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पंजाब के आदिवासी क्षेत्रों को अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल करें: राज्यसभा सांसद सतनाम संधू

संधू ने पंजाब सरकार से विमुक्त, खानाबदोश और अर्ध-खानाबदोश समुदायों को अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल करने के लिए पूर्ण प्रस्ताव भेजने की प्रक्रिया में तेजी लाने का आग्रह किया.

राज्यसभा सांसद सतनाम सिंह संधू (Satnam Singh Sandhu) ने बुधवार को पंजाब के विमुक्त, खानाबदोश और अर्ध-खानाबदोश जनजातीय समुदायों को अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes) सूची में शामिल करने का मुद्दा उठाया.

राज्यसभा में यह मामला उठाते हुए संधू ने कुछ विमुक्त, खानाबदोश और अर्ध-खानाबदोश समुदायों को अनुसूचित जाति से अनुसूचित जनजाति में पुनर्वर्गीकृत करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा किए गए मानदंड, प्रक्रिया और अध्ययन के बारे में पूछताछ की और पंजाब के बाजीगर, बाउरिया, गडीला, नट, सांसी, बराड़ और बंगाली समुदायों को अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल करने की स्थिति के बारे में भी पूछा.

केंद्रीय जनजातीय मामलों के राज्य मंत्री दुर्गा दास उइके ने जवाब दिया कि केंद्र सरकार राज्य सरकार/संघ राज्य क्षेत्र प्रशासन द्वारा भेजी गई सिफारिशों और प्रस्तावों पर कार्रवाई करती है, जिन पर भारत के महापंजीयक (RGI) और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) द्वारा सहमति दी जाती है.

मंत्री ने कहा, “आरजीआई और एनसीएसटी से अंतिम प्रस्ताव प्राप्त करने के बाद केंद्र सरकार कानून बनाती है या उसमें संशोधन करती है. जो विमुक्त, खानाबदोश और अर्ध-खानाबदोश समुदायों को अनुसूचित जाति से अनुसूचित जनजाति में पुनर्वर्गीकृत करने के लिए अंतिम कदम है.”.

उन्होंने कहा कि कभी-कभी आरजीआई और एनसीएसटी द्वारा अतिरिक्त जानकारी मांगी जाती है, जिसे आगे की आवश्यक कार्रवाई के लिए संबंधित राज्य सरकारों को तुरंत सूचित कर दिया जाता है.

मंत्री ने कहा कि हाशिए पर पड़े और जनजातीय समुदायों के पुनर्वर्गीकरण की प्रक्रिया एक सतत प्रक्रिया है और इसलिए विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रस्ताव विचाराधीन हैं.

संधू ने कहा कि पंजाब में पर्याप्त जनसंख्या होने के बावजूद बाजीगर, बाउरिया, गाडिला, नट, सांसी, बराड़ और बंगाली जनजातीय समुदायों के लोगों को आज तक अनुसूचित जनजाति समुदायों की सूची में शामिल नहीं किया गया है.

संधू ने पंजाब सरकार से इन समुदायों को अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल करने के लिए पूर्ण प्रस्ताव भेजने की प्रक्रिया में तेजी लाने का आग्रह किया.

अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल होने के आधार

किसी आदिवासी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है. लेकिन 1965 में इस मसले पर लोकुर समिति का गठन अनुसूचित जनजातियों को परिभाषित करने के लिए किया गया था.

लोकुर कमेटी की सिफ़ारिशों के आधार पर किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने के कुछ आधार तय किये गए हैं.

इस समिति ने इस बारे में कुछ मानदंड सुझाए थे जिनके आधार पर किसी समुदाय को जनजाति का दर्जा देना का फैसला किया जा सकता है. लोकुर समिति ने किसी आदिवासी समुदाय को जनजाति में शामिल किये जाने के लिए पहचान के पांच मानदंड सुझाए थे – आदिम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, बड़े पैमाने पर समुदाय के साथ संपर्क में संकोच और पिछड़ापन.

फिलहाल किसी समुदाय को जनजाति की सांस्कृतिक, आर्थिक और भौगोलिक स्थिति के बारे में विस्तृत शोध उपलब्ध होना पहली शर्त मानी जाती है. इसके लिए सबसे पहले ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट को उस समुदाय के बारे में शोध करने की ज़िम्मेदारी दी जाती है.

उसके बाद शोध में पाए गए तथ्यों के आधार पर राज्य सरकार किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने की सिफ़ारिश भेजती है. उसके बाद यह सिफ़ारिश राष्ट्रीय जनजाति आयोग को भेजी जाती है.

आयोग अगर सिफ़ारिशों से संतुष्ट होता है तो फिर यह सिफ़ारिश भारत के महारजिस्ट्रार को भेजी जाती है. वहां से फिर प्रस्ताव कैबिनेट में पेश किया जाता है. कैबिनेट की मंजूरी के बाद इस प्रस्ताव को संसद में पेश किया जाता है.

संसद की अनुमति के बाद ही किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने की सिफ़ारिश राष्ट्रपति को भेजी जाती है.

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने का अंतिम फैसला केंद्र सरकार के हाथ में ही है.

कई राज्य सरकारें लगातार कई समुदायों को आदिवासी मान कर अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने की मांग कर रही हैं.

केंद्र सरकार ने कई समुदायों को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने का फैसला किया भी है. लेकिन यह एक ऐसा मसला जो संसद के लगभग हर सत्र में उठता रहा है.

यह एक ऐसा मसला है जिसे संविधान में काफी गंभीरता से दर्ज किया गया है. इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि सरकार संसद में इस मसले पर एक विस्तृत चर्चा कराए.

इस चर्चा के बाद सरकार इस मामले में नीतिगत पहल कर सकती है और इस गंभीर मसले को एक तर्कसंगत तरीक़े से सुलझाया जा सकता है.

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