राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने गृह मंत्रालय और छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के मुख्य सचिवों से सलवा जुडूम के पीड़ितों की लंबे समय से चली आ रही दुर्दशा और पीड़ा के मुद्दे पर अंतिम रिमांइडर जारी किया है और कार्रवाई रिपोर्ट (ATR) मांगी है.
नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और सुप्रीम कोर्ट के वकील राधाकांत त्रिपाठी द्वारा दायर याचिका पर भारत के शीर्ष मानवाधिकार पैनल ने यह आदेश पारित किया.
याचिकाकर्ता त्रिपाठी ने बड़ी संख्या में आदिवासियों से संबंधित मुद्दों पर आयोग के हस्तक्षेप की मांग की है, जिनके बारे में आरोप है कि वे सलवा जुडूम के कारण छत्तीसगढ़ से आंतरिक रूप से विस्थापित हुए हैं.
साल 2004-05 में पुलिस और नक्सली हिंसा के कारण विस्थापित लोगों की दुर्दशा आज भी जारी है. त्रिपाठी ने कहा कि 55 हज़ार से अधिक आदिवासियों को छत्तीसगढ़ छोड़कर आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और ओडिशा में पलायन करना पड़ा. ये आंतरिक रूप से विस्थापित आदिवासी आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और ओडिशा के वन क्षेत्र में रह रहे हैं.
इन आदिवासियों को विस्थापन के 17 साल से अधिक समय बीत जाने के बावजूद जॉब कार्ड, राशन कार्ड, स्वास्थ्य बीमा कार्ड, पीने योग्य पानी आदि जैसी सामाजिक कल्याण योजनाओं के लाभ से वंचित रखा गया है.
त्रिपाठी ने बताया कि जुलाई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने “सलवा-जुडूम” पर प्रतिबंध लगा दिया और छत्तीसगढ़ राज्य को माओवादी गुरिल्लाओं से लड़ने के लिए गठित किसी भी मिलिशिया बल को भंग करने का निर्देश दिया.
हालांकि, सलवा-जुडूम के पीड़ित अभी भी लंबे समय से अन्याय का सामना कर रहे हैं.
इन विस्थापित परिवारों के सामने सबसे बड़ी समस्या भूमि और आदिवासी होने का है. याचिका में कहा गया है कि भले ही ये पीड़ित वन अधिकार अधिनियम के तहत वन अधिकार के हकदार हैं लेकिन उनमें से ज्यादातर के पास व्यक्तिगत वन अधिकार (IFR) या सामुदायिक वन अधिकार (CFR) नहीं हैं और विस्थापित अनुसूचित जनजातियों को एसटी प्रमाण पत्र जारी नहीं किए गए हैं.
उन्होंने कहा कि केंद्र और राज्य सरकारों की यह निष्क्रियता और विफलता पीड़ितों को सरकार की विभिन्न सामाजिक कल्याण योजनाओं का लाभ उठाने से वंचित करती है.
नक्सल हिंसा और सलवा जुडूम के बाद ये पीड़ित पड़ोसी राज्यों में चले गए, जहां उनकी वर्तमान स्थिति दयनीय है.
त्रिपाठी ने एनएचआरसी से पीड़ितों के व्यापक सर्वेक्षण और उनके लिए सुरक्षा, आयोग के विशेष मॉनिटर द्वारा दौरा जैसे उचित डेटाबेस जैसी स्वतंत्र जांच का अनुरोध किया.
केंद्र और राज्यों से रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद एनएचआरसी अपने पूर्ण आयोग (आयोग के अध्यक्ष और सभी सदस्य) द्वारा मामले की सुनवाई करेगा.
नक्सल विरोधी अभियानों के लिए सरकार द्वारा सलवा जुडूम के उपयोग की मानवाधिकारों के उल्लंघन और आतंकवाद विरोधी भूमिकाओं में काम करने वाले खराब प्रशिक्षित युवाओं के लिए आलोचना की गई थी.
कोर्ट ने सरकार को सलवा जुडूम द्वारा कथित आपराधिक गतिविधियों के सभी मामलों की जांच करने का भी आदेश दिया.
त्रिपाठी ने कहा कि केंद्र और राज्यों की विफलता, लापरवाही और निष्क्रियता के कारण बुनियादी मानवाधिकारों का उल्लंघन जारी है. महिलाएं कुपोषण, सिकल सेल, एनीमिया और गर्भावस्था, प्रसव और मासिक धर्म स्वच्छता से संबंधित अन्य समस्याओं से पीड़ित हैं. बच्चों को उचित पोषण और देखभाल की कमी है. इसके बाद वे शिक्षा से वंचित हैं.
हालांकि ओडिशा सरकार ने अंतरिम जवाब प्रस्तुत किया है लेकिन न तो केंद्र और न ही पांच राज्यों ने आज तक एनएचआरसी को कोई जवाब दिया है.
क्या है सलवा जुडूम
4 जून 2005 को छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खिलाफ सरकार के संरक्षण में शुरु हुए सलवा जुडूम यानी कथित शांति यात्रा में बड़ी संख्या में आदिवासियों को हथियार थमाए गए थे.
उन्हें स्पेशल पुलिस आफिसर यानी एसपीओ का दर्जा दे कर माओवादियों से लड़ने के लिए मैदान में उतार दिया गया था.
पूर्व कम्युनिस्ट से कांग्रेस नेता बने महेंद्र कर्मा ने इसे शुरू किया था.
बाद में सलवा जुडूम आदिवासियों और माओवादियों के बीच बड़े पैमाने पर लड़ाई हुईं और इस क्षेत्र में अनगिनत लोगों की जान गई और विस्थापन हुआ.
सरकारी आंकड़ों पर यकीन करें तो 2005 में माओवादियों के खिलाफ शुरु हुए सलवा जुडूम के कारण दंतेवाड़ा के 644 गांव खाली हो गए. कई लाख लोग बेघर हो गये. सैकड़ों लोग मारे गए.
नक्सलियों से लड़ने के नाम पर शुरू हुए सलवा जुडूम अभियान पर आरोप लगने लगे कि इसके निशाने पर बेकसूर आदिवासी हैं. कहा गया कि दोनों तरफ से मोहरे की तरह उन्हें इस्तेमाल किया गया. यह संघर्ष कई सालों तक चला.
मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम मामले में सरकार की कड़ी आलोचना की. 5 जुलाई 2011 को सलवा जुडूम को पूरी तरह से खत्म करने का फैसला सुनाया गया.