुई थी.

जबकि इतिहासकारों का एक वर्ग मानता है कि यह यंत्र शायद चीन या जापान से भारत में आया. यह भी माना जाता है कि भारत में ढेकी का प्रयोग प्राचीन काल के अंत और मध्यकाल के आरंभ में बढ़े स्तर पर  शुरू हो गया था.

क्योंकि असम, बंगाल और ओडिशा के उपजाऊ मैदानी इलाकों में धान की खेती बड़े पैमाने पर होने लगी थी. समय जो भी रहा हो लेकिन इस बात पर सभी इतिहासकारों में यह राय है कि ओखली और मूसल की तुलना में trip hammer तकनीक पर आधारित पैर से चलने वाली ढेकी एक बेहतरीन मशीन थी.

पर आज के युग में भी अगर देश के किसी गांव में ढेकी इस्तेमाल होती है तो इसे क्या कहा जाए. पुटी पखना गांव के प्रेम सिंह बताते हैं, “जब हम छोटे थे तो कांदा – कुंदरु खा कर जीते थे…पहले भी चावल होता था…लेकिन खाद नहीं था….सांवा कुटकी खा कर जीते थे. आधी रात से ढेकी बजने लगती थी तब कहीं जा कर सुबह मकई की रोटी मिलती थी.”

कोरबा ज़िले के पोडी उपरोड़ा के जंगलों में पंडो, पहाड़ी कोरवा और बिरहोर समुदाय के लोग रहते हैं. ये तीनों ही समुदाय PVTG श्रेणी में आते हैं. इसको आप ऐसे समझ सकते हैं कि ये आदिवासियों के वे समूह हैं जिसकी जनसंख्या लगातार कम हो रही है. इन समूहों को बचाने के लिए सरकार ने इनकी अलग से पहचान की है.

ये आदिवासी समुदाय दुनिया के उन समूहों में शामिल हैं जिन्होंने सबसे बाद में स्थाई बस्तियों में रहना शुरू किया. इनमें से कई समूह तो ऐसे है जो कुछ साल पहले तक जंगल में खानाबदोश ज़िंदगी जी रहे थे.

पंडो, पहाड़ी कोरवा और बिरहोर जब स्थाई बस्तियों में बसा दिए गए तो उनका जंगल पर टिका हुआ पोषण संतुलन भी बिगड़ गया.

जंगल में शिकार और कोदो-कुटकी जैसे मिलेट्स की खेती छूट गई. सदियों से समाज की मुख्यधारा से दूर रहे उन आदिवासी समूहों को जिंदा रखने के लिए सरकार सब्सिडाइज़ड चावल देती है.

अफ़सोस की जिन आदिवासी समुदायों के लुप्त हो जाने का ख़तरा बना हुआ है…उनके राशन में भी चोरी होने लगी. सरकार ने इस चोरी को रोकने के जो प्रबंध किए, उन्होंने भी आदिवासी को भूखा मरने को ही मजबूर किया है.

“पुटी पखना गांव की रहने वाली सीमा बताती हैं, क्योंकि मैं फिंगर नहीं लगा पाई तो 3 महीने का चावल कट गया. पड़ोसियों और दुकान से उधार लेना पड़ा…शासन ही राशन काट देता है”

बुलेट की स्पीड से बढ़ते देश और Artifical Intengence का युग अपने इन नागरिकों को भूख से तड़पते छोड़ कर ही अपनी मंज़िल को पाने के लिए बेताब है.

यहां सरकार का सर्वर इतना स्लो चलता है कि आदिवासी की आधी जिंदगी राशन की लाइन में ही गुज़र रही है.

गांव की राशन दुकान चलाने वाले रविंद्र नाटी बताता हैं, “सर्वर बहुत ज़्यादा स्लो चलता है. नेटवर्क भी यहां पर अच्छा नहीं है. इसलिए लोगों को राशन के लिए कई दिनों चक्कर लगाना पड़ता है. कई बार 15-20 दिन तक उनको इंतज़ार करना पड़ता है.”

साल 2006 में आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने यह फ़ैसला किया कि अब किसी आदिवासी समुदाय को Primitive Tribal Group  के नाम से नहीं पुकारा जाएगा.

मंत्रालय की तरफ़ से इन समुदयों को नया नाम दिया गया…यह नाम था PVTG यानि Particularly Vulnrable Tribal Groups जिसका हिन्दी में लिखा जाता है विशेष रुपे से पिछड़ी जनजातियां.

इस बदलाव के पीछे समझ ये बताई गई थी कि किसी समूह को primitive कहना अपमानजनक संबोधन है….इसके साथ ही यह भी कहा गया कि फोकस who they are की बजाए  what they face होना चाहिए.

यानि ज़ोर इस बात पर नहीं होना चाहिए कि वे कौन हैं, बल्कि ज़ोर इस बात पर होना चाहिए कि वे किस तरह के हालातों में रहते हैं और किस तरह के संकटों का सामना कर रहे है.

लेकिन ज़मीन पर जो तस्वीरों को देखाई देती है उससे पता चल्ता है कि यह समझ सिर्फ़ कहने को ही है.

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