HomeLaw & Rightsसुप्रीम कोर्ट का फैसला आदिवासी महिलाओं को भूमि अधिकार दिला पाएगा?

सुप्रीम कोर्ट का फैसला आदिवासी महिलाओं को भूमि अधिकार दिला पाएगा?

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक, अब आदिवासी महिलाओं को उनकी पैतृक भूमि पर समान अधिकार मिलेगा. यह निर्णय आदिवासी समाज में पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी सोच और संपत्ति के अधिकारों में जेंडर आधारित भेदभाव या लैंगिक असमानता को सीधे तौर पर चुनौती देता है. महिलाएं अब सिर्फ परिवार की देखभाल करने वाली नहीं, बल्कि भूमि और संसाधनों की कानूनी मालिक भी मानी जाएंगी.

आदिवासी समाज में महिलाओं की स्थिति पर नज़र डालते हैं तो यह साफ पता चलता है कि कानूनी समानता और वास्तविक समानता के बीच एक लंबा फासला है.

खासकर संपत्ति के अधिकार के मामले में आदिवासी महिलाएं अक्सर सामुदायिक परंपराओं के नाम पर वंचित कर दी जाती हैं.

समाज और परिवार, दोनों ही जगह पर यह मान लिया जाता है कि संपत्ति का अधिकार केवल पुरुषों का ही अधिकार है.

लेकिन इसी अन्याय के खिलाफ छत्तीसगढ़ के गोंड समुदाय की एक महिला ने साहसी आवाज़ उठाई.

यह आवाज़ देश के सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंची और 17 जुलाई, 2025 को कोर्ट ने इस मामले में एक अहम फैसला सुनाया और आदिवासी महिलाओं को उनकी पैतृक भूमि पर समान अधिकार दिया.

क्या है पूरा मामला?

यह मामला गोंड आदिवासी समुदाय की एक मृत महिला के कानूनी उत्तराधिकारियों से जुड़े विवाद से शुरू हुआ था. वह अपने नाना की पैतृक संपत्ति में बराबर का हिस्सा चाहती थी.

लेकिन उसके भाइयों ने आदिवासी रीति-रिवाजों का हवाला देते हुए दावे का विरोध किया, जिनमें महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित रखा गया था.

साल 1994 में जब इस महिला ने अपने अधिकार के लिए कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, तब शायद उन्हें भी यह अंदाज़ा नहीं था कि उनकी यह कानूनी लड़ाई एक दिन देश की लाखों आदिवासी महिलाओं के लिए रास्ता बनाएगी.

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, यह मामला साल 1992 में उनके उत्तराधिकारियों रामचरण और अन्य परिजनों ने मिलकर निचली अदालत या स्थानीय अदालत में दायर किया था.

लेकिन अदालत ने इस मामले को इस आधार पर खारिज कर दिया यह कहकर कि गोंड समुदाय की परंपरा के अनुसार बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं दिया जाता है. इसके साथ ही परिवार यह भी साबित नहीं कर पाया कि वे हिंदू धर्म की मान्यता प्राप्त उत्तराधिकार प्रथाओं का पालन करते हैं, जिनमें बेटियों को संपत्ति में अधिकार प्राप्त होता है.

साल दर साल निचली अदालत के निर्णय को ज्यों का त्यों बरकरार रखा गया. साल 2009 में यह मामला छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में पहुंचा लेकिन वहां भी कोई सुनवाई नहीं हुई.

लेकिन जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा तो 17 जुलाई 2025 को कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि आदिवासी समुदाय की महिलाओं  को भी अपने परिवार की पैतृक संपत्ति में समान अधिकार है.

कोर्ट ने छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें 2022 में अपीलकर्ता को उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करने के लिए किसी विशेष प्रथागत कानून के अभाव का हवाला दिया गया था.

इस फैसले में संविधान के अनुच्छेद 14 का हवाला दिया, जो कानून के सामने समानता की गारंटी देता है, और अनुच्छेद 15(1) जिसमें कहा गया है कि राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा.

सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला केवल एक महिला की कानूनी जीत नहीं है बल्कि लाखों आदिवासी महिलाओं के लिए समानता और न्याय की दिशा में एक निर्णायक कदम है.

साथ ही यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 14 पर आधारित था और इस मुद्दे को प्रथागत और व्यक्तिगत कानूनों से आगे बढ़कर मानवीय समानता तक ले जाता है.

इस फैसले का महत्व क्या है?

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आदिवासी महिलाओं के लिए बेहद अहम है क्योंकि जब किसी महिला के पास भूमि का अधिकार नहीं होता है, तब महिलाओं को कई बार आर्थिक हिंसा का सामना करना पड़ता है. 

रिसर्च गेट के एक अध्य्यन के मुताबिक़, असम के बोडोलैंड क्षेत्र में यह देखा गया कि महिलाओं को जमीन या सम्पति का अधिकार न मिलने से आदिवासी परिवारों के रोजगार और बच्चों की पढ़ाई पर भी असर पड़ता है.

यह अध्ययन तीन आदिवासी समुदायों बोडो, राभा और गारो के 384 परिवारों पर किया गया था.

इसमें पाया गया कि 11.46 फीसदी आदिवासी समुदाय के लोग पूरी तरह से भूमिहीन हैं यानी उनके पास कोई ज़मीन नहीं है और जिनके पास है वहां ज़मीन पर पुरुषों का अधिकार ज़्यादा है, उनके पास करीब 64.32 फीसदी ज़मीन है. जबकि महिलाओं के पास केवल 4.68 फीसदी ज़मीन का अधिकार है.

ज़्यादातर महिलाएं ज़मीन की मालिक नहीं होतीं, जिससे उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत होने में मुश्किल होती है.

आदिवासी महिलाओं की राह आसान नहीं

लैंगिक न्याय को हर समुदाय तक पहुंचाने के लिए इस तरह के व्यापक सिद्धांत की जरूरत है क्योंकि न तो व्यक्तिगत कानून और न ही आदिवासी प्रथागत कानून लैंगिक और वर्गीय दृष्टिकोण से न्यायसंगत हैं.

हालांकि, असमानता की मात्रा समुदाय के अनुसार अलग-अलग होती है.

उदाहरण के लिए, पूर्वोत्तर सामाजिक अनुसंधान केंद्र (NESRC) द्वारा सात पूर्वोत्तर राज्यों (अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नागालैंड और त्रिपुरा) की 14 जनजातियों (प्रत्येक राज्य में दो) पर किए गए एक अध्ययन, अन्य अध्ययनों और अनुभवों के साथ, यह दर्शाता है कि आदिवासी महिलाओं को अपनी जाति की समकक्षों की तुलना में बेहतर सामाजिक दर्जा प्राप्त है लेकिन वे पुरुषों के बराबर नहीं हैं.

जब तक ज़मीन का प्रबंधन सामुदायिक स्तर पर होता है, तब तक परिवार और उत्पादन में उनकी कुछ शक्ति होती है लेकिन फिर भी समाज पर पुरुषों का ही नियंत्रण होता है.

मातृसत्तात्मक जनजातियों में भी वंश और उत्तराधिकार महिलाओं के माध्यम से होता है लेकिन उनके समाज पितृसत्तात्मक होते हैं.

इसलिए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को जनजातीय प्रथागत कानूनों पर भी लागू करना होगा, ताकि पुरुषों और महिलाओं के समान अधिकारों के पक्ष में उनमें सुधार किया जा सके.

यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पूर्वोत्तर की जनजातियों पर पूरी तरह लागू नहीं किया जा सकता. क्योंकि मध्य-भारतीय (ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान) और पूर्वोत्तर की जनजातियों के बीच भूमि और प्रथागत कानून की भूमिका में अंतर है.

मध्य भारतीय जनजातियों ने अपनी पहचान अपने वर्तमान आवास की भूमि, जंगलों और जल निकायों के इर्द-गिर्द बनाई है.

जल, जंगल और ज़मीन को लेकर मध्य-भारतीय जनजातियों के संघर्ष अभी भी जारी हैं. लेकिन हाल के वर्षों में ही उनके संघर्षों में उर्दू शब्द जस्बत (पहचान) जोड़ा गया है, जो उन्हें सामाजिक पहचान तक ले गया है.

उनके प्रथागत कानून उनकी ज़मीन, जंगल और पहचान के अधीन है और उनकी सुरक्षा और समान वितरण सुनिश्चित करने के लिए है.

वहीं पूर्वोत्तर में स्थिति काफ़ी अलग है. मेघालय की खासी जनजातियां शायद इस क्षेत्र की एकमात्र ऐसी जनजाति हैं जिनके पवित्र उपवन और उत्पत्ति का मिथक, दोनों ही उनके वर्तमान निवास स्थान से जुड़े हैं.

इस क्षेत्र की ज्यादातर अन्य जनजातियां दक्षिण-पूर्व एशिया के चीनी-तिब्बती या खमेर क्षेत्रों से उत्पन्न हुईं और अपने वर्तमान निवास स्थान में स्थानांतरित हो गईं.

जिसके परिणामस्वरूप, गांव का द्वार, प्रथागत कानून और गांव के जंगल और पवित्र उपवन, न कि कुल की भूमि, उनकी पहचान का केंद्र बन गए.

1947 तक ज़्यादातर पहाड़ी जनजातियां अपने संसाधनों का प्रबंधन स्वायत्तता से, अपने गांव और कुल के स्वामित्व-आधारित प्रथागत कानूनों के तहत करती थीं.

लेकिन आधुनिक’ व्यक्ति-आधारित औपचारिक कानून राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर वाणिज्यिक बागानों और ‘राष्ट्रीय विकास’ जैसे बांधों, परिवहन, सैन्य परियोजनाओं के माध्यम से किया जाता है, जो अपनी समुदाय-केंद्रित प्रबंधन प्रणाली में व्यक्तिगत स्वामित्व वाली भूमि पर निर्भर करते हैं.

वहीं रबर, कॉफी, चाय, पाम ऑयल और अन्य वाणिज्यिक बागानों में सब्सिडी और लोन के लिए एक शर्त परिवार के मुखिया, जिसे पुरुष समझा जाता है… उसके नाम पर व्यक्तिगत स्वामित्व वाली भूमि है.

जब राज्य विकास परियोजनाओं के लिए भूमि का अधिग्रहण करता है, तो वह पुरुष को मुआवजा देता है. यहां तक कि मेघालय की गारो, खासी और जयंतिया जैसी मातृसत्तात्मक जनजातियों में भी.

अध्ययन और अनुभव यह भी दर्शाते हैं कि समुदाय को इसके लिए तैयार किए बिना इस तरह के आधुनिकीकरण को लागू करने से समतावादी समाजों में मजबूत पितृसत्ता और वर्ग गठन होता है, जो परंपरागत रूप से महिलाओं को पुरुषों के बराबर बनाए बिना उन्हें अपेक्षाकृत उच्च सामाजिक दर्जा प्रदान करता है.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत ही परिवर्तनों का आधार होना चाहिए लेकिन समुदायों को अपने पारंपरिक कानूनों में सुधार करने में मदद करने के लिए एक सामाजिक प्रक्रिया की जरूरत है.

बाहर से किसी भी तरह के थोपे जाने का प्रतिरोध होना तय है. जैसा कि नागालैंड में शहरी स्थानीय निकायों के चुनावों में महिला आरक्षण के विरोध जैसी घटनाओं में देखा गया है.

अरुणाचल प्रदेश की विधानसभा ने जनवरी 2004 में एक प्रस्ताव पारित किया था कि राज्य को आदिवासी प्रथागत कानूनों के अंतर्गत लाया जाए.

महिला संगठनों ने इस शर्त पर सहमति व्यक्त की कि प्रस्ताव को केंद्र सरकार को भेजने से पहले, महिलाओं को समान अधिकार देने के लिए प्रथागत कानूनों में संशोधन किया जाए.

लेकिन बड़ी संख्या में पुरुषों के विरोध के कारण यह प्रस्ताव अभी भी यहीं अटका हुआ है.

ये सभी उदाहरण यही दर्शाते हैं कि सामाजिक समानता केवल कानूनी बदलावों से हासिल नहीं की जा सकती. अगर ऐसा संभव होता तो दहेज, बाल श्रम, बंधुआ मजदूरी और बाल विवाह कई दशक पहले ही खत्म हो गए होते क्योंकि कानून इन पर प्रतिबंध लगाता है.

कानूनी बदलावों की ज़रूरत है लेकिन उन्हें साकार करने के लिए सामाजिक वास्तविकता को समझना होगा और समानता के पक्ष में वकालत के ज़रिए सुधार करना होगा.

पूर्वोत्तर में प्रथागत क़ानून यानि कस्टमरी लॉ आदिवासी पहचान का अभिन्न अंग हैं और इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.

इसमें सुधार किया जाना चाहिए, न कि इसे संहिताबद्ध किया जाना चाहिए.  

इसके अलावा, लैंगिक और वर्गीय समानता को बढ़ावा देने के लिए प्रथागत कानूनों में सुधार किया जाना चाहिए ताकि असमानताओं को बढ़ाने वाली प्रक्रियाओं का मुकाबला किया जा सके.

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