HomeAdivasi Dailyहिमाचल के जनजातीय इलाकों में बेटियों को अब पैतृक संपत्ति में हिस्सा...

हिमाचल के जनजातीय इलाकों में बेटियों को अब पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलेगा

हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में अब बेटियों को अपने पिता की पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलेगा.

हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में अब बेटियों को अपने पिता की पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलेगा.

देश की सर्वोच्च अदालत, सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया है.

जिसमें कहा गया था कि जनजातीय इलाकों की बेटियों को भी हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के तहत पैतृक संपत्ति का अधिकार मिलेगा.

अदालत ने साफ कहा है कि इन क्षेत्रों में यह कानून लागू नहीं होता, क्योंकि यहाँ परंपरागत और सामाजिक रिवाज ही मान्य हैं.

यह मामला लाहौल-स्पीति, किन्नौर और चंबा जैसे जनजातीय जिलों से जुड़ा है.

इन क्षेत्रों में लोग आज भी पुराने रीति-रिवाजों के अनुसार संपत्ति बाँटते हैं.

वहाँ यह परंपरा रही है कि बेटों को पैतृक जमीन और घर विरासत में मिलते हैं, जबकि बेटियों को संपत्ति नहीं दी जाती.

2015 में हिमाचल हाईकोर्ट ने इस परंपरा को बदलने की कोशिश करते हुए कहा था कि बेटियों को भी समान अधिकार मिलना चाहिए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अब उस फैसले को गलत ठहराया है.

सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की बेंच ने यह फैसला सुनाया.

उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के तहत अनुसूचित जनजातियों की स्थिति और उन पर लागू कानूनों में बदलाव केवल राष्ट्रपति की अधिसूचना से ही किया जा सकता है.

इसलिए कोई भी अदालत या राज्य सरकार अपने स्तर पर ऐसा बदलाव नहीं कर सकती.

जब तक केंद्र सरकार विशेष अधिसूचना जारी नहीं करती, तब तक हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम जनजातीय समुदायों पर लागू नहीं होगा.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जनजातीय समाज की अपनी परंपराएँ और कस्टमरी लॉ (रिवाज आधारित कानून) हैं, और ये उनकी संस्कृति का हिस्सा हैं.

इसलिए अदालत को इनकी परंपराओं में दखल नहीं देना चाहिए, जब तक कि कोई संवैधानिक या कानूनी अधिसूचना इसके विपरीत न हो.

न्यायालय ने यह भी कहा कि “हर जनजातीय समाज की अपनी सामाजिक संरचना और परंपराएँ होती हैं. उन्हें संविधान ने विशेष पहचान दी है.

इसलिए कानून बनाने का अधिकार केवल संसद या राष्ट्रपति को है.”

यह मामला 2015 के एक फैसले से शुरू हुआ था.

उस समय हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने यह माना था कि जनजातीय बेटियों को भी अपने पिता की संपत्ति में बराबर हिस्सा मिलना चाहिए.

अदालत ने कहा था कि अब समय बदल गया है और महिलाओं को समान अधिकार मिलने चाहिए. लेकिन इस फैसले को कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी.

उनका कहना था कि हाईकोर्ट ने बिना कानूनी अधिकार के यह निर्णय दे दिया, क्योंकि जनजातीय क्षेत्रों में हिंदू कानून लागू नहीं होते.

23 सितंबर 2015 को यह याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई थी.

अब लगभग दस साल बाद, 23 अक्टूबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम फैसला सुनाया और कहा कि हाईकोर्ट ने संविधान की सीमाओं को पार किया था.

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले के पैराग्राफ 63 को विशेष रूप से रद्द कर दिया, जिसमें बेटियों को संपत्ति का अधिकार देने की बात कही गई थी.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कुछ पुराने मामलों का भी ज़िक्र किया, जैसे “मधु किश्वर बनाम बिहार राज्य” और “तीरथ कुमार बनाम दादूराम”.

इन मामलों में भी यह तय किया गया था कि जनजातीय समाजों में उनकी परंपराएँ ही लागू होंगी, जब तक कोई नया कानून न बनाया जाए.

फैसले के बाद लाहौल-स्पीति और किन्नौर जैसे इलाकों में अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएँ देखने को मिलीं.

कुछ लोग खुश हैं कि अदालत ने परंपराओं को बनाए रखा है. उनका कहना है कि यह फैसला जनजातीय समाज की संस्कृति की रक्षा करता है.

वहीं कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं और महिला संगठनों ने निराशा जताई है.

उनका कहना है कि यह फैसला महिलाओं को समान अधिकारों से वंचित रखता है और यह लैंगिक समानता के सिद्धांत के खिलाफ है.

कानूनी जानकारों का कहना है कि यह फैसला बहुत अहम है, क्योंकि यह सिर्फ हिमाचल प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश के जनजातीय इलाकों पर असर डाल सकता है.

भारत के कई राज्यों जैसे झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और नागालैंड में भी ऐसी ही स्थिति है जहाँ परंपरागत कानून लागू हैं और बेटियों को संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता.

सामाजिक विशेषज्ञों का मानना है कि अब सरकार को इस दिशा में पहल करनी चाहिए.

अगर बेटियों को समान अधिकार देने की जरूरत महसूस होती है, तो केंद्र सरकार को संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत अधिसूचना जारी करनी चाहिए ताकि जनजातीय समुदायों पर भी समान नागरिक कानून लागू हो सके.

लेकिन यह भी सच है कि यह कदम बेहद संवेदनशील होगा, क्योंकि इससे जनजातीय परंपराओं पर असर पड़ सकता है.

यह फैसला समाज में एक बड़े विमर्श को जन्म दे रहा है.

एक तरफ यह जनजातीय संस्कृति और परंपराओं को सुरक्षित रखता है, तो दूसरी तरफ यह सवाल भी उठाता है कि क्या समानता और न्याय के सिद्धांत के लिए इन परंपराओं में बदलाव की जरूरत है या नहीं.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments