HomeAdivasi Dailyआदिवासी छात्रों को भोजन के नाम पर बीमारियां दी जा रही

आदिवासी छात्रों को भोजन के नाम पर बीमारियां दी जा रही

मध्य प्रदेश के रहटगांव से लेकर तेलंगाना और महाराष्ट्र तक, एकलव्य और आश्रम स्कूलों में घटिया भोजन और लापरवाही से परेशान आदिवासी छात्र और अभिभावक

देशभर में आदिवासी बच्चों के लिए शुरू किए गए एकलव्य मॉडल रेज़िडेंशियल स्कूलों का उद्देश्य था उन्हें बेहतर शिक्षा के लिए सुरक्षित माहौल देना.

लेकिन इन स्कूलों से जुड़ी घटनाएं यह सवाल उठाने लगी हैं कि क्या इन संस्थानों में सुरक्षा और स्वास्थ्य वाकई प्राथमिकता में हैं.

मध्य प्रदेश के हरदा ज़िले के रहटगांव स्थित एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय (EMRS) से एक चिंताजनक खबर सामने आई है.

यहां पढ़ने वाले आदिवासी छात्रों ने आरोप लगाया है कि स्कूल मेस में उन्हें सड़ा हुआ खाना परोसा जा रहा है.

दाल और सब्जियों में अकसर इल्लियां निकलती हैं. कई बच्चों ने बताया कि ऐसा खाना खाने के बाद उल्टी और पेट दर्द की शिकायत होती है.

छात्रों ने आखिरकार चुप्पी तोड़ते हुए प्रशासन से शिकायत की. उन्होंने कलेक्टर कार्यालय पहुंचकर बताया कि बार-बार शिकायत करने पर भी न तो खाने की गुणवत्ता सुधरी, न ही स्कूल प्रशासन ने कोई सख्त कदम उठाया.

विद्यालय के छात्रों ने बताया कि मेस में परोसा जाने वाला खाना बेहद घटिया गुणवत्ता का है. दाल में कीड़े और सब्जी में इल्लियां निकलती हैं.

छात्रों का कहना है कि जब भी वे शिकायत करते हैं, स्टाफ उन्हें डांटकर चुप करवा देता है.

छात्रों ने साफ शब्दों में कहा कि यह पहली बार नहीं हुआ, बल्कि महीनों से यही स्थिति बनी हुई है.

खाने की खराब गुणवत्ता के अलावा स्कूल में साफ-सफाई की हालत भी दयनीय है.

बिस्तर और कमरे नियमित रूप से साफ नहीं किए जाते. बच्चों ने बताया कि स्कूल में गंदगी फैली रहती है जिससे बीमारियों का खतरा बढ़ गया है.

कई छात्रों ने यह भी आरोप लगाया कि प्रिंसिपल ने उन्हें ऊपरी अधिकारियों से शिकायत न करने की चेतावनी भी दी थी. इस कारण कई बच्चे डर के कारण भी चुप रहते हैं.

शिकायत करने पहुंचे छात्रों ने कहा कि वे सभी आदिवासी समुदाय से हैं और उनके साथ विद्यालय में भेदभाव किया जा रहा है.

उनका कहना है कि खराब भोजन, गंदगी और डर के माहौल ने उनके स्वास्थ्य और मानसिक स्थिति पर बुरा असर डाला है. बच्चों ने शिकायत करते हुए कहा, “हमारे साथ अन्याय हो रहा है, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं है.”

संयुक्त कलेक्टर ने दिए जांच के आदेश

बच्चों की शिकायत सुनने के बाद संयुक्त कलेक्टर सतीश राय ने जांच के आदेश दिए हैं.

उन्होंने कहा कि फिलहाल विद्यालय में छुट्टियां हैं लेकिन स्कूल खुलते ही वह स्वयं जाकर भोजन की गुणवत्ता की जांच करेंगे.

लेकिन सवाल यह है कि क्या यह जांच भी बाकी मामलों की तरह केवल औपचारिकता के लिए ही होगी या कोई बदलाव होगा.

देशभर में दोहराई जा रही वही कहानी

हरदा की यह घटना कोई अकेला मामला नहीं है. आश्रम स्कूलों और एकलव्य मॉडल रेसिडेंशियल स्कूलों से खराब खाना खाने की वजह से बार-बार फूड प्वाइज़निंग की घटनाएं सामने आती हैं.  

तेलंगाना, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में भी बीते वर्षों में सैकड़ों आदिवासी छात्र-छात्राएं इस समस्या का शिकार हुए.

आंकड़े बताते हैं भयावह सच्चाई

तेलंगाना टुडे में दिसंबर 2024 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ़ 2024 में ही राज्यभर के ट्राइबल रेज़िडेंशियल स्कूलों में 423 छात्र फूड प्वाइज़निंग के कारण बीमार हुए.

यानी औसतन हर दिन कम से कम एक आदिवासी बच्चा इस समस्या का शिकार बना.

इस रिपोर्ट के हिसाब से सबसे ज़्यादा मामले कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों से सामने आए. यहां 168 बच्चियां बीमार पड़ी.

2025 में हालात सुधरने के बजाय और बिगड़े. डेक्कन क्रॉनिकल की 14 जुलाई 2025 के एक लेख के मुताबिक, तेलंगाना के आवासीय स्कूलों में हर महीने भोजन विषाक्तता के मामले सामने आते हैं.

इसमें बताए डेटा के हिसाब से तेलंगाना के आश्रम स्कूलों में सिर्फ एक साल में 1,000 से ज़्यादा छात्राएं फूड़ प्वाइज़निंग का शिकार हुई और इसमें से 50 की मौत हो गई.

अगस्त 2024 में भी महाराष्ट्र के पालघर ज़िले के दहानू तालुका से ऐसा ही मामला सामने आया था. तब पीटीआई में कम से कम 50 आदिवासी छात्रों की फूड प्वाइज़निंग के कारण बीमार पड़ने की खबर प्रकाशित हुई थी.

इसके कुछ ही दिनों बाद डेक्कन हेराल्ड ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि पालघर के दहानू, तलासरी और वसई इलाके के 20 आश्रम स्कूलों से करीब 250 बच्चे उल्टी, चक्कर और पेट दर्द जैसी शिकायतों के बाद अस्पताल भेजे गए.

बाद में इस मामले में भी फूड़ प्वाइज़निंग की पुष्टि हुई थी. यानी सिर्फ़ अगस्त महीने के आस-पास ही महाराष्ट्र के आदिवासी आश्रम स्कूलों से सैकड़ों छात्र एक साथ बीमार पड़े थे.

इसी दौरान, बॉम्बे हाईकोर्ट ने 10 अक्टूबर 2024 को इस मामले पर कड़ी टिपण्णी की थी. कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया कि वह विस्तृत हलफ़नामा दाखिल करे और सुरक्षा के इंतज़ाम सुनिश्चित करे.

कम से कम कोर्ट के दखल के बाद तो मामलों में सुधार होने चाहिए थे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. 

जुलाई 2025 में गुजरात के दाहोद ज़िले के मांडोर लुखाड़िया गांव से भी एक साथ कई आदिवासी छात्राओं के बीमार होने का मामला सामने आया.

लिमखेड़ा मॉडल गर्ल्स रेज़िडेंशियल स्कूल में अस्थायी रूप से रह रही मंडोर लुखाडिया की 60 छात्राएं फूड प्वाइज़निंग से बीमार हुईं.

सरकार की ज़िम्मेदारी या जवाबदेही की बात करें तो मिलता है सिर्फ जांच का आश्वासन और निगरानी की तसल्ली.

जांच, कमेटी और फिर खामोशी

हर घटना के बाद जांच का आश्वासन दिया जाता है. टास्क फोर्स कमेटी के गठन की घोषणा होती है.

यदि कोई कमेटी बना भी दी जाती है तो उसकी रिपोर्ट कभी पब्लिक डोमेन में नज़र ही नहीं आती.

उदाहरण के लिए पिछले साल नवंबर में तेलंगाना की तत्कालीन मुख्य सचिव शांति कुमारी ने खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और आवासीय स्कूलों और छात्रावासों में गुणवत्तापूर्ण भोजन उपलब्ध कराने के लिए एक टास्क फोर्स समिति गठित करने का आदेश जारी किया था.

लेकिन इसके बाद ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं मिलती जिससे ये पता चल सके कि ये कमेटी बनी भी या नहीं और कमेटी ही नहीं बनी हो तो रिपोर्ट के तैयार होने या सार्वजनिक होने का तो कोई सवाल ही नहीं है.

तस्वीर साफ है, चाहे तेलंगाना हो, महाराष्ट्र हो या गुजरात, आदिवासी बच्चों की शिक्षा के लिए बनाए गए आश्रम स्कूल आदिवासी छात्रों की ज़ंदगी को दांव पर लगा रहे हैं.

संसद से कोर्ट तक उठे सवाल

यह समस्या नई नहीं है. संसदीय स्थायी समिति  ने 2014 में अपनी रिपोर्ट में बताया था कि महाराष्ट्र के आश्रम स्कूलों में 2001 से 2013 के बीच 793 बच्चों की मौत हुई. इसकी मुख्य वजहें घटिया खाना, गंदगी और लापरवाही थीं.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने भी 2017 में महाराष्ट्र में एक दशक में 500 से अधिक आदिवासी छात्राओं की मौत को मानवाधिकार उल्लंघन बताते हुए सरकार से रिपोर्ट मांगी थी.

तेलंगाना हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने साफ कहा है कि बच्चों का “भोजन का अधिकार” संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और गरिमा का हिस्सा  है.

इसके बावजूद, आदिवासी बच्चों की थाली में सड़ा हुआ खाना आज की सच्चाई बयां करता है.

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