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झारखंड में BJP सभी आदिवासी सीटें हार गई, अब हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी और बाबूलाल मरांडी को लेकर माहौल गरमाया

माना जा रहा है कि भाजपा से आदिवासियों के मोहभंग का सबसे बड़ा कारण चुनावों से ठीक पहले झामुमो प्रमुख और इंडिया ब्लॉक नेता हेमंत सोरेन (Hemant Soren) का कथित भूमि हड़पने के मामले में जेल जाना है.

झारखंड में आदिवासियों (Tribes of Jharkhand) तक पहुंचने के कई उपायों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी (BJP) राज्य की अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes) के लिए आरक्षित पांच सीटों में से किसी पर भी जीत हासिल नहीं कर पाई. इतना ही नहीं इनमें से चार सीटों पर बीजेपी की हार का अंतर 1.2 लाख वोटों से अधिक था.

2019 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद बीजेपी ने अपने अलग हुए आदिवासी नेता बाबूलाल मरांडी (Babulal Marandi) को वापस लाया और उन्हें राज्य प्रमुख नियुक्त किया.

वहीं लोकसभा चुनावों से पहले पार्टी ने आदिवासी नेता बिरसा मुंडा (Tribal icon Birsa Munda) की जयंती को ‘आदिवासी गौरव दिवस’ के रूप में नामित किया. जिसके तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने न केवल मुंडा के जन्मस्थान खूंटी में उलिहातु (Ulihatu) का कई बार दौरा किया बल्कि वहीं से अपनी विकसित भारत यात्रा भी शुरू की.

लेकिन इन तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा को राज्य की आदिवासी सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा.

लोकसभा चुनाव के ये नतीजे साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं. क्योंकि ये पांच आदिवासी लोकसभा सीटें 28 एसटी-आरक्षित विधानसभा क्षेत्रों में तब्दील हो जाती हैं.

माना जा रहा है कि भाजपा से आदिवासियों के मोहभंग का सबसे बड़ा कारण चुनावों से ठीक पहले झामुमो प्रमुख और इंडिया ब्लॉक नेता हेमंत सोरेन (Hemant Soren) का कथित भूमि हड़पने के मामले में जेल जाना है.

गिरफ्तारी से पहले सोरेन ने मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया था और उनकी जगह चंपई सोरेन को मुख्यमंत्री बनाया गया. वहीं हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना ने लोकसभा चुनावों के साथ-साथ हुए उपचुनावों में जीत हासिल की और पहली बार चुनावी मैदान में उतरीं.

रांची स्थित झामुमो के एक नेता ने कहा, “भाजपा ने सोचा कि हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद वह पार्टी को तोड़ सकती है या राष्ट्रपति शासन लगा सकती है. सोरेन ने बड़ी चतुराई से गिरफ्तारी से पहले ही इस्तीफा दे दिया, जिससे भाजपा को प्रयोग करने का कोई मौका नहीं मिला.”

झारखंड भर में प्रचार करने वाली कल्पना ने अपने पति, जो एक “आदिवासी सीएम” हैं, के साथ हुए “अन्याय” का भी जिक्र किया.

सूत्रों ने बताया कि एक और कारक यह था कि इंडिया ब्लॉक ने ईसाई आदिवासी वोटों को अपने पक्ष में करने में सफलता पाई. जो भाजपा के बारे में अल्पसंख्यकों के डर का फायदा उठा रहा था.

ईसाई आदिवासी नेताओं ने बदले में गैर-आदिवासी ईसाई वोटों को सफलतापूर्वक जुटाया और माना जा रहा है कि लोहरदगा और खूंटी जैसी सीटों पर यह अहम रहा.

खूंटी में भाजपा के अर्जुन मुंडा कांग्रेस के कालीचरण मुंडा से 1.49 लाख से अधिक वोटों से हार गए.

जहां झामुमो ने आदिवासियों द्वारा अपनाए जाने वाले सरना धर्म को एक अलग धर्म के रूप में मान्यता दिए जाने की मांग की है. वहीं समुदाय के पास राज्य में पिछली भाजपा सरकार की बुरी यादें हैं, जिसका नेतृत्व संयोग से राज्य के पहले और एकमात्र गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री रघुबर दास ने किया था.

दास सरकार ने झारखंड में ब्रिटिश काल से मौजूद काश्तकारी अधिनियमों में बदलाव करने की कोशिश की थी. जो अन्य बातों के अलावा किसी भी गैर-आदिवासी को आदिवासी भूमि हस्तांतरित करने की अनुमति नहीं देते हैं.

खूंटी में एक कांग्रेस नेता ने कहा, “2019 में पत्थलगड़ी आंदोलन से प्रभावित कई ग्रामीणों ने चुनावों का बहिष्कार किया था. इस बार वे भाजपा के खिलाफ मतदान करने के लिए बड़ी संख्या में बाहर आए क्योंकि दास सरकार ने कई लोगों पर देशद्रोह सहित अन्य आरोपों के तहत मामला दर्ज किया था.”

वहीं भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने भी स्वीकार किया कि सारे आदिवासी पार्टी के खिलाफ एकजुट हुए और पत्थलगड़ी आंदोलन के प्रभाव को स्वीकार किया.

आंदोलन के तहत आदिवासियों ने संविधान की 5वीं अनुसूची के तहत उन्हें दिए गए अधिकारों को दोहराते हुए पत्थर की पट्टिकाएं स्थापित की थीं और सरकारी अधिकारियों को राज्य के कई हिस्सों में प्रवेश करने से रोक दिया था.

झारखंड में नागरिक समाज संगठनों ने भी इस बार भाजपा के खिलाफ रैली निकाली, लगातार गांव-स्तर के दौरे के दौरान आदिवासियों से “लोकतंत्र और संविधान को बचाने” के लिए वोट देने का आग्रह किया. ये संदेश जो इंडिया ब्लॉक के संदेश से मिलता-जुलता था.

राज्य के भाजपा नेताओं के खिलाफ “कुछ गुस्सा” का दावा करते हुए झारखंड कांग्रेस प्रमुख राजेश ठाकुर ने कहा कि क्योंकि उन्होंने (बीजेपी) कभी भी ‘जल, जंगल, ज़मीन’ के मुद्दों पर लड़ाई नहीं लड़ी.

उदाहरण के लिए अर्जुन मुंडा ने आदिवासी मुद्दों का समर्थन नहीं किया (आदिवासी होने के बावजूद)… यहां तक ​​कि गीता कोड़ा, जो आखिरी समय में कांग्रेस से भाजपा में शामिल हो गईं, अपने खुद के पर्याप्त आदिवासी वोट बैंक के बावजूद (सिंहभूम से) हार गईं.

उन्होंने कहा कि इसके विपरीत हम लोग भाजपा के विभाजनकारी एजेंडे और संविधान को बदलने की उसकी योजनाओं के बारे में बताने में सक्षम थे.

ठाकुर ने इसके लिए राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा को भी श्रेय दिया और सिमडेगा और खूंटी क्षेत्रों में इसे मिले अच्छे समर्थन की ओर इशारा किया.

आदिवासी वोट भाजपा से दूर होते जा रहे हैं, ऐसे में मरांडी को पार्टी द्वारा 14 साल बाद गले लगाने के खिलाफ सुगबुगाहट शुरू हो गई है. मरांडी अपनी सरकार की विवादास्पद अधिवास नीति पर विरोध के कारण सीएम पद से हटाए जाने से नाराज हैं.

मरांडी नीति में कहा गया था कि लोगों के पास वर्ष 1932 तक के दस्तावेज हैं, जिनका उपयोग यह निर्धारित करने के लिए किया जाएगा कि वे राज्य के निवासी हैं या नहीं.

सूत्रों ने बताया कि भाजपा में शीर्ष पदों पर अब झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) के पूर्व नेता काबिज हैं. जिसे मरांडी ने 2006 में भाजपा छोड़ने के बाद बनाया था. उन्होंने 2020 में पार्टी में वापसी के बाद इसका भाजपा में विलय कर दिया था.

हालांकि, मरांडी के करीबी लोगों का कहना है कि उन्होंने हमेशा जीत की संभावना को किसी भी अन्य कारक से ऊपर रखा है.

रांची भाजपा के एक सूत्र ने कहा, “सीता सोरेन और गीता कोड़ा जैसे पार्टी उम्मीदवार जीत सकते थे अगर वे चुनाव से चार-पांच महीने पहले हमारे साथ जुड़ जाते.”

मरांडी के सहयोगी और राजनीतिक सलाहकार सुनील तिवारी ने भी हेमंत सोरेन की गिरफ़्तारी के असर को कम आंका.

तिवारी ने कहा, “आदिवासी समुदाय में इस पर कोई गुस्सा नहीं है. मुझे लगता है कि हम कल्पना सोरेन के इस कथन का विरोध नहीं कर सकते कि ‘हेमंत को बिना किसी कारण के या बल्कि लोगों के काम करने के लिए जेल भेजा गया है.’ भाजपा हेमंत सोरेन के खिलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोपों के बारे में जमीनी स्तर पर सबूतों को बताने में विफल रही.”

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