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असम का नया ST आरक्षण प्रस्ताव वहां के हाशिए पर पड़े समूहों के लिए क्या मायने रखता है

अलग-अलग इंटरेस्ट ग्रुप्स के बीच संतुलन बनाते हुए मंत्रियों की रिपोर्ट में कहा गया कि आरक्षण को इस तरह बांटा जाएगा कि राज्य सरकार की नौकरियों और एजुकेशनल इंस्टीट्यूशंस में मौजूदा आदिवासी समूहों का आरक्षण अप्रभावित रहे. इसके बजाय, यह हिस्सा OBC कोटे से आएगा.

29 नवंबर को असम कैबिनेट के मंत्रियों के एक ग्रुप की बनाई रिपोर्ट राज्य विधानसभा में पेश की गई. इसमें अंदरूनी आरक्षण का एक मुश्किल सिस्टम बनाकर राज्य के छह मूल निवासी समूहों को अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribe) का दर्जा देने का प्रस्ताव था.

पिछले कई महीनों से ये समुदाय, जो सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (BJP) सरकार के लिए एक अहम वोटर बेस हैं, ऊपरी असम में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं ताकि हिमंत बिस्वा सरमा (Himanta Biswa Sarma) सरकार पर ट्राइबल स्टेटस की उनकी लंबे समय से चली आ रही मांग को मानने के लिए दबाव बनाया जा सके.

छह समुदायों ने रिपोर्ट का स्वागत किया लेकिन कुछ घंटों बाद बोडोलैंड इलाके के कोकराझार जिले में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए.

सैकड़ों बोडो छात्रों ने बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल असेंबली पर धावा बोल दिया, सुरक्षाकर्मियों को काबू में किया और कुर्सियों और डेस्क में तोड़फोड़ की.

विरोध कर रहे आदिवासी छात्रों ने दावा किया कि दूसरे समूहों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के फैसले से उनके संवैधानिक अधिकार कमजोर होंगे.

सबसे प्रभावशाली बोडो ग्रुप, ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन के प्रमुख दीपेन बोरो ने मीडिया को बताया, “हम उन्हें आदिवासी दर्जा देने की सिफारिश को खारिज करते हैं. यह मौजूदा आदिवासी समूहों के राजनीतिक अधिकारों, आरक्षण, शिक्षा और नौकरियों के लिए ख़तरा है.”

असम के आदिवासी संगठनों की कोऑर्डिनेटिंग कमेटी (CCTOA) जो राज्य में आदिवासियों का एक बड़ा संगठन है. उसने 30 नवंबर को गुवाहाटी में मंत्रियों के ग्रुप की रिपोर्ट जलाई और इसके खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू करने की धमकी दी.

इस सिफारिश पर राज्य के तीन पहाड़ी जिलों – दिमा हसाओ, वेस्ट कार्बी आंगलोंग और कार्बी आंगलोंग में भी ऐसी ही प्रतिक्रिया सामने आई.

दिसंबर के पहले हफ़्ते में हाफलोंग और डोकमोका में हज़ारों लोग सड़कों पर उतर आए. बोडोलैंड और राज्य के पहाड़ी जिले संविधान की छठी अनुसूची के तहत शासित होते हैं, जो आदिवासी समुदायों को ज़्यादा स्वायत्तता देती है.

इस मामले के विशेषज्ञों का कहना है कि बीजेपी के लिए यह रिपोर्ट दोधारी तलवार है. इसके ज़रिए पार्टी छह समुदायों के वोट पक्के करना चाहती है, जिनका सामूहिक रूप से काफी प्रभाव है. लेकिन इससे मौजूदा जनजातियों के नाराज़ होने का ख़तरा है, जिन्हें डर है कि उनके संवैधानिक फायदों में लंबे समय में कमी आ जाएगी.

पर्यवेक्षकों ने यह भी बताया कि यह प्रस्ताव एक संवैधानिक रूप से जटिल व्यवस्था शुरू करता है, जिसे दूसरे राज्यों ने आज़माया नहीं है और इसके राज्य के हाशिए पर पड़े समूहों के लिए लंबे समय तक चलने वाले नतीजे होंगे.

रिपोर्ट में क्या प्रस्ताव है

2011 की जनगणना के मुताबिक, असम में 3.1 करोड़ लोग हैं, जिनमें से मान्यता प्राप्त अनुसूचित जनजातियों की आबादी 40 लाख यानि जनसंख्या का 13 फीसदी है.

अनुसूचित जनजाति का दर्जा मांगने वाले छह समुदाय – ताई अहोम, कोच राजबोंगशी, मोरन, मटक, सुतिया और चाय जनजाति… अभी राज्य की अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) सूची में शामिल हैं. मंत्रियों की रिपोर्ट के मुताबिक, इन सभी को मिलाकर 1 करोड़ लोग हैं.

असम में अनुसूचित जनजाति को आगे दो ग्रुप में बांटा गया है: ST (मैदानी) जिसमें 10 फीसदी आरक्षण है और ST (पहाड़ी) जिसमें 5 फीसदी आरक्षण है.

राज्य का सबसे बड़ा आदिवासी ग्रुप, बोडो, पहले वाली कैटेगरी में शामिल है. साथ ही मिसिंग, राभा और लालुंग जनजातियां भी इसी में शामिल हैं.

नॉर्थ-ईस्ट के दूसरे राज्यों में ऐसी कैटेगरी नहीं हैं लेकिन असम में है.

वहीं रानोज पेगू की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के समूह ने ST (घाटी) की एक नई कैटेगरी बनाने का प्रस्ताव दिया है और सिफारिश की है कि ताई अहोम, सुतिया और चाय जनजातियों को इसमें शामिल किया जाए.

रिपोर्ट में कहा गया है कि मोरन और मटक, जो अपेक्षाकृत छोटे समुदाय हैं, उन्हें ST (मैदानी) सूची में शामिल किया जाएगा.

वहीं अविभाजित गोलपारा क्षेत्र के कोच राजबोंगशियों को ST (मैदानी) सूची में शामिल किया जाएगा. जबकि राज्य के बाकी हिस्सों जैसे ऊपरी असम में रहने वालों को अहोम, सुतिया, चाय जनजातियों के साथ ST (घाटी) सूची में शामिल किया जाएगा.

हालांकि, गोलपारा के बोडोलैंड इलाकों में उन्हें ST (मैदानी) लिस्ट में शामिल करने के लिए बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल से नो-ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट की ज़रूरत होगी.

अलग-अलग इंटरेस्ट ग्रुप्स के बीच संतुलन बनाते हुए मंत्रियों की रिपोर्ट में कहा गया कि आरक्षण को इस तरह बांटा जाएगा कि राज्य सरकार की नौकरियों और एजुकेशनल इंस्टीट्यूशंस में मौजूदा आदिवासी समूहों का आरक्षण अप्रभावित रहे. इसके बजाय, यह हिस्सा OBC कोटे से आएगा.

रिपोर्ट में कहा गया है, “अभी OBCs के लिए 27 फीसदी आरक्षण उपलब्ध है. एक बार जब इन छह समुदायों को एसटी घोषित कर दिया जाएगा तो आनुपातिक हिस्सा काटकर नए छह समुदायों को एक अलग नाम, जैसे ST (घाटी) के साथ उपलब्ध कराया जा सकता है ताकि मौजूदा आदिवासी समुदायों के साथ कोई टकराव न हो.”

हालांकि, राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जनजाति कोटा में इस तरह का कोई बंटवारा संभव नहीं है. इसलिए सभी समुदायों को केंद्र सरकार की नौकरियों और केंद्र सरकार के शिक्षण संस्थानों में सीटों के लिए एक-दूसरे से मुकाबला करना होगा.

निर्दलीय विधायक और राइजर दल के अध्यक्ष अखिल गोगोई, जो ताई अहोम समुदाय से हैं. उन्होंने सवाल उठाया कि क्या यह प्रस्ताव संवैधानिक जांच में खरा उतरेगा.

विधानसभा में प्रस्ताव पेश होने के बाद गोगोई ने बाहर पत्रकारों से कहा था, “एसटी (घाटी) भारत के संविधान या अनुसूचित जनजातियों की केंद्रीय सूची में कहीं भी मौजूद नहीं है. यह एक काल्पनिक कैटेगरी है. यह लोगों को धोखा देने के अलावा और कुछ नहीं है.”

दिसपुर में एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने मीडिया को बताया कि अनुसूचित जनजाति कोटे का तीन-स्तरीय विभाजन असम के लिए अनोखा होगा.

उन्होंने कहा, “यह केंद्र सरकार पर निर्भर करेगा कि वे तीसरी लेयर को स्वीकार करते हैं या नहीं. किसी भी दूसरे राज्य में ऐसी अलग-अलग कैटेगरी नहीं हैं और न ही इसका कोई उदाहरण है. केंद्र इसे एक विशेष मामले के तौर पर मंज़ूरी दे सकता है. छह समूहों को एसटी का दर्जा दे सकता है और राज्य सरकार को उन्हें ST (घाटी) या ST (मैदान) घोषित करने दे सकता है.”

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, गुवाहाटी में पढ़ाने वाले सोशल साइंटिस्ट प्रदीप रामावत जे ने बताया कि असम सरकार के प्रस्ताव की “तार्किकता” सुप्रीम कोर्ट के 2024 के फैसले से आती है, जिसमें अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के भीतर सब-क्लासिफिकेशन की इजाज़त दी गई है.

रामावत, जिन्होंने कर्नाटक में अनुसूचित जातियों के आंतरिक आरक्षण के मुद्दों पर बड़े पैमाने पर काम किया है. उन्होंने कहा, “फैसले में सात जजों की बेंच ने साफ किया कि राज्य आरक्षण लाभों के ज़्यादा समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए एससी और एसटी का सब-क्लासिफिकेशन कर सकते हैं. इस फैसले से पहले आंतरिक आरक्षण को पक्का संवैधानिक समर्थन नहीं था. अब, यह कानूनी रूप से स्वीकार्य और प्रशासनिक रूप से संभव दोनों है, यही वजह है कि मंत्रियों के समूह ने असम के लिए इस पर विचार करने की सिफारिश की है.”

विरोध के कारण

इस प्रस्ताव का सबसे ज़्यादा विरोध मौजूदा आदिवासी समूहों ने किया है

कई आदिवासी नेताओं ने कहा कि राज्य सरकार का यह दावा कि नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में सीटों में उनके हिस्से पर कोई असर नहीं पड़ेगा, गुमराह करने वाला है

छठी अनुसूची के तहत आने वाले पहाड़ी इलाके दीमा हसाओ के एक एक्टिविस्ट से नेता बने डैनियल लैंगथासा ने कहा कि हम पर असर कैसे नहीं पड़ेगा?

दिमासा जनजाति के लैंगथासा ने कहा कि प्रस्तावित आरक्षण उनके जैसे छोटे समूहों के खिलाफ है.

उन्होंने कहा, “हमें केंद्र सरकार की नौकरियों के लिए उन लोगों से मुकाबला करना होगा जो मैदानों में रहते हैं, जिनके पास अच्छी सड़कें, स्कूल और कॉलेज हैं, जो मुख्यधारा में शामिल हो गए हैं और जिनका सामाजिक दर्जा ऊंचा है.”

बोडो नेता और CCOTA के प्रमुख आदित्य खाकलारी ने इस बात पर सहमति जताई.

उन्होंने कहा, “हम सेंट्रल नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में ताई अहोम, सुतिया और कोच-राजबोंगशी समुदायों से पीछे रह जाएंगे क्योंकि वे ज़्यादा विकसित समुदाय हैं.”

दूसरे आदिवासी निवासियों ने छह समूहों के लिए ST दर्जे की मांग की वैधता पर सवाल उठाया.

कोकराझार के एक पत्रकार प्रीतम ब्रह्मा चौधरी ने मीडिया को बताया, “ये वे समुदाय थे जिन्होंने कभी मूल आदिवासी लोगों को ‘अछूत’ माना था. जो अगर कोई आदिवासी उनके घर में आ जाता था तो अपने घरों को शुद्ध करते थे. वे हमें नीचा देखते थे, हमारी संस्कृति और खाने का मज़ाक उड़ाते थे. अब वे आदिवासी नाम पहनना चाहते हैं क्योंकि यह उनके राजनीतिक और आर्थिक फायदे के लिए सही है. यह न सिर्फ पाखंड है बल्कि न्याय के विचार का भी अपमान है.”

वहीं दिसपुर के सीनियर सरकारी अधिकारी ने माना कि सभी छह ग्रुप ST लिस्ट में शामिल होने के क्राइटेरिया को पूरा नहीं करते हैं.

अधिकारी ने कहा, “अगर आप पांच क्राइटेरिया देखें – पुराने लक्षण, खास संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, आम समुदाय से संपर्क में झिझक और पिछड़ापन तो कुछ समूह इन शर्तों को पूरा नहीं करते हैं.”

वहीं लैंगथासा ने आरोप लगाया कि इस फैसले के पीछे बीजेपी के चुनावी फायदे थे. उन्होंने कहा, “सरकार इस मुद्दे का इस्तेमाल वोट बैंक बनाने और छोटी जनजातियों की बलि देने के लिए कर रही है. इससे अशांति फैल रही है.”

किसे फायदा होगा?

हालांकि इस रिपोर्ट का आंदोलनकारी समुदायों ने बड़े पैमाने पर स्वागत किया है लेकिन हाशिए पर पड़े लोगों को इससे होने वाले फायदों को लेकर काफी संदेह है.

TISS के सोशल साइंटिस्ट रामावथ ने बताया कि “साफ़ मानदंडों, पारदर्शी डेटा और समुदायों के साथ सार्थक बातचीत के बिना, सब-क्लासिफिकेशन रिर्जवेशन फ्रेमवर्क को जटिल बना सकता है और सबसे हाशिए पर पड़े समूहों के लिए पहुंच में सुधार किए बिना नए विवाद पैदा कर सकता है.”

वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने इस चुनौती को स्वीकार किया. उन्होंने कहा कि छह समुदायों में से चाय बागान समुदाय सबसे पिछड़े हैं.

अधिकारी ने कहा, “अगर उन्हें ST (घाटी) का दर्जा दिया जाता है और अहोम जैसे उन्नत समूहों के साथ शामिल किया जाता है, तो यह बहुत साफ़ है कि सबसे ज़्यादा फ़ायदा किसे मिलेगा.”

इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि असम टी ट्राइब्स स्टूडेंट्स एसोसिएशन, जो चाय बागान की जनजातियों और आदिवासी समूहों के हितों का प्रतिनिधित्व करता है.

उन्होंने कहा कि वे मंत्रियों की रिपोर्ट से संतुष्ट नहीं हैं.

एसोसिएशन के प्रमुख जगदीश बोराईक ने सवाल उठाया कि चाय बागान की जनजातियों को अहोम और सुतिया जैसी जातियों के साथ एक ही कैटेगरी में क्यों शामिल किया जा रहा है, जो उनसे ज़्यादा बेहतर स्थिति में हैं. हम अहोम लोगों से मुकाबला नहीं कर सकते.

उन्होंने यह भी बताया कि मंत्री की रिपोर्ट में यह साफ नहीं है कि कितनी चाय बागान की जनजातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलेगा.

असम में 96 समुदायों को चाय जनजाति के रूप में क्लासिफाई किया गया है.

बोराईक ने कहा, “हम चाहते हैं कि सभी चाय जनजातियों को एसटी के रूप में मान्यता दी जाए क्योंकि हम आदिवासी दर्जे के लिए सभी क्राइटेरिया पूरे करते हैं.”

चाय जनजातियों और आदिवासी समूहों को उनके मूल राज्यों ओडिशा, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता प्राप्त है.

जहां से उन्हें 1800 के दशक की शुरुआत में अंग्रेजों द्वारा असम लाया गया था. असम में करीब 1,000 एस्टेट में फैली चाय बागान समुदाय चुनावी नतीजों में अहम भूमिका निभाती है.

हालांकि, मंत्रियों के समूह ने कहा है कि कुछ अहम सवाल अभी भी अनसुलझे हैं, जैसे कि चाय जनजाति समुदायों में से कितने को अनुसूचित जनजाति, कितने को अनुसूचित जाति के रूप में क्लासिफाई किया जाएगा और बाकी समुदायों का स्टेटस क्या होगा.

चुनावी असर

नए आदिवासी कोटे का चुनावी राजनीति पर भी असर पड़ेगा. अभी असम में अनुसूचित जनजाति समूहों के लिए दो लोकसभा सीटें आरक्षित हैं. एक मैदानी और एक पहाड़ी जनजातियों के लिए…इसके अलावा 126 सदस्यों वाली विधानसभा में 19 सीटें भी आरक्षित हैं.

रिपोर्ट में एसटी (घाटी) समूहों के लिए और सीटें आरक्षित करने के प्रस्ताव से और ज़्यादा बेचैनी बढ़ गई है.

बोडो नेता खाकलारी ने कहा, “हमें डर है कि अगर अगले परिसीमन में एसटी (घाटी) सीटों की संख्या बढ़ती है तो आबादी के हिसाब से मौजूदा अनुसूचित जनजाति (मैदानी) सीटें कम हो सकती हैं.”

खाकलारी ने बताया, “मौजूदा जनजातियों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व में कमी के डर को कम करने के लिए मंत्रियों की रिपोर्ट में प्रस्ताव दिया गया है कि छठी अनुसूची वाले इलाकों में पड़ने वाली दो लोकसभा सीटें, कोकराझार और दीफू, संवैधानिक संशोधन के ज़रिए मौजूदा अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थायी रूप से आरक्षित कर दी जाएं. लेकिन इसमें विधानसभा सीटों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है.”

दूसरे आदिवासी निवासियों ने बताया कि बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल और राभा ऑटोनॉमस काउंसिल के इलाकों में कोच राजबोंगशियों को अनुसूचित जनजाति (मैदानी) का दर्जा देना भी एक मुश्किल मुद्दा है.

कोच राजबोंगशी, जिन्हें मेघालय में अनुसूचित जनजाति और पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जाति माना जाता है, ज़्यादातर राज्य के पश्चिमी हिस्से में रहते हैं और कई लोग चिरांग और कोकराझार के दो बोडोलैंड ज़िलों में रहते हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक, असम में कोच-राजबंशी समुदाय की आबादी लगभग 4.6 लाख है और वे धुबरी, गोलपारा और बोंगाईगांव जिलों में रहते हैं.

बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन पर काम कर रहे एक पॉलिटिकल साइंस रिसर्चर ने कहा, “बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल और राभा हासोंग ऑटोनॉमस काउंसिल के तहत आने वाले इलाकों में कोच-राजबंशियों को ST (मैदानी) दर्जा देने की कोई भी कोशिश बोडो और राभा लोगों को उनकी मुश्किल से हासिल की गई राजनीतिक स्वायत्तता के बारे में असुरक्षित महसूस कराएगी.”

फिर भी उन्होंने कहा कि BJP चुनाव से पहले इस रिपोर्ट का फायदा उठाने की कोशिश करेगी.

उन्होंने कहा, “विभिन्न जातीय समुदायों को बांटना और उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करना उनके लिए फायदेमंद होता है. इससे उनके लिए अलग-अलग समुदायों की आकांक्षाओं को मैनेज करना आसान हो जाता है, बजाय इसके कि उन्हें उनके बीच एकजुटता से निपटना पड़े.”

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