HomeAdivasi Dailyकुटिया आदिवासी पोंगल कब और कैसे मनाते हैं

कुटिया आदिवासी पोंगल कब और कैसे मनाते हैं

यहाँ के विशाखापट्टनम ज़िले की आरकु घाटी के आदिवासी इलाक़ों में यह त्योहार अलग अलग मंडल में अलग अलग तारीख़ को मनाया जाता है. यह तारीख़ें उनकी पंचायत तय करती हैं. हां यह तय होता है कि त्योहार पौष महीने में ही मनाया जाना है.

विशाखापट्टनम ज़िले की आरकु घाटी में एक छोटा सा आदिवासी गाँव है सरबागुड़ा. इस गाँव में कुटिया आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं. आंध्र प्रदेश का यह इलाक़ा ओडिशा के कोरापुट ज़िले से लगा हुआ है. अपनी भाषा को ये लोग देसिया ओडिया या आदिवासी ओडिया बताते हैं. 

दरअसल इन आदिवासियों की एक अलग ही भाषा बन गई है जिसमें ओडिया का प्रभाव ज़्यादा है लेकिन कुछ प्रभाव तेलगू का भी है. 

6 जनवरी की सुबह सुबह हम इस गाँव में पहुँचे थे. ऐसा लग रहा है कि इस आदिवासी गाँव में सुबह  कुछ ज़्यादा ही जल्दी शुरू हो गई है. अभी सुबह के 6 बजे हैं लेकिन सभी घरों में चूल्हा जल रहा है और खाना पकना शुरू हो चुका है.

इस गाँव के हर परिवार में आज कुछ ख़ास पकवान बनाए जा रहे हैं. सर्दियों के दिनों में देर तक सोए रहने वाले बच्चे भी जाग चुके हैं. जाग ही नहीं चुके हैं बल्कि नहा धो कर नए कपड़े भी पहन चुके हैं. नए कपड़े पहने बच्चे खूब चहक रहे हैं, चहके क्यों ना नए कपड़ों के साथ दादी ने कुछ पैसे भी तो जेब में डाल दिए हैं.

गाँव में उत्सव का माहौल है क्योंकि आज इन आदिवासियों का सबसे बड़े त्योहार का मुख्य दिन है. 

मकर संक्रांति यानि पोंगल के लिए परिवार नए कपड़े ज़रूर ख़रीदता है

आज यहाँ पोंगल यानि मकर संक्रांति का त्योहार मनाया जा रहा है. देश भर में यह त्योहार 14 जनवरी को मनाया जाता है. आंध्र प्रदेश में भी यह त्योहार 14 जनवरी से शुरू हो कर 17 जनवरी तक चलता है.

लेकिन यहाँ के विशाखापट्टनम ज़िले की आरकु घाटी के आदिवासी इलाक़ों में यह त्योहार अलग अलग मंडल में अलग अलग तारीख़ को मनाया जाता है. यह तारीख़ें उनकी पंचायत तय करती हैं. हां यह तय होता है कि त्योहार पौष महीने में ही मनाया जाना है.

हमें यहाँ सहदेव किल्लो ने अपने पर्व में शामिल होने के लिए बुलाया था. जब हम उनके घर पहुँचे तो, सहदेव अपने बैलों के बाड़े से अपने घर तक चावल के आटे से एक सीढ़ी की छवि उकेर रहे थे. यह पहला मौक़ा है जब पोंगल की मुख्य पूजा करने की ज़िम्मेदारी सहदेव पर आन पड़ी है. 

पिछले साल तक यह काम उनके पिता करते थे. लेकिन उनके देहांत की वजह से अब सहदेव ही परिवार के मुखिया हैं. उनकी पत्नी जानकी ने सुबह ही कई पकवान तैयार कर दिए हैं.

इन पकवानों के साथ साथ फूल, फल, धूप -दीप से उन्होंने सूप में सजा दिया है. इसके अलावा उन्होंने चावल और गुड़ से बने पीठे को रस्सी में पिरो दिया है. सहदेव अपने परिवार के साथ गाय बैलों के बाड़े में पहुँचते हैं. 

सबसे पहले वो गाय बैलों को टीका लगाते हैं और प्रणाम करते हैं. उसके बाद चावल और गुड़ से बना पीठा उनके गले में बांध देते हैं. इसके बाद सहदेव अपने परिवार के साथ गाय बैलों की पूजा शुरू करते हैं. पूजा ख़त्म होने के बाद सूप में रखे फल और पकवान गाय बैलों को खिलाया जाता है. गाय बैलों को खिलाने के बाद ही परिवार के लोग खाना खाते हैं.

पोंगल के लिए परिवार के सभी लोगों को नए कपड़े मिलें यह परिवार के मुखिया की ज़िम्मेदारी होती है. इसके लिए परिवार का मुखिया हफ़्ते भर पहले से ही तैयारी करता है. इसके लिए घर से धान, रागी, राजमा या दूसरी दाल जो परिवार ने बचा कर रखी थी, उसे बाज़ार में बेच दिया जाता है.

औरतों का काम त्योहार के लिए घर लीपना और खाना बनाना होता है. ये औरतें पोंगल के दिन सुबह बहुत जल्दी उठती हैं. उनकी ज़िम्मेदारी होती है कि सूरज निकलने से पहले पोंगल की पूजा पाठ निपटना चाहिए. 

आरकु घाटी में पोंगल के मुख्य दिन का उत्सव पूरे दिन बल्कि यूँ कहना चाहिए कि अगले दिन सुबह तक चलता है. एक बार जब पूजा पाठ ख़त्म हो जाता है तो परिवार के लोग मिल जुल के खाना खाते हैं.

गाँव के सभी परिवारों का खाना पीना निपट जाने के बाद गाँव का माहौल नए रंग में ढलने लगता है. बच्चों और लड़कों की टोलियाँ गाँव में निकलने लगती हैं. ये बच्चे घर घर जा कर नाचते गाते हैं. 

इसके बदले में इनको ईनाम में पैसा और धान मिलता है. ये टोलियाँ सबसे पहले गाँव के मुखिया माने जाने वाले परिवार के घर पर जाते हैं. उसके बाद गाँव के दूसरे घरों का रूख करते हैं. दोपहर होते होते ये टोली दूसरे गाँव का रूख कर लेती हैं.

वैसे ही पड़ोस के गाँव से टोलियाँ इस गाँव में पहुँचना शुरू हो जाती हैं. हमने देखा कि नाच गान के दौरान गाँव की औरतें इन लड़कों के साथ हंसी ठिठोली भी करती है और नाचती गाती भी हैं. 

नाच-गान करने वाली सभी टोलियाँ शाम को अपने अपने गाँव लौट आती हैं और फिर जो भी ईनाम वो पाते हैं उसे गाँव के लोगों के सामने रख देते हैं. ईनाम में मिले धान को भी बेच दिया जाता है.

इस पैसे से मुर्ग़ा और शराब ख़रीदी जाती है. फिर रात को सभी लोग मिल कर चाहे वो औरत हों या पुरूष ढिमशा नाचते हैं. यह नाचगान लगभग सुबह उस वक़्त तक चलता है जब तक कि सभी पूरी तरह से थक कर चूर नहीं हो जाते हैं. 

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