HomeAdivasi Dailyआदिवासी युवागृह (Tribal Dormitory): सामाजिक मूल्यों, जीवन पद्धति और परंपराओं के संस्थान

आदिवासी युवागृह (Tribal Dormitory): सामाजिक मूल्यों, जीवन पद्धति और परंपराओं के संस्थान

भारत में अलग-अलग जनजातियों के अपने-अपने युवागृह रहे हैं. देश के अलग अलग राज्यों में इन युवागृहों में कई तरह की समानताएं-असमानताएं मिलती हैं. हालांकि आदिवासी समुदायों में वक्त के साथ आए बदलावों के कारण अब युवागृह जैसी संस्थाएं बहुत कम देखने को मिलती है.

आदिवासी युवागृह (Tribal Dormitory) दुनियाभर के आदिवासियों की एक पारंपरिक संस्था है. ये प्राचीन परंपरा युवाओं को एक साथ लाने का काम करती है.

आदिवासी समाज में यह एक ऐसा सामुदायिक स्थान है जहां युवा जीवन कौशल, सामाजिक मूल्य और अपनी परंपराओं के अलावा और भी बहुत कुछ सीखते हैं. इस संस्था का सबसे बड़ा योगदान आदिवासी युवाओं के बीच सामूहिकता की भावना विकसित करना होता है. युवागृह अलग-अलग आदिवासी समुदायों में अलग-अलग उद्देश्यों के लिए बनाए जाते हैं.

भारत में अलग अलग जनजातियों के अपने अपने युवागृह रहे हैं. देश के अलग अलग राज्यों में इन युवागृहों में कई तरह की समानताएं भी मिलती हैं. लेकिन कई मामलों में ये बिलकुल अलग होते हैं.

मसलन कुछ समुदायों में युवागृह में सिर्फ लड़के ही रह सकते हैं. कुछ समुदाय विशेष रूप से लड़कियों के लिए युवागृह बनाते हैं. लेकिन कुछ समुदायों में युवागृह में लड़कियों का प्रवेश वर्जित है.

कई समुदायों में युवागृह में लड़कियां और लड़के मिल कर रहते हैं. इन सभी युवागृहों में एक समानता यह मिलती है कि यहां पर समाज के बुजुर्ग, जानकार और ज़िम्मेदार लोगों की देखरेख में युवा शिक्षा लेते हैं.

आम तौर पर ये युवागृह गाँव के घरों से थोड़ी दूरी पर होते हैं. युवागृह के हर सदस्य का कार्य पहले से तय होता है और उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे शांति से अपना काम करें और छात्रावास के अनुशासन को भंग न करें. विभिन्न समुदायों में इन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है. हर समुदाय के अपने तौर-तरीके हैं और इन्हीं तौर-तरीकों के हिसाब से कार्य का विभाजन किया जाता है. इसी तरह से यहां का प्रबंधन कार्य होता है.

उराँव आदिवासी इसे धुमकुड़िया बोलते हैं तो जुआंग आदिवासी इसे माजंग कहते हैं. बोंडा जनजाति में इस संस्थान को शेलानिडिंगो कहते हैं. मुंडा आदिवासी इसे गिटियोरा कहते हैं तो भुइयां इसे दरबार कहते हैं. डोंगरिया कोंध समुदाय में इसे दा-शा-हादा के अलावा भी कई नामों से जाना जाता है.

धुमकुड़िया

धुमकुड़िया उराँव जनजाति के युवागृह का नाम है. छोटानागपुर क्षेत्र के उराँव आदिवासी अपनी पारम्परिक सामाजिक पाठशाला को धुमकुड़िया कहते हैं. ये पाठशाला प्राचीन काल से गाँव के लोगों द्वारा ही चलाई जाती रही है.

उराँव आदिवासियों के अनुसार यह एक ऐसा केंद्र है जहां युवाओं को लयबद्ध तरीके से सामाजिक जीवन जीने की कला सिखाई जाती है और उनके कौशल विकास पर ध्यान दिया जाता है. उराँव समुदाय के लिए ये छात्रावास और पाठशाला सांस्कृतिक शिक्षा का भी केंद्र है.

इस संस्थान की स्थापना का उद्देश्य समुदाय के युवा को आदर्श बनाना था. जिससे वे दूसरों का सम्मान करें, जीवन में अनुशासन और आत्म-नियंत्रण के महत्व को समझें. उराँव आदिवासी समाज में धुमकुड़िया एक ऐसी व्यवस्था थी जो बिना भेदभाव के गांव के सभी लड़के-लड़कियों के लिए समान थी.

कुछ लेखकों ने इसे यौन-शोषण स्थल के रूप में पेश किया तो कई मानवशास्त्रियों का कहना है कि ये समय के हिसाब से मेल नहीं खाती. लेकिन ज्यादातर चिंतकों ने इसे समाज की जरूरत बताया और इसकी सराहना की है.

समय के साथ यह पारम्परिक ग्रामीण पाठशाला विलुप्त होने की स्थिति में है. कुछ दशक पूर्व तक यह संस्था किसी-किसी गाँव में दिखाई दे जाती थी लेकिन आज की नई और आधुनिक शिक्षा पद्धति के प्रचार-प्रसार के बाद यह इतिहास के पन्ने में सिमटती नज़र आ रही है.

हालांकि अब कुछ उरांव संगठन इस संस्था को पुनर्जीवित करने के प्रयास कर रहे हैं.

माजांग

ओडिशा के विशेष रुप से कमज़ोर आदिवासी (PVTG) में शामिल जुआंग समुदाय का पारंपरिक युवागृह इस समुदाय की विशेषता है. ये आदिवासी इसे माजांग या मंडाघर बोलते हैं. इस संस्था का सदस्य बनने का अधिकार केवल अविवाहित लड़के और लड़कियों को ही है. चांदनी रात में यहां के सदस्य लड़के और लड़कियां मिलकर गीत गाते हैं और नृत्य करते हैं. ये खुशनुमा रातें उनके लिए मौज-मस्ती से भरपूर होती हैं.

माजांग, गाँव के बीच में स्थित एक आयताकार ढाँचा है. युवाओं के लिए यह एक सामुदायिक घर तो बुजुर्गों के लिए कोर्ट हाउस है. अतिथियों के लिए यह गेस्ट हाउस का काम करता है. यह संगीत के वाद्य यंत्र रखने की भी जगह है. इसका उपयोग सामुदायिक अनुष्ठानों के लिए, नृत्य और संगीत के लिए सांस्कृतिक केंद्र और जुआंग कला और शिल्प के संग्रहालय के रूप में भी किया जाता है.

दरबारघर

पौडी भुइयां का युवागृह “दरबारघर” आमतौर पर गाँव के बीच में बनाया जाता है. यह गांव के अविवाहित लड़कों के लिए बना घर है जहां कई मौकों पर अन्य पुरुष सदस्यों को भी आराम करने की इजाजत होती है. यह गाँव के अतिथि गृह, अन्न भंडार के रूप में भी कार्य करता है. यहां ग्रामीण स्तर के कई मामलों का फैसला भी लिया जाता है.

अविवाहित लड़के अपने टैम्बोरिन (संगीत वाद्ययंत्र) को दरबार की भीतरी दीवारों पर लगी कीलों या सींगों पर लटका कर रखते हैं. दरबार के एक कोने में बने लकड़ी के मंच पर अनाज के डिब्बे रखे जाते हैं. सर्दियों के दौरान पुरुष छात्रावास में आग की लपटों का आनंद लेते हैं. इसके अलावा, एक तरफ गैसिरी खूंटा नामक एक खंभा भी होता है जो नक्काशीदार लकड़ी से बना होता है. यह स्तंभ ग्राम देवता को दर्शाता है. विभिन्न अवसरों पर इसके पास अनुष्ठानों का आयोजन भी किया जाता है.

आधुनिकीकरण के प्रभाव के कारण अब युवागृह संगठन में पहले वाली विशेषताएं नहीं रहीं है. हालाँकि, कई पौडी भुइयां ने अभी भी अपनी पहचान और सामाजिक सांस्कृतिक विशेषताओं को बरकरार रखा है. पौडी भुइयां गांवों में 5 से 20 परिवार हैं और कुछ गांव ऐसे भी हैं जिनमें लगभग साठ परिवार हैं. गांव के आसपास के जंगल खत्म होने और ग्रामीण दैवीय श्राप से पीड़ित होने पर पौडी भुइयां अपने गांव की जगहें बदल रहे थे जिससे गांव दूसरी जगह फैले और आबादी भी बढ़ी.

दा-शा-हादा

डोंगरिया लड़के और लड़कियां जैसे-जैसे बड़े होते हैं और युवावस्था में पहुंचते हैं, उन्हें पारंपरिक युवा संगठन यानी युवागृह में भेज दिया जाता है.

उनके युवागृह को दा-शा-हादा, दा-शा-सिका, धांगड़ी साला या अदस्बेटा कहा जाता है जिसका अर्थ है अविवाहित लड़की का घर. अविवाहित लड़कों (धांगडा) के पास कोई शयनगृह नहीं होता. वे छोटे-छोटे समूहों में किसी के बरामदे में सोते हैं. उनके सोने के स्थान को धांगरेंगा डुकी के नाम से जाना जाता है.

दा-शा-हादा गांव के अंतिम छोर पर आवासीय घरों के पीछे, पानी के स्रोत के पास स्थित होता है. इसकी दीवारें सजी हुई और अलग ही दिखती हैं. लड़के और लड़कियाँ इसे स्वयं बनाते हैं और इसका रखरखाव भी खुद ही करते हैं.

अविवाहित लड़कियां अपनी रातें इस स्थान पर बिताती हैं. खुली जगह पर नाच-गाना भी करती हैं. यहां लड़के-लड़कियां घुलते-मिलते हैं. एक साथ नाचते-गाते हैं, चुटकुले सुनाते हैं, दोस्त बनाते हैं, एक दूसरे को उपहार देते हैं. ये अपना जीवनसाथी भी यहीं चुनते हैं. कभी-कभी विवाहित पुरुष भी इनके साथ शामिल हो जाते हैं लेकिन विवाहित महिलाओं को ये अनुमति नहीं होती है.

इस कबीले के कुछ नियम भी हैं. इन नियमों का पालन करना ज़रूरी होता है. एक कुल और गांव के लड़कों को रात में छात्रावास में लड़कियों से मिलने की अनुमति नहीं होती. केवल दूसरे कुल और गाँव के लड़कों को ही अनुमति दी जाती है. वे देर शाम को आते हैं और सुबह होने से पहले निकल जाते हैं.

यह एक प्रशिक्षण केंद्र भी है. यहां लड़कियां अपने बड़ों से कढ़ाई की सुई का काम, अपने पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्र बजाने की कला सीखती हैं. इसके अलावा यहां जीवन जीने की तकनीक, सांस्कृतिक प्रथाएं, सामाजिक मूल्य, रीति-रिवाज, आर्थिक गतिविधियां, लोकगीत, कला और शिल्प भी सिखाया जाता है.

लड़के और लड़कियां अपनी-अपनी श्रम समितियां बनाते हैं. अपेक्षा की जाती है कि ज़रूरत के वक्त वे ग्रामीणों को सेवा देंगे. ये काम करके उन्हें जो पैसा मिलता है उसका उपयोग आम दावतों की व्यवस्था करने में किया जाता है. ये काम करके युवा रहन-सहन और आजीविका के तरीके सीखते हैं.

घोटुल

घोटुल छत्तीसगढ़ के बस्तर, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश के पड़ोसी क्षेत्रों में मुरिया और गोंड आदिवासियों की संस्कृति का एक अहम हिस्सा है. घोटुल वह स्थान है जहाँ अविवाहित युवा लड़के और लड़कियां एक साथ रहते हैं.

घोटुल एक सामाजिक संस्था के रूप में गाँव के बाहरी इलाके में लड़के और लड़कियों का क्लब होता है. यह उनके मनोरंजन का एक स्थान है जहां युवा लड़के-लड़कियां नाच-गाने का आनंद लेते हैं. यह उनकी संस्कृति के प्रसार का भी स्थल है.

घोटुल ब्रह्मचर्य जीवन के जैसा है जब बड़े होने वाले लड़के और लड़कियाँ गुरु के आश्रम में जाते थे और अपना जीवन उद्देश्य और उदारता के साथ जीने के लिए शिक्षा ग्रहण करते थे.

गोटुल पर देखिये यह ग्राउंड रिपोर्ट

घोटुल लकड़ी, मिट्टी और घास से बना होता है. इसके सामने लकड़ी के खंभों पर घास या खपरैल की छत से एक स्थान बनाया जाता है. यह एक लकड़ी की बाड़ से आस-पास के इलाके से अलग होता है. इस सीमा के अंदर एक लंबा-चौड़ा आंगन होता है जिसके बीच में एक खंभा होता है.

चेलिक (युवा पुरुष) और मोतियारी (युवा महिलाएं) इस स्तंभ के चारों ओर घूमते हैं और नाचते-गाते हैं. घोटुल के कमरे चौकोर आकार के होते हैं. कमरे के बगल में एक खुली जगह होती है, जहाँ केवल छत बनी होती है. यह जगह आग जलाने के लिए होती है.

घोटुल के साथी इन कमरों में रात बिताते हैं और कई तरह की कहानियां सुनते और सुनाते हैं. आदिवासी समुदाय के बच्चे पांच से दस वर्ष की उम्र में अपने आप घोटुल के सदस्य बन जाते हैं. जब भी यहां कोई नया सदस्य आता है तो उसे एक नया नाम दिया जाता है.

मोरंग

नागाओं में मोरंग युवागृह सबसे प्रसिद्ध है. यह गांव के युवाओं के लिए एक तरह का कुंवारा छात्रावास है और इसमें कई तरह के काम किए जाते हैं. नागाओं में पहले से यह परंपरा थी कि यौवन प्राप्त करने के बाद सभी लड़कों को मोरुंग जाना पड़ता था.

छः या सात साल की उम्र में मोरंग में प्रवेश करने वाला लड़का तब तक वहीं रहता है जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती और वह अपना खुद का घर नहीं बना लेता. मोरंग नागाओं के लिए शिक्षा केंद्र के रूप में कार्य करता है, जहाँ पारंपरिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है.

नागा समुदाय में अपने समाज के नवयुवकों को अनुशासित जीवन जीने का तरीका सिखाने के लिए यह महत्वपूर्ण संस्था है. उन्हें बुजुर्गों द्वारा युद्ध, लड़ाई, कुश्ती, खेल, हस्तशिल्प, सेक्स और नैतिक शिक्षा, धार्मिक दर्शन आदि की तकनीक सिखाई जाती हैं.

ये शयनगृह कभी-कभी अतिथियों के लिए गाँव के हॉल या विश्रामगृह के रूप में भी काम करते हैं, लेकिन मूल रूप से ये युवा क्लब और युवा शयनगृह हैं, जो अविवाहित लड़कों या लड़कियों द्वारा और उनके लाभ के लिए चलाए जाते हैं.

भारत के आदिवासी इलाकों और समुदायों में वक्त के साथ कई बड़े बदलाव आए हैं. इन बदलावों में से एक बड़ा बदलाव यह भी है कि अब युवागृह जैसी संस्थाएं आदिवासी समुदाय में निष्क्रिय ही हैं. कुछ राज्यों में अब इन संस्थाओं को प्रतीक के तौर पर जीवित किया जा रहा है.

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