एक ओर जहां सरकारें ‘सबका साथ, सबका विकास’ और ‘समावेशी शिक्षा’ की बात करती हैं, वहीं दूसरी ओर देश के सबसे बड़े शिक्षण संस्थानों में आरक्षित फैकल्टी पदों का रिक्त रह जाना, सरकार के इन दावों की सच्चाई को बेनकाब करता है.
जब विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों जैसे आईआईटी और आईआईएम में ही अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व न के बराबर हो तो संवैधानिक सिद्धांत और ज़मीनी हकीकत के बीच एक बड़ी खाई दिखाई देती है.
हाल ही में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने यह मुद्दा उठाया कि दिल्ली विश्वविद्यालय में एससी, एसटी और ओबीसी वर्गों के लिए आरक्षित प्रोफेसर पदों में से लगभग 60 प्रतिशत खाली पड़े हैं.
इसके जवाब में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने दावा किया कि सरकार ने फैकल्टी पदों की संख्या में वृद्धि की है, पीएचडी की शर्त को हटाया गया है और आरक्षित सीटें सामान्य वर्ग के केंडिडेट से न भरी जाएं, इसके लिए केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (शिक्षक संवर्ग में आरक्षण) अधिनियम, 2019 (Central Educational Institutions Reservation in Teachers Cadre Act, 2019) को लागू किया गया है.
शिक्षा मंत्री के इस तर्क की सच्चाई बताते हुए, मैं भी भारत से खास बातचीत में दिल्ली यूनिवर्सिटी के असिसटैंट प्रोफेसर डॉ जीतेंद्र मीणा कहते हैं कि 2 साल तक चले रोस्टर आंदोलन के बाद सरकार ये कानून लाई थी. वे कहते हैं कि 2018-2019 में 13 पॉइंट रोस्टर के खिलाफ एक बहुत बड़ा आंदोलन किया गया था. दिल्ली यूनिवर्सिटी ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया. उन्होंने कहा कि गांव-देहात से लेकर संसद तक इस कानून को लाने के लिए लाखों लोगों ने संघर्ष किया है.
शिक्षा मंत्री ने विपक्ष के आरोपों को निराधार करार देते हुए कहा कि स्थिति सुधर रही है. लेकिन क्या स्थिति वाकई सुधर रही है?
अप्रैल 2021 में शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने लोकसभा में बताया था कि देश के 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में SC के 2,389, ST के 1,199 और OBC के 4,251 फैकल्टी पद खाली थे. ये पद प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर के थे.
जुलाई 2022 में CPI(M) के सांसद ए.ए. रहीम ने राज्यसभा में जब आरक्षित पदों की भर्ती की स्थिति पर सवाल किया था, तब लिखित जवाब में बताया गया कि कुल 3,669 आरक्षित फैकल्टी पद रिक्त हैं. जिसमें SC के 988, ST के 576, और OBC के 1,761 पद शामिल हैं.
इसके बाद शिक्षा मंत्रालय की दिसंबर 2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार आईआईटीज़ (IITs) और केंद्रीय विश्वविद्यालयों ने 1,439 रिक्त आरक्षित पदों में से केवल 449 पद भरे. यानी मौजूदा आरक्षित रिक्त पदों में से केवल 30% ही भर्ती हुई.
यहां गौर करने वाली बात ये है कि जुलाई 2022 तक आरक्षित फैकल्टी पदों में रिक्तियों की संख्या जहां 3,669 बताई गई थी, वहीं दिसंबर तक, यानी सिर्फ 5 महीनों में इस संख्या को 1439 कर दिया गया. क्या इतनी जल्दी दो हज़ार से ज़्यादा आरक्षित पद भर दिए गए? ये आंकडे विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न करते हैं.
2022 के बाद आगे बढ़ने पर सीधे 2024 के आंकड़ें नज़र आते हैं.
दिसंबर 2024 में कई लेखों में आरटीआई के हवाले से उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षित फैकल्टी पदों के बारे में लिखा गया. इन लेखों के अनुसार 31 दिसंबर 2024 तक कुल 5,400 से अधिक फैकल्टी पद खाली थे.
आईआईटीज़ (IITs) में ST फैकल्टी की हिस्सेदारी केवल 1.1% और SC की 4.85% थी. जबकि संविधान के अनुसार ये अनुपात ST के लिए 7.5 और SC के लिए 15% होना चाहिए.
इस गंभीर स्थिति को और स्पष्टता से दिखाता है सितंबर 2024 का एक RTI डेटा.
ये डेटा अम्बेडकर पेरियार अध्ययन मंडल (Ambedkar Periyar Study Circle) को एक आरटीआई जवाब के तौर पर प्राप्त हुआ था.
इस RTI के अनुसार, IIT बॉम्बे के आठ विभागों में कोई भी SC, ST या OBC फैकल्टी सदस्य नहीं है. 25 विभागों में ST फैकल्टी का अभाव है. 12 विभागों में SC का प्रतिनिधित्व नहीं है और अन्य 12 विभागों में OBC फैकल्टी मौजूद नहीं है.
IIT दिल्ली के छह विभागों में भी कोई SC/ST/OBC फैकल्टी सदस्य नहीं है, जबकि 22 विभागों में ST, 14 विभागों में SC और 9 विभागों में OBC फैकल्टी नहीं हैं.
IIT गुवाहाटी में 14 विभागों में ST फैकल्टी नहीं है और IIT भुवनेश्वर में तो ST वर्ग का कोई भी फैकल्टी सदस्य नहीं है.
इसके अलावा IIT बॉम्बे में 2023 में अनुसूचित जाति के 523 उम्मीदवारों में से केवल 4 का चयन हुआ जबकि अनुसूचित जनजाति के 96 आवेदन के बावजूद कोई भी चयनित नहीं हुआ. OBC के 779 आवेदकों में से भी कोई नियुक्त नहीं हुआ. 2024 में इस स्थिति में मामूली सुधार नज़र आया. यानी साल 2024 में SC के 44 आवेदकों में से 2, ST के 22 में से 1 और OBC के 106 में से 3 का चयन हुआ.
शिक्षा मंत्रालय ने अगस्त 2021 में सभी केंद्रीय वित्त पोषित उच्च शिक्षा संस्थानों को निर्देश दिया था कि वे सितंबर 2022 तक आरक्षित वर्गों के रिक्त पद भरें. लेकिन इस RTI से स्पष्ट हुआ कि 2022 की डेडलाइन के 2 साल बाद भी IIT दिल्ली, बॉम्बे, गुवाहाटी, भुवनेश्वर जैसे प्रमुख संस्थान इस निर्देश का पालन करने में असफल रहे.
सितंबर 2024 के ही एक और RTI डेटा के अनुसार, भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) इंदौर और तिरुचिरापल्ली में आरक्षित श्रेणी के फैकल्टी पदों पर बड़ी संख्या में रिक्तियां हैं.
विशेष रूप से IIM इंदौर में अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) श्रेणियों के लिए एक भी संकाय सदस्य नहीं है और सामान्य श्रेणी के सभी पद भरे हुए हैं. ये डेटा अखिल भारतीय ओबीसी छात्र संघ (All India OBC Students Association) की एक आरटीआई उत्तर के तौर पर सामने आया था.
कई विश्वविद्यालयों में आरक्षित पदों को योग्य नहीं है (Not Found Suitable) कहकर खाली रखा गया. इसका मतलब यह नहीं कि पदों को भरने की कोशिश नहीं हुई बल्कि चयन समीतियों ने ऐसे उम्मीदवारों को “योग्य नहीं” बताया जो आरक्षित वर्ग से थे, जिससे पद रिक्त रह गए.
उदाहरण के लिए अम्बेडकर यूनिवर्सिटी फैकल्टी एसोसिएशन (AUFA) की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 60% से अधिक आरक्षित पद चयन समितियों की मर्जी से खाली रह गए. इसके अलावा जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (JNU) में दिसंबर 2022 तक 22 SC, 10 ST, और 33 OBC पदों के लिए भर्ती प्रक्रिया हुई, लेकिन कई पद खाली रह गए क्योंकि चयन समितियों ने उपयुक्त उम्मीदवार नहीं पाया. यही स्थिति JNU की आधिकारिक भर्ती अधिसूचना (2023-24) और संबंधित रिपोर्टों में भी देखी गई है.
एनएफएस टैग का ज़िक्र करते हुए जीतेंद्र मीणा ने बताया कि एनएफएस का कोई मापदंड नहीं है, चयन समीति 2 से 3 मिनट के साक्षात्कार के आधार पर ये तय कर देती है कि कोई उम्मीदवार योग्य है या नहीं. इतना ही नहीं, उन्होंने बताया कि नॉट फाउंड सूटेबल की तरह और भी कैटीगरीज़ होती हैं.
उन्होंने बताया कि फ्रैंच और जापानी जैसी भाषाओं की फैकल्टी के लिए आरक्षण दे दिया जाता है, इन भाषाओं में पीएचड़ी या उच्च शिक्षा गृहण करने वाले आदिवासी या वंचित वर्ग के लोग हाते ही नहीं है. और इस तरह की पोस्ट्स को ‘कोई उम्मीदवार उपलब्ध नहीं है’ (No Candidate available) की सूचि में डाल दिया जाता है. इसी तरह ‘कोई उम्मीदवार नहीं चुना गया’ (No Candidate Shortlisted) की भी कैटिगरी होती है.
कहने का मतलब है कि यहां योग्यता नहीं बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक पक्षपात भूमिका निभा रहा है.
इस संदर्भ में संविधान की भावना की भी बात होती है. अनुच्छेद 16(4) कहता है कि राज्य ऐसे पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर सकता है जो सरकारी नौकरियों में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं कर पा रहे हैं. यानी संविधान ने साफ-साफ यह रास्ता दिया है कि अगर कुछ वर्ग सामाजिक रूप से पिछड़े हैं और सरकारी पदों पर कम प्रतिनिधित्व रखते हैं, तो उन्हें आरक्षण देकर समानता की ओर लाया जा सकता है.
वहीं, अनुच्छेद 46 राज्य को यह निर्देश देता है कि वह अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य कमज़ोर वर्गों की शिक्षा और आर्थिक हितों को विशेष प्राथमिकता दे. इसका मतलब ये नहीं कि सिर्फ स्कूल या छात्रवृत्तियों तक सीमित रहे बल्कि इसका दायरा विश्वविद्यालयों, रिसर्च और फैकल्टी नियुक्तियों तक जाता है.
जब देश के शीर्ष शिक्षण संस्थानों में ही ये वर्ग हाशिए पर दिखते हैं, तो सवाल उठता है कि क्या ये संस्थान संविधान के खिलाफ जा रहे हैं? शायद यही वह सवाल है जिसे सत्ता पक्ष बार-बार टालने की कोशिश करता है.
सरकार को समझना होगा कि पद बढ़ाने, पीएचडी की शर्त हटाने की बात करने से ज़मीनी हालात नहीं बदलते और इस तरह के जवाब देकर शिक्षा मंत्री सच्चाई से मूंह नहीं फेर सकते.