HomeMain Bhi Bharatमध्य प्रदेश: आदिवासी शारीरिक और श्रम शोषण के चक्र में फंसा

मध्य प्रदेश: आदिवासी शारीरिक और श्रम शोषण के चक्र में फंसा

मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार ज़ोरो पर है. वैसे तो राज्य में आदिवासी मतदाता हमेशा अहमियत रखता ही था. लेकिन इस चुनाव में उसकी चर्चा कुछ ज़्यादा ही हो रही है. हमने मध्य प्रदेश के कुछ ज़िलों का दौरा किया और यह समझने की कोशिश की है कि आदिवासी के हालात क्या हैं. मंडाल के बाद इस सिलसिले में हम हाल ही में अलीराजपुर से लौटे हैं. देखिए यह रिपोर्ट और खुद ही अंदाज़ा लगाएं कि ज़मीन पर हो क्या रहा है.

मध्य प्रदेश के अलीराजपुर ज़िले की पहाड़ियां बारिश के बाद हरी जाती हैं. यहां कई झरने और जल धाराएं बहने लगती हैं. खेतों में फ़सल नज़र आने लगती है. कुल मिला कर पूरी फिज़ा बेहद खूबसूरत हो जाती है.

लेकिन इन पहाड़ियों पर बने झोपड़ों में कोई हलचल नज़र नहीं आती है. एक ख़ामोशी है जो कभी कभी तंग करती है……… इन्हीं पहाड़ों पर गाय चराती रंपा हमें नज़र आई. पहाड़ी ढलानों पर रंपा कभी चुपचाप बैठ जाती है….कभी खुद से ही बात करती है और कभी नाचने लगती है….उससे बातचीत कैमरे पर रिकॉर्ड नहीं हुई, लेकिन उससे जो बातचीत हुई थी उससे इन खाली पड़े झोपड़ों और इन पहाड़ों पर बस गई ख़ामोशी की वजह समझ में आती है…और समझ में आते हैं अलिराजपुर के आदिवासियों के हालात….रंपा से हमने पूछा था कि इस समय तो उसको स्कूल में होना चाहिए था. इस पर उसने मासूमियत से हम से पूछा था “अगर मैं स्कूल चली जाती तो ग्वाल कौन जाता”. आगे की बातचीत में उसने बताया था कि उसके माता-पिता और भाई गुजरात में खेती के काम में गए हैं. घर पर उसके दादा-दादी और वो है. उसका काम घर की गाय चराना है. 

अलीराजपुर के आदिवासियों के हालात पर बोलते हुए सामाजिक कार्यकर्ता नितेश अलावा कहते हैं,”अलीराजपुर को हम लोग दो-तीन क्षेत्र में बांट सकते हैं. वॉलपुर के आगे का नर्मदा पट्टी का इलाका है जिसे सबसे ज़्यादा बैकवर्ड माना जाता है. जबकि वह सांस्कृतिक रूप से सबसे संपन्न इलाका है. वहां डूब क्षेत्र है लेकिन आदिवासी किसान को पानी नहीं मिल रहा है. जबकि बड़े किसानों और फैक्ट्रियों को पानी दिया जा रहा है. वहां का आदिवासी पलायन करता है. घर में बुज़ुर्गों को छोड़ कर गुजरात चला जाता है. औरतें पानी ढोती हैं. यहा एक सिविल अस्पताल है उसमें एक ट्रॉमा सेंटर है लेकिन काम नहीं करता है. यहां के 75 प्रतिशत केस गुजरात रेफ़र हो जाते हैं. नॉर्मल डिलिवरी तक नहीं हो पा रही है.”

नर्मदा नदी के उत्तर में विंध्या पर्वत माला की पहाड़ियों पर ज़िला अलीराजपुर बसा है. मध्यप्रदेश का यह ज़िला करीब 3182 वर्ग किलोमीटर में फैला है.

2011 की जनगणना के अनुसार यहां की कुल आबादी करीब 728677 बताई गई थी. यहां की कुल जनसंख्या में से करीब 90 प्रतिशत भाग आदिवासियों का है. इस ज़िले में कुछ 5 तहसील हैं और यहां दो विधान सभा सीटें हैं जिनमें एक अलीराजपुर और दूसरी जोबट है. यहां के लोग जीने के लिए परंपरागत तौर पर खेती के अलावा जंगलों पर काफ़ी निर्भर थे. ले

किन आज की तारीख में बात करें तो यह ज़िला देश के कई राज्यों में खेत मज़दूर और भवन निर्माण के लिए मज़दूर सप्लाई करने के लिए जाना जाता है. 

इस बारे में बात करते हुए श्रमिक नेता शंकर तड़वाल कहते हैं, “1985-86 तक जब कोई मज़दूरी करने बाहर जाता था तो लोग हैरान होते थे. लेकिन जैसे जैसे समय बीता जंगल कटते गए, यूरिया और दूसरे खाद इस्तेमाल होने लगे, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीज आने शुरू हुए, पहले तो आदिवासी के अपने बीज थे, खुद निंदाई गुड़ाई कर खेती करता था. जंगल उत्पादों पर भी निर्भर था. जंगल भी उत्पादों से भरपूर था. फिर आदिवासी का उत्पादन कम होता चला गया. फिर परिवार से एक आदमी मज़दूरी के लिए बाहर जाने लगा. उसके बाद पूरा-पूरा परिवार बुजुर्गों को पीछे छोड़कर मज़दूरी करने चला जाता. हमारे यहां से कर्नाटक तक मज़दूर खेती और भवन निर्माण में काम करने जाते हैं. नर्मदा नहर का पानी आने के बाद गुजरात में पटेल बटाई पर खेती करवाते हैं. हमारे यहां से बड़ी तादाद में लोग वहां भाग्य खेती के लिए जाते हैं.”

अलीराज मुख्यालय पर मंगलवार को बाज़ार में सुबह सुबह बड़ी तादाद में आदिवासी लोग बैठे या टहलते नज़र आते हैं. ये लोग दूर-दराज के गांवों से सुबह सुबह यहां पर पहुंचते हैं. ये सभी आदिवासी महिला पुरुष unskilled labour यानि अकुशल मज़दूर हैं जो इस उम्मदी में यहां पहुंचते हैं कि कम से कम एक हफ़्ते के लिए उन्हें कोई ठेकदार काम पर रख लेगा.

कुछ लोगों को काम मिल जाता है, जिन्हें नहीं मिल पाता है वे मायूस इस उधेड़ बुन में घर लौटते हैं कि दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कैसे होगा. 

मध्यप्रदेश का आदिवासी बहुल अलीराजपुर देश के उन ज़िलों में शुमार है जो अति पिछड़े माने जाते हैं. यह पिछड़ापन विकास के हर पैमाने पर देखा जा सकता है. साक्षरता दर, स्वास्थ्य या रोज़गार यह ज़िला विकास के मपादंडों पर बेहद कमज़ोर है. 

MBB से बात करते हुए नितेश अलावा कहते हैं, “अलीराजपुर प्राकृतिक संसाधनों और सौंदर्य से भरपूर है. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार यहां के लिए बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है. नीति आयोग की 2021 की रिपोर्ट कहती है कि यह ज़िला देश का सर्वाधिक ग़रीब ज़िला है. यहां के आदिवासियों की जनसंख्या का करीब 71 प्रतिशत ग़रीबी रेखा के नीचे जीता है. लेकिन उन्हें ग़रीबी रेखा के नीचे जीने वाले लोगों के लिए मौजूद योजनाओं का लाभ नहीं मिलता है. लिटरेसी रेट 36.5 प्रतिशत है. यहां के स्कूलों की हालत आपने खुद ही देखी है. यहां कोई मेडिकल कॉलेज, कृषि कॉलेज या फिर लॉ कॉलेज नहीं है. यहां एक केंद्रीय विद्यालय मंजूर हुआ है तो उसके लिए ज़मीन भी उपलब्ध नहीं है.”

अलीराजपुर प्रशासन भी यह मानता है कि इस आदिवासी जिले में स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार से जुड़े मसले गंभीर हैं. लेकिन यहां के वरिष्ठ अधिकारी हालातों में सुधार का दावा करते हैं. उनका कहना है कि अब अलीराजपुर कम से कम देश का सबसे ग़रीब ज़िला नहीं कहा जा सकता है. 

MBB से कलेक्टर बात करतो हुए अभय अरविंद बेडेकर कहते हैं, ” अलीराजपुर आज देश का वह ज़िला है जिसमें ग़रीबी सबसे तेज़ी से कम हो रही है. लेकिन यह बात सच है कि यहां पर कई चुनौतियां मौजूद हैं. स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में चुनौती बड़ी हैं.”

मध्य प्रदेश के इस ज़िले में साक्षरता और शिक्षा के स्तर का मसला यहां से होने वाले पलायन का मसला काफी मजबूती से जुड़ा हुआ है. जब आदिवासी मज़दूर अपने बच्चों को लेकर रोज़ी रोटी के लिए पलायन करता है तो उसके बच्चे साथ जाते हैं. इन बच्चों का स्कूल तो छूट ही जाता है,  इन मज़दूरों के काम के स्थान पर ये बच्चे सुरक्षित माहौल में नहीं होते हैं. 

मध्य प्रदेश के ज़्यादातर आदिवासी बहुल ज़िलों से पलायन आदिवासी के जीने के लिए ज़रूरी है. लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि खेत मज़दूरी या फिर भवन निर्माण में काम करने वाले इन आदिवासी मज़दूरों को ना तो श्रम कानूनों की सुरक्षा मिल पाती है और ना ही सामजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं का लाभ ये उठा पाते हैं. कई बार हालात ये बन जाते हैं कि उन्हें काम करने के बाद मज़दूरी भी नहीं मिल पाती है. 

जब आदिवासी मज़दूर अपने गांव या ज़िला छोड़ कर मज़दूरी के लिए घर से निकलता है तो उसका पूरा परिवार कई तरह के ख़तरों से घिरा रहता है. उसका आर्थिक शोषण चिंता की एक बात है. लेकिन बच्चों और महिलाओं के शारीरिक शोषण का ख़तरा भी मंडराता रहता है. 

अलीराजपुर की कुल जनसंख्या का लगभग 90 प्रतिशत आदिवासी है. इस ज़िले में रहने वाले आदिवासियों को कई संवैधानिक और कानूनी सुरक्षा हासिल हैं.

यह क्षेत्र संविधान की अनुसूचि 5 के दायरे में है. इस दायरे में आने वाले आदिवासी क्षेत्रों के लोगों के संसाधनों और संस्कृति को बचाने के लिए विशेष प्रावधान हैं.

इसके अलावा अनुसूचि 5 के क्षेत्रों के विकास के लिए सरकार विशेष आर्थिक प्रावधान करती है. देश के बजट में अनुसूचित क्षेत्रों के विकास के बजट का प्रावधान किया जाता है. इतनी सुरक्षाओं के बावजूद अगर अलीराजपुर में आदिवासियों के जीने भर के संसाधान नहीं मिल रहे हैं तो मामला गंभीर है.

अलीराजपुर और अन्य आदिवासी इलाकों से इतनी बड़ी संख्या में पलायन की मजबूरी की एक वजह शायद मनरेगा यानि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी कानून के असफल हो जाना भी है. कई बार ऐसा लगता है कि मानों बड़े समुदायों और उद्योगों के दबाव में इस योजना को जान-बूझ कर सफल नहीं होने दिया गया है. 

आदिवासी इलाकों से निकले मज़दूर कई बार ऐसे कारखानों में काम करते हैं जहां ख़तरा ज़्यादा रहता है. 1998 से 2004 के बीच अलीराजपुर-झाबुआ और कई अन्य इलाकों से काम से लौटे मज़दूरों में रहस्यमयी बीमारी की ख़बरें रिपोर्ट हुईं. इनमें से कई मज़दूरों की मौत की ख़बरें भी छपी थीं. लेकिन इन ख़बरों को प्रशासन और सरकार ने नज़रअंदाज़ कर दिया. सब कुछ सामान्य चल रहा था. 

ख़तरनाक उद्योग में काम करने वाले मज़दूरों को इंसाफ़ दिलाना आसान नहीं था. करीब करीब 11 साल की लड़ाई के बाद इन परिवारों को कुछ मदद मिल सकी थी. 

मध्य प्रदेश में फ़िलहाल विधान सभा चुनाव का प्रचार ज़ोरों पर है, यहां पर 17 नवंबर को मतदान होगा. यहां पर सत्ताधारी पार्टी बीजेपी ने कई ऐसी योजनाएं शुरू की हैं जिनसे परिवारों को नकद पैसा मिल रहा है.

वहीं कांग्रेस पार्टी की तरफ से भी ऐसे वादे किये गए हैं जिनमें वर्तमान सरकार की तुलना में लाभ आधिक मिलेगा. इस तरह की राजनीतिक प्रतिस्पर्ध्दा में आम लोगों को थोड़ा बहुत आर्थिक लाभ तो ज़रूर मिलता है.

लेकिन अलीराजपुर के जो हालात हैं उन्हें बदलना इस तरह की योजनाओं के बस की बात नहीं है. बल्कि अलीराजपुर और आस-पास के आदिवासी बहुल ज़िलों में हालात बदलने के लिए आदिवासी के सशक्तिकरण के लिए बड़े नीतिगत फैसलों की ज़रूरत है. 

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