महिला अधिकारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला सामने आया है. गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आदिवासी समुदाय की महिलाओं का भी उत्तराधिकार में हक है. कोर्ट ने कहा कि उत्तराधिकार से संबंधित विवाद में आदिवासी परिवार की महिलाओं या उसके कानूनी उत्तराधिकारी पैतृक संपत्ति में बराबर के हकदार होंगे.
यह फैसला जस्टिस संजय करोल और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने गुरुवार को सुनाया.
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया की किसी आदिवासी महिला या उसके कानूनी उत्तराधिकारियों को केवल लिंग के आधार पर पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने से इनकार करना अनुचित और असंवैधानिक दोनों है.
शीर्ष अदालत ने कहा, “महिला उत्तराधिकारी को संपत्ति में अधिकार से वंचित करने से लैंगिक विभाजन और भेदभाव बढ़ता है, जिसे कानून द्वारा समाप्त किया जाना चाहिए.”
कोर्ट ने कहा कि ये महिलाओं के समानता के अधिकार का उल्लंघन है.
हालांकि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act), 1956 अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता, फिर भी अदालत ने स्पष्ट किया कि लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आदिवासी महिलाओं को स्वतः ही उत्तराधिकार से वंचित कर दिया जाए.
पीठ ने कहा कि यह देखा जाना चाहिए कि क्या कोई प्रचलित प्रथा मौजूद है, जो पैतृक संपत्ति में महिलाओं के हिस्से के आदिवासी अधिकार को प्रतिबंधित करती है.
जस्टिस संजय करोल ने फैसला लिखते हुए कहा कि इस मामले में पक्षकार ऐसी किसी प्रथा के अस्तित्व को स्थापित नहीं कर सके, जो महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित करती हो. यदि ऐसी कोई प्रथा है भी तो उसे विकसित होना होगा.
लिंग के आधार पर संपत्ति में हिस्सा देने से इनकार करना असंवैधानिक
दरअसल, जस्टिस संजय करोल और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने यह फैसला छत्तीसगढ़ की एक अनुसूचित जनजाति की महिला के कानूनी उत्तराधिकारियों से जुड़े एक मामले में सुनाया, जिसने अपने नाना की संपत्ति में हिस्सा मांगा था.
हालांकि उनके दावे का परिवार के पुरुष सदस्यों ने विरोध किया और तर्क दिया कि आदिवासी रीति-रिवाज महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित करते हैं.
तीन निचली अदालतों, निचली अदालत, प्रथम अपीलीय अदालत और उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए दावा खारिज कर दिया कि वह महिला उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली कोई प्रथा स्थापित करने में विफल रही.
लेकिन इन दलीलों को दरकिनार करते हुए, जस्टिस करोल द्वारा लिखित फैसले में इस बात पर जोर दिया गया कि किसी भी निषेधात्मक प्रथा के अभाव में समानता कायम रहनी चाहिए.
एक आदिवासी महिला या उसके उत्तराधिकारियों को केवल लिंग के आधार पर संपत्ति में हिस्सा देने से इनकार करना असंवैधानिक है.
इसके अलावा यह पाया गया कि निचली अदालत ने विरोधी पक्ष को ऐसी विरासत पर रोक साबित करने की आवश्यकता के बजाय अपीलकर्ताओं को महिलाओं द्वारा उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली प्रथा को साबित करने की आवश्यकता बताकर गलती की.
पीठ ने कहा कि महिलाओं, जिनमें मुकदमे में शामिल महिलाएं भी शामिल हैं…उनको उत्तराधिकार से वंचित करना अनुचित और भेदभावपूर्ण दोनों है.
कोर्ट ने उत्तराधिकार विवाद में एक आदिवासी परिवार में महिलाओं के समान अधिकारों पर ज़ोर दिया और स्पष्ट किया कि अगर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता, इसका यह अर्थ नहीं है कि आदिवासी महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित किया जाता है.
न्यायालय ने आगे कहा कि ज़िम्मेदारी किसी भी मौजूदा प्रथा को साबित करने की है जो पैतृक संपत्ति पर उनके अधिकार को प्रतिबंधित करती है.
अनुच्छेद 14 के तहत संवैधानिक समानता
पीठ ने इस मुद्दे को मौलिक अधिकारों के स्तर पर उठाते हुए कहा कि महिला वारिस को संपत्ति के अधिकार से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है.
पीठ ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है और इसमें लैंगिक समानता भी शामिल है.
कोर्ट ने कहा, “ऐसा कोई तर्कसंगत संबंध या उचित वर्गीकरण नहीं दिखता, जिससे केवल पुरुषों को अपने पूर्वजों की संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार मिले और महिलाओं को नहीं, विशेषकर तब जब कोई कानूनी रोक नहीं दिखाई गई हो.”
लिंग के आधार पर उत्तराधिकार के अधिकारों से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन है. केवल पुरुष उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार की अनुमति देने का कोई औचित्य नहीं है.
पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 15(1) कहता है कि राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा.
पीठ ने आगे कहा कि यह अनुच्छेद 38 और 46 के साथ मिलकर संविधान के सामूहिक लोकाचार की ओर इशारा करता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि महिलाओं के साथ कोई भेदभाव न हो.
कोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के पीछे की विचारधारा का संदर्भ दिया, जिसने बेटियों को समान कॉपार्सनरी अधिकार दिए, ताकि लैंगिक भेदभाव समाप्त किया जा सके। साथ ही कोर्ट ने मेनका गांधी बनाम भारत संघ जैसे ऐतिहासिक फैसलों का हवाला दिया और कहा कि समानता एक गतिशील अवधारणा है और मनमानी के विपरीत है.
आख़िर में फैसले में कहा गया, “न्याय, समता और सद्विवेक के सिद्धांत को लागू करते समय, अदालतों को सावधान रहना होगा… रीति-रिवाज भी कानून की तरह समय में अटके नहीं रह सकते और दूसरों को रीति-रिवाजों की शरण लेने या उनके पीछे छिपकर दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती.”