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बस्तर का आदिवासी मेला: मावली नारायणपुर का 800 साल पुराना देव मेला है

नारायणपुर के मावली मेला बस्तर के प्राचीन मेलों में सबसे बड़ा है. लेकिन इस मेले की परंपरा के बारे में कम ही लोगों को पता है. मैं भी भारत ने मावली मेला 2024 में जा कर इस मेले में आ रहे बदलाव और इतिहास को समझने की कोशिश की है. आप यह ग्राउंड रिपोर्ट लिंक पर क्लिक कर देखे सकते हैं.

नारायणपुर की मावली मंडई महाशिवरात्री के पहले बुधवार को भरती है. स्थानीय भाषा में मेले को मंडई कहा जाता है. मावली मंडई एक देव मेला है जिसमें गोंड आदिवासियों के देवी-देवताओं के प्रतीक डंगई, आंगा, डोली के साथ लोग आते हैं.

इन देवताओं को जो लोग लाते हैं वे सिरहा, पुजारी, गायता होते हैं. यहां मावली गुड़ी में सभी देवों का स्वागत किया जाता है. देव समागम स्थल पर नंगाड़ा बजता रहता है और देवता अपनी धन पर खेलते हैं, एक दूसरे से गले मिलते हैं. सिरहाओं को देवताओं की सवारी आती है और मावली माता की पूजा कर बलि दी जाती है. 

बुधवार सुबह फूलों की माला पहने देवता मंडई बिहरने यानि मेले की प्रक्रिमा करने निकलते हैं. प्रक्रिमा की एक व्यवस्था होती है. इसमें अलग अलग टोटम के हिसाब से देवी-देवता क्रमवार प्रक्रिमा के लिए निकलते हैं. मसलन सबसे आगे गढ़िया बाबा चलते हैं और उनके पीछे साकार देव रहते हैं.

जब यह यात्रा कोटगुड़नि माता के मंदिर पहुंचती है तो यहां से कोटगुड़नि माता भी यात्रा में शामिल हो जाती हैं. यहां से प्रक्रिमा की शुरुआत मानी जाती है. इसके बाद सभी देव मेले के दो चक्कर लगा कर देव आड़ मावली स्थल पर रूकते हैं. उसके बाद सभी देवता उल्टा फेरा लगा कर मावली गुड़ी पहुंचते हैं. जब देवों की यह प्रक्रिमा चल रही होती है उस दौरान मेले में और सभी गतिविधियां बंद कर दी जाती हैं. 

मावली मेला में दूर-दूर से देवता आते हैं. लेकिन यहां आने वाले देवता कौन कौन से होंगे यह तय होता है. जैसे आज के दौर में देश को राज्य या फिर ज़िलों या पंचायतों की व्यवस्था में बांटा गया है, वैसे ही बस्तर को आदिवासियों के देवताओं के आधार पर परगनों में बांटा जाता है.

यह एक आदिम काल से चली आ रही व्यवस्था बताई जाती है. इस परगना व्यवस्था के हिसाब से ही मंडई यानि मेले लगते हैं और उनमें देवता भाग लेते हैं.

मावली मेले में जो लोग दूर-दराज से आते हैं वे मेला स्थल के आस-पास अपने डेरे बना लेते हैं. अक्सर इन डेरों में शाम को लड़के लड़कियां नाचते हैं. इस नाच को कोकरेंग नृत्य कहते हैं. इस दौरान अक्सर गांवो की टोली बन जाती हैं और कमर में घुंघरु बांध कर नाचा जाता है.

इस नाच के दौरान गीत गाए जाते हैं जो अक्सर कोकरेंग पाटादेव की अराधना के गीत होते हैं. इन गीतों में देवों के बारे में ही बातें होती हैं.

मसलन वे किस टोटम या गांव के देवता हैं….आदि. मावली मेले से जुड़ी कई तरह की मान्यताएँ और धारणाएं मिलती हैं. इन मान्यताओं और धारणाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह मेला सैंकड़ों साल से अबूझमाड़ के आदिवासियों का बड़ा धार्मिक और सामाजिक आयोजन रहा है.

यह भी बताया जाता है कि मावली मेला एक समय में कम से कम 10 दिन का आयोजन होता था. इस मेले में भाग लेने के लिए अबूझ माड के आदिवासी कई दिन पहले ही अपने गांवों से चल पड़ते थे.

अब यह मेला सप्ताह भर ही चलता है. इसके अलावा अब माड़ के आदिवासी यहां उतनी बड़ी संख्या में नहीं आते हैं. इस मेले में कई बदलाव आए हैं. यहां के जानकार लोग बताते हैं कि इस मेले का स्थान भी बदला है.

इस बारे में जानकारी मिलती है जहां आजकल यह मेला भरता है वहां यह मेला साल 1942 में शुरू हुआ. इसके अलावा इस मेले में पहुंचने वाले देवता पहले बुधवार सुबह पहुंचते थे. लेकिन अब देवताओं को भी मंगलवार शाम को ही बुला लिया जाता है.

स्थान और कुछ व्यवस्थाओं के अलावा भी इस मेले में कई बदलाव आए हैं. मावली मेला आज भी नारायणपुर का सबसे बड़ा आयोजन है. इस मेले में बड़ी संख्या में लोग आते हैं.

ज़ाहिर है जहां लोग आते हैं वहां पर राजनीतिक दल और राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखने वाले भी पहुंच ही जाते हैं. एक वक्त में मावली मेला पूरी तरह से आदिवासियों का देव मेला था.

जहां पर लोग देवताओं को लाने के साथ साथ आनंद करने आते थे. इसके अलावा वे अपनी ज़रूरत की चीजें ख़ास तौर पर कपड़ा और नमक खरीदने आते थे. कुछ लोगों का कहना है कि अब यह मेला एक सरकारी आयोजन ज़्यादा बनता जा रहा है. इस मेले में अब आदिवासियों की दखल कम हो रही है.

मावली मेले में वक्त के साथ आ रहे बदलावों के बारे में आयोजन से जुड़े लोगों का कहना है कि कुछ बदलाव मजबूरी हैं और कुछ बदलाव ज़रूरी हैं. उनके अनुसार मावली मेला आदिवासियों का इस इलाके का सबसे बड़ा मेला है.

इसलिए यहां पर सुरक्षा और सुविधा दोनों ही होने चाहिएं. इसके साथ ही यह ध्यान रखना चाहिए कि 1737 में शुरू हुए इस मेले में आने वाले लोगों की ज़रूरत और वेशभूषा सबकुछ बदला है.

लेकिन उनका दावा है कि कुछ ज़रूरी बदलावों के साथ भी मावली मंडई देव मेला ही है. उसके मौलिक स्वरूप और परंपरा से कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है.

मावली मेले को माडिया और मुरिया जनजाति समूहों से ही जोड़ा जाता है. लेकिन इस मंडई में धुरवा, धाकड़, हल्बा, तेलगा के अलावा अन्य समूहों के लोग भी उतने ही उत्साह से शामिल होते हैं.

इस मेले में देवी-देवताओं को बकरे, मुर्गे, कबूतर, नारियल आदि चढ़ाए जाते हैं. मेले के दौरान आदिवासी युवक-युवतियां ताड़ी और महुआ पीकर मस्ती में नाचते-गाते हैं.

इस मेले में यह अहसास होता है कि दुर्गम इलाकों में बेहद कम सुविधाओं के साथ जीने वाले आदिवासी उत्सव और त्योहारों में जी भर आनंद करता है. इस मामले में स्त्री या पुरुष का कोई भेद या पाबंदी नहीं रहती है. मावली मेला आदिवासी युवक-युवतियों को अपने जीवन साथी चुनने का अवसर भी देता है. 

मावली मेला बेशक एक देव मेला होता है, लेकिन यहां पर आमोद-प्रमोद के साधन भी उपलब्ध रहते हैं. इसके अलावा इस मेले में लोग ज़रूरी चीज़ों की ख़रीदारी भी करते हैं.

आमतौर पर घर या रसोई में रोज़मर्रा के काम आने वाली वस्तुएं यहां पर बिकती हुई मिलती हैं. लेकिन मिठाई और नमकीन की दुकाने विशेष होती हैं.

मावली मेले में गुड़ की मिठाई काफी लोकप्रिय रहती है. इस मेले में तमाम बदलावों के बाद भी कुछ बात है ऐसी है जो आपको आदिवासी संस्कृति के करीब लाती है.

नारायणपुर का मावली मेला बदल रहा है, समय के साथ बदलाव शायद लाज़मी भी है. लेकिन इस मेले में कुछ बातें हैं जिन पर आयोजकों और प्रशासन दोनों को ही ध्यान देने की ज़रूरत है.

पहली बात ये है कि प्रशासन की भूमिका मेले में सुविधाएं और सुरक्षा उपलब्ध कराने तक ही रहे. इस मेले में आने वाले लोगों को आदिवासी संस्कृति को करीब से महसूस करने और जानने का मौका मिले यह ज़रूरी है.

इसके साथ ही आदिवासी यह महसूस ना करें कि इस मेले में सिर्फ़ पर्यटन को ध्यान में रखा जा रहा है. आदिवासी संस्कृति और धार्मिक आस्था को पक्ष भी मजबूती से बचाया जाना ज़रूरी है. 

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