सोमवार (12 अगस्त, 2024) को नई दिल्ली में जारी एक नागरिक रिपोर्ट के मुताबिक, “2019 के बाद छत्तीसगढ़ और झारखंड में ज्यादातर सुरक्षा शिविर आदिवासियों की निजी या सामुदायिक संपत्तियों पर उनकी सहमति के बिना और मौजूदा कानूनों का गंभीर उल्लंघन करते हुए स्थापित किए गए हैं.”
एक फैक्ट-फाइंडिंग टीम द्वारा क्षेत्रों का दौरा करने के बाद प्रकाशित रिपोर्ट, ‘सुरक्षा और असुरक्षा, बस्तर संभाग, छत्तीसगढ़, 2023-24’ में कहा गया है कि बस्तर और अन्य आदिवासी क्षेत्रों में कई कानूनों का उल्लंघन करते हुए स्थापित किए गए अर्धसैनिक शिविरों का प्रसार स्थानीय आदिवासियों पर थोपा गया है.
सरकार ने कहा है कि सड़कें बनाने, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र और मतदान केंद्र बनाने के लिए अर्धसैनिक शिविर स्थापित करना आवश्यक है, जो सभी राज्य सेवाओं के लिए जरूरी हैं.
लोगों ने फैक्ट-फाइंडिंग टीम को बताया कि वे सड़कों के विरोध में नहीं हैं लेकिन वे यह कहना चाहेंगे कि ये सड़कें कैसे और कहाँ बनाई जा रही हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है, “सड़कों का लेआउट और चौड़ाई कई मामलों में स्पष्ट रूप से दिखाती है कि वे खनन कार्यों को सुविधाजनक बनाने के लिए हैं. एक तरफ ये शिविर और सड़कें लोगों की सहमति के बिना बनाई जा रही हैं और दूसरी तरफ 2022 तक बस्तर क्षेत्र में 51 खनन पट्टे दिए गए हैं, जिनमें से सिर्फ 14 सार्वजनिक क्षेत्र के पास हैं.”
रिपोर्ट में कहा गया है कि झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले में भी स्थिति ऐसी ही है, जहां सारंडा और कोल्हान के जंगलों में पिछले चार वर्षों में कम से कम 30 शिविर स्थापित किए गए हैं.
इनमें से ज्यादातर शिविर ऐसे क्षेत्रों में स्थापित किए गए हैं जो वर्तमान में सतत खनन प्रबंधन योजना 2018 के मुताबिक संरक्षण या खनन निषेध क्षेत्र में आते हैं.
फैक्ट-फाइंडिंग टीम के सदस्यों ने नई दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “शिविरों के खिलाफ शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक विरोध को नजरअंदाज किया गया है या क्रूर तरीकों का उपयोग करके दबाया गया है, लाठीचार्ज से लेकर साइटों को जलाने और प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी तक. यह बहुत स्पष्ट है कि शिविरों का वास्तविक उद्देश्य आदिवासियों के जीवन और संवैधानिक अधिकारों की कीमत पर कॉर्पोरेट हितों, विशेष रूप से खनन हितों की रक्षा और बढ़ावा देना है.”
उन्होंने कहा, “शिविरों के आस-पास बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है. सुरक्षा बलों द्वारा उत्पीड़न आम हो गया है. यहां तक कि साप्ताहिक बाजार, जो आदिवासी समुदायों के लिए जीवन रेखा है और नियमित खरीद भी, वो भी निगरानी और पुलिस नियंत्रण के अधीन है.”
कार्यकर्ताओं ने कहा कि समय की मांग है कि कानून का सम्मान किया जाए और मानवाधिकारों के उल्लंघन को समाप्त किया जाए और पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 और वन अधिकार अधिनियम 2006 को अक्षरशः लागू करने का आह्वान किया.
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