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गढ़चिरौली में आदिवासियों को मिली नई किट, शहद जमा करने में नहीं मरेंगीं मधुमक्खी

शहद निकालने वाले किट में विशेष सूट, एक बाल्टी और एक कोलंडर, दो प्लास्टिक के बॉक्स, दो चाकू और एक रस्सी. शहद निकालने की इस तकनीक में आग का इस्तेमाल नहीं होता और इसलिए छत्ते या मधुमक्खियों को अंदर से प्रभावित नहीं करती है.

महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में रहने वाले आदिवासी परिवारों ने शहद निकालने का एक स्थायी तरीका अपनाया है जो मधुमक्खियों को नुकसान नहीं पहुंचाता है. ये लोग सदियों से आसपास के घने जंगलों से शहद इकट्ठा करते रहे हैं. लेकिन अब तक शहद इकट्ठा करने की पद्धति में आग का उपयोग शामिल था जिससे मधुमक्खियां मर जाती थी.

इतना ही नहीं इससे स्थानीय जैव विविधता पर हानिकारक प्रभाव पड़ने की संभावना होती है क्योंकि मधुमक्खियां परागण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. शहद की गुणवत्ता भी कम होती थी और इससे परिवारों को उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता था. लेकिन नई विधि से शहद की गुणवत्ता बरकरार रहती है और उन्हें अधिक पारिश्रमिक मिलता है.

छत्तीसगढ़ राज्य की सीमा से सटा यह जिला वर्षों से नक्सलवाद से प्रभावित है. ऐसे में यहां के गांवों को प्रशिक्षित किया गया साथ ही आजीविका और आत्मनिर्भरता के तरीके के रूप में शहद निकालने की इस नई तकनीक को अपनाया गया है.

स्थायी शहद निकालने की तकनीक विकसित करने वाले गोपाल पालीवाल ने कहा कि ग्रामीणों को नई तकनीक से लाभ मिल रहा है. इसका सबसे अहम हिस्सा यह है कि उन्हें उचित पारिश्रमिक मिल रहा है. इस तकनीक से ग्रामीण क्षेत्रों के कई लोगों को प्रशिक्षित किया जा रहा है. हमें उम्मीद है कि आदिवासी क्षेत्रों के और लोग इसमें शामिल होंगे.

शहद निकालने वाले किट में विशेष सूट, एक बाल्टी और एक कोलंडर, दो प्लास्टिक के बॉक्स, दो चाकू और एक रस्सी. शहद निकालने की इस तकनीक में आग का इस्तेमाल नहीं होता और इसलिए छत्ते या मधुमक्खियों को अंदर से प्रभावित नहीं करती है. विशेष सूट पहने व्यक्ति छत्ते पर चढ़ जाता है.

मधुकोश के जिस हिस्से में शहद जमा होता है वहां की मधुमक्खियां हाथ से हटा दी जाती हैं. फिर शहद से भरा हिस्सा जो छत्ते का लगभग 20 फीसदी होता है उसे चाकू का उपयोग करके काट दिया जाता है और शहद इकट्ठा किया जाता है. बाकी का मधुकोश वैसे ही रह जाता है. छत्ते में बनी जगह को मधुमक्खियों द्वारा अगले 15-20 दिनों में फिर से भर दिया जाता है जिससे एक बार फिर से शहद निकाला जा सकता है.

कई ग्रामीण इस किट का इस्तेमाल करके शहद इकट्ठा करते हैं और इसे पास के वर्धा जिले के सेवाग्राम में महात्मा गांधी के आश्रम के पास पालीवाल द्वारा संचालित मधुमक्खी विकास केंद्र में बेचते हैं. कच्चे शहद का वैज्ञानिक परीक्षण किया जाता है और नमी को दूर करने के लिए इसे थोड़ा गर्म किया जाता है और फिर बोतलबंद करके बेचा जाता है.

पालीवाल ने कहा कि स्थायी रूप से निकाला गया शहद पर्यावरण की रक्षा करने में मदद करता है और साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में आमदनी का एक निरंतर स्रोत सुनिश्चित करता है.

गढ़चिरौली के स्वास्थ्य और सामाजिक कार्यकर्ता सतीश गोगुलवार ने कहा कि स्थायी शहद निष्कर्षण के प्रयोग ने सकारात्मक और उत्साहजनक परिणाम दिखाए हैं. उन्होंने कहा कि  शहद निकालने वालों को 200 रुपये प्रति किलो का भुगतान करने के बाद भी मामूली शुद्धिकरण और पैकेजिंग के बाद स्थायी रूप से निकाले गए शहद को खुदरा में 400 रुपये या उससे अधिक मिल सकता है.

वैसे भी शुद्ध वन शहद की मांग बढ़ रही है. हमारे अनुमान के मुताबिक अकेले गढ़चिरौली जिले में 1,000 क्विंटल शहद की वार्षिक क्षमता है.

गढ़चिरौली के कोरची क्षेत्र में साल्हे ग्राम सभा ने 17 क्विंटल शहद एकत्र किया और शहद निकालने वालों को 200 रुपये प्रति किलो का भुगतान किया. यह स्थानीय बाजार भाव से कम से कम 50 रुपये ज्यादा था.

साल्हे ने नियमित रूप से लघु वन उत्पादों के संग्रह और बिक्री को प्रभावी ढंग से किया है और अब इस स्थायी रूप से निकाले गए शहद को अपने ब्रांड के तहत बेचने का फैसला किया है. ग्राम सभा ने शहद निकालने वाली 10 किट और एक शहद प्रसंस्करण इकाई खरीदी.

लेकिन कोविड महामारी के चलते साल्हे ग्राम सभा शहद शोधन और बॉटलिंग प्रक्रिया शुरू नहीं कर सकी. लेकिन वे एनजीओ को 250 रुपये प्रति किलो शहद बेचने में कामयाब रहे और ग्राम सभा ने लाभ कमाया.

आदिवासी बहुल गढ़चिरौली जिले के ग्रामीणों ने कहा कि वे अक्सर स्थानीय व्यापारियों की दया पर होते हैं जो उन्हें बरगलाते हैं और उचित पारिश्रमिक से इनकार करते हैं.

साल्हे गांव के निवासी होदी ने कहा कि कभी-कभी व्यापारी हमें एक किलो के लिए सिर्फ 80-90 रुपये का भुगतान करते हैं. लेकिन अब यह देखना काफी संतोषजनक है कि हमारे अपने लोग (ग्राम सभा) हमारे शहद और अन्य वन उपज खरीद रहे हैं.

आमदनी अच्छी  है और कभी-कभी वो मानक बाजार दरों से अधिक होता है. ग्राम सभा द्वारा अर्जित लाभ का उपयोग हमारे गांव में बुनियादी ढांचे के विकास और रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए किया जा रहा है. यह काफी संतोषजनक है.

ये लघु वन उत्पाद ग्राम सभाओं को राजस्व का एक स्थायी स्रोत बनाने में मदद कर सकते हैं, स्थानीय रोजगार के अवसर पैदा कर सकते हैं और साथ ही पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 और वन अधिकार अधिनियम के तहत प्राकृतिक संसाधनों तक सही पहुंच के माध्यम से स्व-शासन की सुविधा प्रदान कर सकते हैं.

महाराष्ट्र में आदिवासी विकास विभाग ऐसी योजनाएं लेकर आया है जिसका उद्देश्य आदिवासी समुदाय को आत्मनिर्भर बनने में मदद करना है. इसके उपायुक्त डीएस कुलमेठे ने कहा कि हमने आदिवासी समुदायों को स्थायी शहद निष्कर्षण व्यवसाय शुरू करने में मदद की. साथ ही उन्हें बाजारों से जोड़ने में मदद के प्रयास जारी हैं. इसी तरह हमारे पास महुआ जैसे अन्य लघु वन उत्पादों की भी योजना है.

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