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पिथोरा आर्ट (Pithora Art): भील, भीलाला और राठवा की आस्था से जुड़ी भित्ती चित्रकला

गुजरात और मध्य प्रदेश में राठवा, भील और भिलाला समुदायों की सामाजिक-धार्मिक प्रथाओं के केंद्र में रही इस भित्ति चित्रकला यानि वॉल पेंटिंग को आजकल पिथोरा आर्ट या पिठोरा पेंटिंग्स  के नाम से जाना जाता है. 

बाबा पिठोरा या पिथोरा और अन्य देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए गुजरात और मध्य प्रदेश के भील, भीलाला और राठवा परिवार अपने घर की दीवार पर उनके चित्र बनाते हैं.

पिठोरा पेंटिंग (Pithora Painting) के लिए तीन दीवारें तैयार की जाती हैं. सामने वाली दिवार की लंबाई साईड की दो दिवारों से ज़्यादा होती है. इन तीनों ही दिवारों को सफ़ेद रंग से पोता जाता है और उस पर एक बॉर्डर तैयार किया जाता है.

उसके बाद उस सीमा के भीतर पिठोरा बाबा, उनकी पत्नी रानी पिठोरा और रानी काजल और अन्य देवी देवताओं के चित्र बनाए जाते हैं. यह दरअसल बाबा पिठोरा का विवाह का जुलूस होता है. 

गुजरात और मध्य प्रदेश में राठवा, भील और भिलाला समुदायों की सामाजिक-धार्मिक प्रथाओं के केंद्र में रही इस भित्ति चित्रकला यानि वॉल पेंटिंग को आजकल पिथोरा आर्ट या पिठोरा पेंटिंग्स  के नाम से जाना जाता है. 

गुजरात के पूर्वी हिस्से के पंचमहल और छोटा उदयपुर जिलों में रहने वाले राठवा समुदाय और मध्य प्रदेश के अलीराजपुर, झाबुआ, धार और आसपास के ज़िलों में बाबा पिठोरा या पिथोरादेव  को माना जाता है.

पिथोरा पेंटिंग का इतिहास और उत्पत्ति, साथ ही इसके प्रभाव के बारे में कुछ ठोस कहना संभव नहीं है. इतिहासकारों में इस बारे में कई तरह की राय मिलती है.

बाबा पिठोरा की पूजा यानि पाणगा में 9 दिन तक गायन होता है. यह पूरा अनुष्ठान बड़वा के नेतृत्व में चलता है. बड़वा यानि वह व्यक्ति जो देवताओं का आह्वान करता है और देवता जिस पर सवार होते हैं. यह व्यक्ति इंसानों और देवों के बीच संदेश वाहक का काम करता है. 

मध्य प्रदेश कठ्टीवाड़ा में भिलाला समुदाय के लोग बाबा पिठोरा से जुड़े अनुष्ठान को पाणगा कहा जाता है. इस अनुष्ठान में पिठोरा, बाबा इंद और अन्य देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए तरह तरह के उपक्रम होते हैं.

जब परिवार कठिन परिस्थितियों से गुजरता है तो इसका कराण अक्सर देवी-देवताओं का नाराज़ होना माना जाता है. कठिन परिस्थितियों में परिवार के किसी सदस्य के बीमार होना, पशुओं की मौत या फिर किसी अन्य कारण से परिवार के वित्तीय पेरशानी में पड़ जाना हो सकता है.

जब परिवार पर कोई मुसीबत आती है तो परिवार पिठोरा देव को प्रसन्न करने का जतन करता है. इसके अलावा परिवार की कोई मन्नत पूरी होने पर भी पिठोरा देव के साथ अन्य देवों को पूजा जाता है. 

बाबा पिठोरा और अन्य देवों के चित्रों के अलावा इस पेंटिंग में आदिवासी परिवेश का भी चित्रण किया जाता है. जैसे जैसे आदिवासी परिवेश बदला है बाबा पिठोरा से जुड़ी पेंटिग भी बदली है.

बेशक अभी भी इस पेंटिंग के केंद्र में पिठोर देव और प्रकृति की चिन्ह ही रहते हैं, लेकिन अब यातायात और संचार के आधुनिक साधनों को भी पेंटिंग में दर्शाया जाता है.  कला के कुछ जानकार कहते हैं कि आदिवासी समाज पिठोरा पेंटिंग में अमूर्त तरीके से यानि abstract तरीके से अपने परिवेश और आस्था का प्रदर्शन करता है.

पिठोरा देव की पेंटिंग दिवाली के आस-पास बननी शुरु होती हैं और मई जून तक इस तरह के अनुष्ठान आयोजित होते हैं. पिठोरा चित्र बनाने के लिए पुरूष चित्रकार आते हैं जिन्हे पेंटिंग बनाने के लिए एक निश्चित समय सीमा बड़वा के द्वारा दी जाती है. इन चित्रों में घोड़ों और देवों के अलावा झापो यानि मुख्य द्वार पर शेर की आकृति ज़रूरी मिलती है. 

पिठोरा देव से जुड़ा 10 दिन का आयोजन होता है. इसकी शुरूआत में कम से कम 9 तरह के अनाज को अंकुरित होने के लिए टोकरियों में बोया जाता है. अंकुरित अनाज को ज्वारे कहा जाता है. ज्वारे डालने की रस्म में सांकेतिक हल चलाने की रस्म भी पूरी की जाती है.

पिथोरा पेंटिंग बनाने, मनाने और पवित्र करने की पूरी रस्म तक परिवार में स्त्री और पुरूष सभी की भूमिका और काम तय होते हैं. पिठोरा पूजा में बलि चढा़ने से ले कर अन्य गतिविधियां घर के पुरूष सदस्य ही संभालते हैं.

स्त्रियां घर के भीतर का काम संभालती हैं. इसमें भी विवाहित और अविविवाहित स्त्री की भूमिका और ज़िम्मेदारी अलग अलग बताई जाती है. 

जब तक घर में पिठोरा का अनुष्ठान चलता है तब तक घर की महिलाओं और पुरूषों को दैनिक जीवन में कई तरह की पांबदियों का पालन करना पड़ता है. 

पिठोरा के अनुष्ठान के अंतिम दिन आस-पास के गांवों के लोग, दोस्त और रिश्तेदार सभी जमा होते हैं और यह अनुष्ठान एक छोटे मोटे मेले में तब्दील हो जाता है.

आदिवासी परंपरा के अनुसार जिस परिवार के यहां अनुष्ठान है वह सभी के खाने का इंतज़ाम करता है. लेकिन इस मेले में शामिल सभी लोग अपनी इच्छा के अनुसार मुर्गा या बकरा और शराब लेकर आते हैं. इसके साथ ही ढोल-मांदल भी लाये जाते हैं. 

पिछले कुछ दशकों में, पिथोरा पेंटिंग में कपड़े, कागज, ऐक्रेलिक और पोस्टर रंगों जैसी सामग्रियों का उपयोग शामिल हो गया है. 1980 के दशक के बाद से, कई व्यक्तिगत कलाकार प्रमुखता से उभरे हैं.

पिथोरा पेंटिंग संग्रहालयों, पर्यटकों और कला संग्रह करने वालों सहित व्यापक दर्शकों के लिए भी बनाई जा रही हैं. कई मामलों में ऐसे काम पूरी पेंटिंग के बजाय केवल कुछ खंडों और दृश्यों को प्रकट करते हैं. 

पिथोरा पेंटिंग्स के बारे में कई बार विवाद भी देखे गए हैं. कई बार आदिवासी समुदायों की तरफ से पिथोरा देव से जुड़े आधे अधूरे चित्रों को लेकर आपत्ति दर्ज कराई जाती है.

आदिवासी समुदायों में एक ऐसा तबका भी है जो यह मानता है कि पिथोरा कला दरअसल उनकी धार्मिक आस्था का केंद्र है और उसका व्यवसायिक इस्तेमाल ठीक नहीं है.

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