असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने हाल ही में गुवाहाटी के नज़दीक सोनापुर के कचुटाली इलाके का दौरा किया.
यह वही इलाका है, जहां पिछले साल सितंबर में एक बड़े बेदखली अभियान के दौरान हिंसा भड़क गई थी और दो लोगों की मौत हो गई थी.
मुख्यमंत्री का यह दौरा ऐसे समय में हुआ है, जब राज्य सरकार ने इस आदिवासी क्षेत्र को असम पुलिस की 10वीं बटालियन को स्थानांतरित करने के लिए चुना है.
सरकार का तर्क है कि इस कदम से आदिवासी बेल्ट की ज़मीन को भविष्य में अतिक्रमण से बचाया जा सकेगा.
हालांकि सरकार का यह कदम अब एक नए विवाद का केंद्र बन गया है. सरकार का दावा है कि 1000 बीघा में से केवल 100 बीघा ज़मीन पर पुलिस बटालियन का निर्माण होगा और शेष ज़मीन का उपयोग आदिवासियों के हित में अस्पताल, कॉलेज और अन्य विकास परियोजनाओं के लिए किया जाएगा.
मुख्यमंत्री सरमा ने स्वयं यह घोषणा की लेकिन इसके बावजूद आदिवासी समुदाय के भीतर इस दावे को लेकर चिंता और असहमति का माहौल है.
वित्त मंत्री अजंता नियोग ने बजट में जिस योजना की घोषणा की थी, उसमें यह कहा गया कि आदिवासी भूमि की सुरक्षा के लिए पुलिस बल की उपस्थिति ज़रूरी है.
लेकिन सवाल यह है कि क्या पुलिस की मौजूदगी से वास्तव में ज़मीन की सुरक्षा होगी या यह एक नए प्रकार का नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश है?
ट्राइबल पीपल्स कॉन्फेडरेशन के नेता मणिक रोंगहांग का सवाल है कि आदिवासी समुदाय को पुलिस कैंप से क्या लाभ मिलेगा?
उनके अनुसार पहले से ही सीआरपीएफ (CRPF) और आईटीबीपी (ITBP) जैसे अर्धसैनिक बलों के कैंप इस क्षेत्र में मौजूद हैं.
उनकी मौजूदगी से आदिवासियों को कोई फायदा नहीं हो रहा है बल्कि आदिवासी ज़मीन लगातार घटती जा रही है.
वहीं बोडो कछारी यूथ यूनियन के जितें महिलारी सवाल उठाते हैं कि जब पुलिस बटालियन गुवाहाटी में ही स्थित है तो उसे आदिवासी बेल्ट में शिफ्ट करने की क्या ज़रूरत है?
उनका कहना है कि यह कदम आदिवासी ज़मीन पर सरकारी कब्ज़े का रास्ता खोल सकता है.
असम लैंड एंड रेवेन्यू रेगुलेशन (1886) के तहत आदिवासी बेल्ट की ज़मीन पर केवल अनुसूचित जनजाति, चाय जनजाति, अनुसूचित जाति और गोरखा समुदाय के लोग ही भूमि खरीद सकते हैं.
बीजेपी और कांग्रेस इस कानून की व्याख्या अपने-अपने तरीके से करती रही हैं.
बीजेपी आरोप लगाती है कि कांग्रेस ने वोट बैंक के लिए इस क्षेत्र में घुसपैठ को बढ़ावा दिया. वहीं कांग्रेस का कहना है कि बीजेपी इस कानून को धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल कर रही है.
विशेषज्ञों का मानना है कि सरकारें इस कानून को “भूमि संरक्षण” के बजाय “जनसंख्या प्रबंधन” के औज़ार की तरह इस्तेमाल कर रही हैं.
मुख्यमंत्री सरमा ने यह भरोसा ज़रूर दिलाया है कि बटालियन के बाद बची ज़मीन पर आदिवासी विकास के लिए योजनाएं शुरू होंगी. लेकिन आदिवासी संगठन इस पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं.
उनका कहना है कि पुलिस की मौजूदगी से डर और निगरानी का माहौल बनेगा न कि विकास का.