HomeLaw & Rightsआदिम जनजाति के लिए हाशिये से मुख्यधारा तक पहुंचने की राह बेहद...

आदिम जनजाति के लिए हाशिये से मुख्यधारा तक पहुंचने की राह बेहद कठिन है

देश के अलग-अलग राज्यों में 75 ऐसे जनजातीय समूह हैं जिन्हें विशेष रूप से कमजोर माना जाता है. इनमें से ज्यादातर जनजातीय समूह जंगलों, पहाड़ों और सुदूर ग्रामीण इलाकों जैसे मुश्किल और संवेदनशील इलाकों में रहते हैं.

देश की आज़ादी के बाद से भारत के विकास और तरक्की की कहानी ने कई रूप लिए हैं. देश ने आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में नई उंचाई हासिल की है.

इस प्रगति के बावजूद समाज के कुछ वर्ग ऐसे भी हैं जो विकास की सीढ़ी से दूर हैं और मुख्यधारा से जुड़ नहीं पाए हैं.

ऐसा ही एक समूह है विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह या आदिम जनजातियाँ कहा जाता है. इन समूहों को PVTG के नाम से भी जाना जाता है.

आदिवासी समुदायों के ये समूह विकास और आधुनिकीकरण के लाभों से वंचित हैं. इन्हें मुख्यधारा में शामिल करना सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है.

भारतीय संविधान की पाँचवीं अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातियों का विस्तृत विवरण दिया गया है.  वहीं 1960-61 में PVTGs की पहचान करने का एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया जब ढेबर समिति ने इन समुदायों (जिन्हें उस समय आदिम जनजातीय समूह कहा जाता था) का औपचारिक वर्गीकरण किया.

2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत की आबादी का 8.6 फीसदी अनुसूचित जनजातियों का है. इसमें से PVTGs केवल 0.6 फीसदी हैं, जो बहुत कम है लेकिन बेहद अहम हैं.

आदिवासी समुदाय सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक विकास के अलग-अलग स्तरों पर हैं.

कुछ लोग आधुनिक जीवन जीते हैं लेकिन कुछ लोग आज भी खेती-किसानी से पहले के ज़माने की तरह शिकार और इकट्ठा करके गुज़ारा करते हैं. इन समूहों में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या बहुत कम है, आबादी स्थिर या घट रही है और इनकी अर्थव्यवस्था बहुत ही कमज़ोर है. ये हैं PVTG.

देश के अलग-अलग राज्यों में 75 ऐसे जनजातीय समूह हैं जिन्हें विशेष रूप से कमजोर माना जाता है. इनमें से ज्यादातर जनजातीय समूह जंगलों, पहाड़ों और सुदूर ग्रामीण इलाकों जैसे मुश्किल और संवेदनशील इलाकों में रहते हैं.

इन इलाकों में रहने की वजह से सरकारी योजनाओं का लाभ उन्हें आसानी से नहीं मिल पाता. इनकी आजीविका खेती-किसानी, जंगल और पारंपरिक कामों पर निर्भर करती है.

जेनु कुरुबा और कोरगा जनजाति

कर्नाटक में भारत की कुल अनुसूचित जनजाति आबादी का 4.07 फीसदी हिस्सा है और यहां 50 आदिवासी समुदाय रहते हैं.  इनमें से जेनु कुरुबा और कोरगा दो समुदाय ऐसे हैं जिन्हें विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (PVTGs) घोषित किया गया है.

मैसूर, कोडागु और चामराजनगर ज़िलों में मुख्य रूप से रहने वाले जेनु कुरुबा समुदाय की जनसंख्या 36,076 है.

वहीं दक्षिण कन्नड़, उडुपी, कोडागु, शिवमोगा और उत्तर कन्नड़ जैसे तटीय क्षेत्रों में रहने वाली कोरगा जनजाति की आबादी पिछले कुछ दशकों में काफी कम हुई है. 1991 में इनकी संख्या करीब 16 हज़ार 322 थी. 2001 तक यह संख्या घटकर 16 हज़ार 51 हो गई और 2011 तक और कम होकर 14 हज़ार 794 रह गई.

कर्नाटक ट्राइबल ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 2022 के मुताबिक, कोरगा जनजाति के बीच दिल की बीमारियां और कैंसर जैसी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं की वजह से आनुवंशिक शोध कार्यक्रम शुरू किए गए हैं. लगातार कुपोषण, एनीमिया,  इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी और सामाजिक अलगाव उनकी सामाजिक-आर्थिक कमजोरियों को और गहरा करते हैं.

यहां तक कि यूनेस्को ने भी इस कोरगा जनजाति की खराब होती स्थिति पर गंभीर चिंता जताई है और तुरंत कार्रवाई की मांग की है.

वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 आदिवासी कल्याण के लिए एक अहम कानून है. इसका मकसद आदिवासियों को जंगल की जमीन और संसाधनों पर उनके अधिकारों की कानूनी मान्यता देना है. हालांकि यह कानून आदिवासियों के सम्मान और उनकी आजीविका की सुरक्षा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, फिर भी इसके लाभों तक पहुंचना एक चुनौती बनी हुई है.

जनजातीय मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 31 जुलाई 2024 तक कर्नाटक में कुल 2 लाख 94 हज़ार 489 अनुसूचित जनजाति के लोगों और समुदायों ने वन अधिकार अधिनियम (FRA) के तहत अपने दावे दर्ज कराए थे.

हालांकि, केवल 16 हज़ार 326 लोगों को ही न्याय मिला. कानून और उसके क्रियान्वयन में यह बड़ा अंतर इस गंभीर वास्तविकता को दर्शाता है कि एक प्रभावशाली कानून होने के बावजूद, आदिवासी समुदायों को न्याय दिलाने में प्रणालीगत रुकावटें बनी हुई हैं.

नागरहोल टाइगर रिजर्व और जेनु कुरुबा

हाल ही की एक घटना इस मतभेद को दर्शाती है. नागरहोल टाइगर रिजर्व में स्थित अपने पैतृक गांव करादिकल्लू अत्तुरकोल्ली में जेनु कुरुबा आदिवासी परिवारों के साथ वन विभाग के अधिकारियों और पुलिस के बीच झड़प हुई थी.

आदिवासी समुदाय ने भूमि पर अपने मूल निवासी होने के अधिकार और वहां रहने के अपने अधिकार का दावा किया. लेकिन एफआरए के तहत बनी उप-मंडल स्तरीय समिति (SDLC) ने गांव के होने का कोई आधिकारिक प्रमाण न होने के कारण 52 परिवारों के दावे ठुकरा दिए.

नागरहोल वन क्षेत्र में जेनु कुरुबा जनजाति सहित बेट्टा कुरुबा, यारवा और पनिया जनजातियां सालों से वन अधिकार अधिनियम 2006 (FRA) लागू करने की मांग कर रही हैं, मगर उन्हें अभी तक कोई जमीन नहीं मिली है.

2018 में वन विभाग को अस्वीकृत आवेदनों पर दोबारा विचार करने का निर्देश दिया गया था. 2000 से ज़्यादा आवेदन लंबित हैं और 2025 हो गया है फिर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई है.

आदिवासी वर्षों से अपने विस्थापन के खिलाफ लड़ रहे हैं, क्योंकि वे खुद को जंगल के मूल निवासी मानते हैं.

यह मुद्दा भारत के आदिवासी समुदायों के जीवन की वास्तविकता और सरकारी दस्तावेज़ों के बीच मौजूद लगातार जारी मतभेद को उजागर करता है, जिससे उनके लंबे समय से चले आ रहे पारंपरिक अधिकारों को बार-बार नकारा जाता है.

आदिवासियों के विकास के लिए अलग रणनीति की जरूरत

आदिवासी विकास कार्यक्रमों की सीमित सफलता का मुख्य कारण यह है कि उन्हें लागू करने का तरीका बहुत अधिक नौकरशाही वाला है, जिसमें आदिवासी समुदायों को निर्णय लेने में शामिल नहीं किया जाता. 

आदिवासी विकास के लिए वर्तमान तरीकों से बिलकुल अलग रणनीति की ज़रूरत है. भारत के पहले प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘भारत का आविष्कार’ में ऐसा ही एक विचार प्रस्तुत किया था, जिसे बाद में उन्होंने आदिवासी विकास के लिए पंचशील सिद्धांतों के द्वारा व्यवस्थित किया.

उन्होंने पांच सिद्धांतों पर ज़ोर दिया:

  1. लोगों को अपनी प्रतिभा को खिलने देना चाहिए, उन पर कुछ न थोपा जाए. उनकी पारंपरिक कला और संस्कृति को हर तरह से बढ़ावा देना चाहिए.
  2. जंगल और जमीन पर आदिवासियों के अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए.
  3. हमें स्थानीय लोगों की एक टीम बनाकर प्रशासन और विकास का काम सौंपना चाहिए, और उन्हें प्रशिक्षित करना चाहिए. शुरुआत में कुछ बाहरी तकनीकी विशेषज्ञों की ज़रूरत होगी. लेकिन आदिवासी क्षेत्रों में ज़्यादा बाहरी लोगों को लाने से बचना चाहिए.
  4. इन क्षेत्रों में ज़्यादा दख़लअंदाज़ी नहीं करनी चाहिए और न ही उन्हें कई योजनाओं से बोझिल करना चाहिए. इसके बजाय हमें उनके अपने सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थानों के जरिए काम करना चाहिए.
  5. परिणाम का आकलन धनराशि के आंकड़ों से नहीं बल्कि मानवीय चरित्र के विकास की गुणवत्ता से करना चाहिए. यह मानवीय और समावेशी दृष्टिकोण, उन पीवीटीजी समुदायों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है जो अभी भी अलग-थलग जीवन जी रहे हैं.

समावेश एक धीमी, सम्मानजनक प्रक्रिया होनी चाहिए, न कि जबरदस्ती थोपी गई या उनकी संस्कृति और परंपराओं की अनदेखी करते हुए.

हालांकि, वर्तमान की केंद्र सरकार द्वारा पीएम-जनमन (Janjati Adivasi Nyaya Maha Abhiyan) जैसे प्रयास पीवीटीजी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के उद्देश्य से किए जा रहे हैं. यह कार्यक्रम विशेष रूप से पीवीटीजी गांवों और बस्तियों में स्किल डेवलपमेंट, वोकेशनल ट्रेनिंग, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और इंफ्रास्ट्रक्चर पर केंद्रित है.

इस योजना के लक्ष्य हैं: पक्के मकान, शुद्ध पेयजल, बिजली, मोबाइल और सड़क कनेक्टिविटी, आंगनवाड़ी केंद्र और सरकारी योजनाओं का लाभ. बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं से मानव संसाधन को मजबूत करके, इसका लक्ष्य सभी के विकास को सुनिश्चित करना है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Recent Comments