झारखंड के रांची में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) का तीन दिन का राज्य सम्मेलन हाल ही में हुआ.
इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य था कि पार्टी झारखंड में फिर से अपनी पकड़ मजबूत करे.
लंबे समय से राजनीति में कमजोर होती जा रही इस पार्टी ने अब यह तय किया है कि वो आदिवासियों, किसानों और गरीबों के मुद्दों पर फिर से सक्रिय होगी.
सम्मेलन में महेंद्र पाठक को दोबारा राज्य सचिव चुना गया.
इसके साथ ही 45 सदस्यों की राज्य परिषद और 21 लोगों की राज्य कार्यकारिणी का भी गठन हुआ. ये सभी सदस्य अब पार्टी को फिर से ज़मीन पर उतारने की जिम्मेदारी निभाएंगे.
सम्मेलन में मौजूद राष्ट्रीय नेता रामकृष्ण पांडा ने एक राजनीतिक प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि पार्टी अब “जल, जंगल और ज़मीन” की रक्षा के लिए पूरे राज्य में आंदोलन छेड़ेगी.
उनका कहना था कि आदिवासियों की ज़मीन छीनी जा रही है, जंगलों को काटा जा रहा है और प्राकृतिक संसाधनों पर बड़े उद्योगों का कब्जा हो रहा है.
उन्होंने कहा कि अब CPI केवल नारे नहीं लगाएगी, बल्कि गांव गांव जाकर लोगों से जुड़ेगी.
पंचायत से लेकर संसद तक हर जगह आदिवासियों और गरीबों की आवाज़ बनेगी.
लेकिन सवाल ये उठता है कि पार्टी को आदिवासियों और गरीबों की चिंता अब क्यों हो रही है?
जब इनके खिलाफ ज़्यादती पहले भी हो रही थी, तब CPI कहाँ थी? इतने सालों तक पार्टी ने इन मुद्दों को प्राथमिकता क्यों नहीं दी? अब जब पार्टी की स्थिति कमजोर हो गई है, वोट बैंक गिर गया है, तब उन्हें आदिवासी और किसान याद आ रहे हैं?
महेंद्र पाठक ने कहा कि CPI अब बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और आदिवासी अधिकारों पर सीधे लोगों के साथ मिलकर काम करेगी.
उन्होंने माना कि झारखंड में हालात गंभीर हैं और अब पार्टी को केवल विचारधारा से नहीं, बल्कि जनसंघर्ष से खुद को जोड़ना होगा.
सम्मेलन में भुवनेश्वर मेहता और नागेन्द्र ओझा जैसे वरिष्ठ नेता भी शामिल हुए.
उन्होंने कहा कि अब CPI को पुराने ढर्रे से हटकर नई सोच और नए तरीके से जनता के बीच जाना होगा.
पार्टी ने यह भी कहा कि वो बाकी वामपंथी दलों से मिलकर राज्य में एक मजबूत जन आंदोलन खड़ा करेगी.
फिलहाल CPI की यह नई शुरुआत उम्मीद जगाती है, लेकिन जनता को यह भी देखना है कि क्या यह बदलाव सच्चा है या सिर्फ एक राजनीतिक मजबूरी.

