मणिपुर में राष्ट्रपति शासन (President’s rule in Manipur) तब तक जारी रहेगा जब तक राज्य में कुकी और मैतेई समुदाय के बीच सुलह नहीं हो जाती. ऐसा कहना है शीर्ष सरकारी सूत्रों का…
हाल ही में (11 जून, 2025) शीर्ष सरकारी सूत्रों ने कहा कि केंद्र सरकार संकटग्रस्त राज्य में सरकार गठन के लिए प्रतिबद्ध है. लेकिन राज्य में शांति सुनिश्चित करने के लिए मैतेई और कुकी के बीच विवादों को सुलझाने की जरूरत है और इसके लिए कई तरह की पहल की जा रही हैं.
सूत्रों का कहना है कि राज्य में हर कोई सरकार बनाना चाहता है. लेकिन कुकी और मैतेई के बीच किसी तरह का समझौता होना चाहिए. इसके बाद ही राष्ट्रपति शासन हटाने पर विचार करना समझदारी होगी.
फरवरी में एन बीरेन सिंह (N Biren Singh) के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लागू है.
इस बीच, बीरेन सिंह ने 10 जून, 2025 को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की और इंफाल में पत्रकारों से कहा कि राज्य के लोगों की तरह केंद्र भी मणिपुर में लोकप्रिय सरकार चाहता है. उन्होंने कहा कि विभिन्न समुदायों के प्रतिनिधियों की बैठक बुलाने की प्रक्रिया चल रही है.
सरकार बनाने के लिए 44 विधायकों के समर्थन का दावा
इससे पहले पिछले महीने भाजपा विधायक थोकचोम राधेश्याम सिंह ने 28 मई, 2025 को राजभवन में राज्यपाल अजय कुमार भल्ला से मुलाकात के बाद दावा किया था कि मणिपुर में 44 विधायक नई सरकार बनाने के लिए तैयार हैं.
सिंह ने नौ अन्य विधायकों के साथ कहा था कि समूह ने राज्यपाल को जनता की भावना के अनुरूप सरकार बनाने के लिए अपनी तत्परता से अवगत कराया है.
उन्होंने कहा था कि हमने राज्यपाल को सूचित किया कि 44 विधायक तैयार हैं. हमने राज्य में चल रहे मुद्दों के संभावित समाधानों पर भी चर्चा की.
हालांकि, अभी तक इस मामले में कोई प्रगति देखने को नहीं मिली है और फरवरी 2025 से मणिपुर राष्ट्रपति के शासन के तहत है.
मणिपुर में राष्ट्रपति शासन
मई 2023 से जातीय हिंसा से प्रभावित मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने आख़िरकार 9 फरवरी को अपने पद इस्तीफा दे दिया.
उनके इस्तीफा देने के चार दिन बाद भी जब राज्य की राजनीतिक स्थिति अनिश्चित बनी रही. मणिपुर में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (BJP) की और ओर से नए नेता के बारे में कोई फैसला नहीं किया जा सका तो ऐसी स्थिति में राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया.
क्या है राष्ट्रपति शासन?
राज्य सरकार को हटाने के बाद एक राज्य में राष्ट्रपति के शासन को लागू करने के लिए अनुच्छेद 356 का आह्वान किया जाता है.
संविधान का अनुच्छेद-356 केंद्र सरकार को किसी भी राज्य सरकार को हटाकर प्रदेश का नियंत्रण अपने हाथ में लेने का अधिकार देता है.
भारतीय संविधान के भाग XVIII में उल्लिखित आपातकालीन प्रावधान भारत की संप्रभुता, एकता और सुरक्षा की रक्षा करते हैं. वे केंद्र सरकार को स्थिरता सुनिश्चित करने और लोकतांत्रिक ढांचे की रक्षा करने के लिए अस्थायी रूप से नियंत्रण संभालकर असाधारण संकटों से निपटने का अधिकार देते हैं.
संविधान में तीन प्रकार की आपात स्थितियों का प्रावधान है – राष्ट्रीय (अनुच्छेद 352), राज्य (अनुच्छेद 356) और वित्तीय (अनुच्छेद 360).
अनुच्छेद 356 भारतीय संविधान का एक प्रावधान है, जो राष्ट्रपति शासन से संबंधित है. यह केंद्र सरकार को किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र के विफल होने पर उस राज्य की सरकार को बर्खास्त करने और वहां केंद्र के प्रत्यक्ष नियंत्रण में शासन स्थापित करने की शक्ति देता है. इसे संवैधानिक आपातकाल भी कहा जाता है.
संविधान का अनुच्छेद-356 कहता है कि किसी भी राज्य में संवैधानिक तंत्र नाकाम होने या इसमें रुकावट पैदा होने पर राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 में राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने का प्रावधान है, बशर्ते राष्ट्रपति को यह विश्वास हो कि राज्यों में शासन संविधान के अनुसार नहीं चलाया जा सकता.
दूसरे शब्दों में इसका इस्तेमाल तब किया जाना चाहिए जब राष्ट्रपति को राज्यपाल की रिपोर्ट या अन्य स्रोतों से यह विश्वास हो कि राज्य सरकार संविधान के अनुसार कार्य नहीं कर पा रही है.
राज्य में स्थिति ऐसी हो गई है कि कोई भी पार्टी/गठबंधन सरकार बनाने में सक्षम न हो या सरकार सदन में बहुमत खो चुकी हो या फिर कानून-व्यवस्था का व्यापक रूप से उल्लंघन हो रहा हो.
राष्ट्रपति आमतौर पर केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करते हैं. राज्य की स्थिति के बारे में संतुष्ट होने के बाद राष्ट्रपति एक घोषणा जारी करते हैं, जिसके तहत राज्य विधानसभा को निलंबित या भंग किया जा सकता है.
राष्ट्रपति शासन की घोषणा को जारी होने की तिथि से दो महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा साधारण बहुमत से अनुमोदित किया जाना चाहिए.
संसद द्वारा स्वीकृत होने के बाद राष्ट्रपति शासन घोषणा की तारीख से छह महीने तक जारी रहता है, जब तक कि इसे पहले ही रद्द न कर दिया जाए.
राष्ट्रपति शासन शुरू में 6 महीने के लिए लागू होता है, जिसे संसद की मंजूरी से हर 6 महीने में बढ़ाया जा सकता है. इसे अधिकतम 3 साल तक लागू किया जा सकता है.
राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद अनुच्छेद 356 राष्ट्रपति को राज्य प्रशासन संभालने का अधिकार देता है, जिससे कार्यकारी शक्तियों पर केंद्र का नियंत्रण हो जाता है और संसद को विधायी शक्तियों का प्रयोग करने की अनुमति मिल जाती है.
आसान शब्दों में कहें तो अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद राज्य का प्रशासन केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल के माध्यम से चलता है.
राज्यपाल से उम्मीद की जाती है कि वे गैर-पक्षपातपूर्ण प्रशासकों की मदद से शासन चलाएंगे. इसके अलावा राज्य की कार्यकारी शक्ति केंद्र के पास चली जाती है और विधायी शक्तियां संसद के पास चली जाती हैं.
इतिहास क्या रहा है?
जब देश का संविधान बन रहा था तो संविधान निर्माताओं ने ऐसी किसी परिस्थिति का अनुमान लगाया था जब राज्य में सीधे केंद्र को हस्तक्षेप करने की जरूरत पड़ सकती थी. इसी को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रपति शासन का प्रावधान संविधान में किया गया है.
हालांकि, संविधान सभा की बहस के दौरान डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने चाहा था कि अनुच्छेद 356 को कभी भी लागू न किया जाए और यह एक मृत पत्र बनकर रह जाए.
लेकिन आज़ाद भारत का अनुभव ऐसा नहीं रहा. देश में अनुच्छेद 356 का कई मौकों पर दुरुपयोग किया गया. राज्यों में बहुमत प्राप्त निर्वाचित सरकारों को हटा दिया गया, जिससे संवैधानिक सिद्धांतों और संघवाद का उल्लंघन हुआ.
संवैधानिक सिद्धांतों से अधिक अतीत में ऐसे निर्णयों के पीछे राजनीतिक सुविधा का हाथ रहा है.
विधान सभा को भंग करने के मामले में विभिन्न राज्यपालों ने समान परिस्थितियों में अलग-अलग तरीके अपनाए हैं.
विधानसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त मुख्यमंत्री की सलाह आम तौर पर राज्यपाल के लिए बाध्यकारी होती है. हालांकि, जहां मुख्यमंत्री ने ऐसा समर्थन खो दिया है, वहां कुछ राज्यपालों ने उनकी सलाह पर विधानसभा को भंग करने से इनकार कर दिया है. जबकि इसी तरह की स्थितियों में अन्य ने सलाह को स्वीकार कर लिया और विधानसभा को भंग कर दिया.
इस मामले में कोर्ट क्या कहता है?
आज़ादी के बाद के पहले चार दशकों के दौरान सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने के केंद्र के निर्णय में हस्तक्षेप करने से परहेज किया.
एस.आर. बोम्मई मामले (1994) में सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्णय के बाद ही अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग पर रोक लगाई गई है.
1994 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ के मामले में दिया गया फैसला अहम है.
1989 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई की जनता दल सरकार को केंद्र ने अनुच्छेद 356 के तहत बर्खास्त कर दिया.राज्यपाल ने दावा किया कि बोम्मई सरकार ने विधानसभा में बहुमत खो दिया है. सीएम बोम्मई ने इसे असंवैधानिक और केंद्र की राजनीतिक साजिश बताया. फिर ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा.
इस मामले में 9 जजों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से महत्वपूर्ण फैसला दिया. इस जजमेंट को अनुच्छेद 356 के मामले में नजीर माना जाता है.
एस.आर. बोम्मई केस ने अनुच्छेद 356 को एक आपातकालीन प्रावधान तक सीमित कर दिया, जिसका उपयोग केवल असाधारण परिस्थितियों में और न्यायिक निगरानी के साथ हो सकता है. इसने भारतीय लोकतंत्र और संघवाद को मजबूत किया.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 356 की घोषणा न्यायिक समीक्षा के अधीन है यानी कि पीड़ित पक्ष इस फैसले के खिलाफ कोर्ट जा सकता है.
अदालत ने कहा कि अगर घोषणा असंवैधानिक या दुर्भावनापूर्ण पाई जाती है तो इसे रद्द किया जा सकता है.
अदालत ने कहा कि राष्ट्रपति शासन केवल तभी लागू हो सकता है जब ठोस सबूत हों कि राज्य सरकार संविधान के अनुसार कार्य नहीं कर पा रही.
सामान्य प्रशासनिक समस्याएं, भ्रष्टाचार, या कानून-व्यवस्था की विफलता राष्ट्रपति शासन का पर्याप्त आधार नहीं हैं. अदालत ने फैसला दिया कि केंद्र को राष्ट्रपति शासन का कारण बताना होगा और यह संसद और अदालत की जांच के अधीन होगा.
इस निर्णय में कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 356 को केवल संवैधानिक तंत्र के टूटने की स्थिति में ही लगाया जाना चाहिए, न कि कानून और व्यवस्था के सामान्य टूटने की स्थिति में.
इसने यह भी माना कि राष्ट्रपति शासन लागू करना न्यायिक समीक्षा के अधीन है और इसका राजनीतिक कारणों से दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए.
कोर्ट ने आगे फैसला सुनाया कि जब तक संसद राष्ट्रपति शासन लागू करने की मंजूरी नहीं दे देती, तब तक विधानसभा को भंग नहीं किया जाना चाहिए और इसे केवल निलंबित अवस्था में ही रखा जा सकता है.
इस फैसले के बाद बोम्मई सरकार को बहाल नहीं किया गया क्योंकि नई सरकार बन चुकी थी लेकिन इस फैसले ने भविष्य के लिए मिसाल कायम की.
1994 के बाद इसका दुरुपयोग काफी हद तक रुका, क्योंकि केंद्र को अब ठोस सबूत पेश करने पड़ते हैं.
एस.आर. बोम्मई मामले के बाद से हायर ज्यूडिशियरी अनुच्छेद 356 के मनमाने इस्तेमाल के खिलाफ निगरानीकर्ता की भूमिका निभा रही है. और बिहार (2005), उत्तराखंड (2016) और अरुणाचल प्रदेश (2016) के मामले में अदालतों ने राष्ट्रपति शासन के गलत इस्तेमाल को खारिज कर दिया है.
इसे कब हटाया जा सकता है?
अगर बहुमत वाली सरकार न होने के कारण राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है, तो आमतौर पर नए चुनाव कराए जाते हैं. चुनाव के बाद राष्ट्रपति शासन हटा दिया जाता है और एक लोकप्रिय निर्वाचित सरकार राज्य का शासन संभाल लेती है.
मणिपुर के हालात
मणिपुर में बिगड़ती सुरक्षा स्थिति और उसके परिणामस्वरूप राजनीतिक घटनाक्रमों के कारण मणिपुर को फरवरी 2025 में राष्ट्रपति शासन के अधीन रखा गया था. विधानसभा, जिसका पांच साल का कार्यकाल मार्च 2027 में समाप्त हो रहा है, उसको निलंबित अवस्था में रखा गया है.
यह देखते हुए कि विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने में 18 महीने से अधिक का समय बचा है, ऐसी सरकार स्थापित करना समझदारी होगी जिसे विधानसभा का विश्वास प्राप्त हो. इससे भी अहम बात यह है कि उसे राज्य के समाज के विभिन्न वर्गों का विश्वास प्राप्त होना चाहिए.