HomeColumnsरंजीता, रजनी, निर्मला, बाहमुनी को दुत्कार कर फूलो-झानो का सम्मान कैसे होगा?

रंजीता, रजनी, निर्मला, बाहमुनी को दुत्कार कर फूलो-झानो का सम्मान कैसे होगा?

दुमका में अंग्रेजों और ज़मींदारों से लोहा लेने वाली हूल की नायिका फुलो-झानो की मूर्ती लगी है. इन दो बहनों की क़ुर्बानी बेमिसाल है. लेकिन संताल परगना में आज औरतें जो लड़ाई लड़ रही हैं वो कई मायने में फूलो-झानों के संघर्ष से भी बड़ा है. उनको ज़मींदारों और अंग्रेजों के शोषण से लड़ना था. लेकिन आज की आदिवासी औरत पूँजीपतियों के साथ साथ अपने ही समाज से भी लड़ रही हैं. इस लड़ाई में कई बार उनका परिवार भी उनके ख़िलाफ़ खड़ा होता है.

झारखंड की उपराजधानी कहे जाने वाले शहर दुमका से क़रीब 12 किलोमीटर दूर चुटोनाथ धाम है. यहाँ पर एक शिव मंदिर और आदिवासियों का देव स्थान पहाड़ बाबा है. शिव मंदिर में लोग जल और फल-फूल चढ़ाते हैं और पहाड़ बाबा पर जानवरों की बलि चढ़ाई जाती है.

आदिवासी देव स्थान पहाड़ बाबा पर बलि के साथ साथ महुआ की शराब चढ़ाने की परंपरा भी है. यहाँ एक और प्रथा है कि जो बलि यहाँ पर चढ़ाई जाती है उसको आप घर नहीं ले जा सकते हैं. बल्कि उसे यहीं आस-पास पका कर मिल बाँट कर खाना होता है. 

चुटोनाथ मंदिर के पास ही महुआ बेच रही महिलाओं में रंजिता मूर्मु भी शामिल थीं. हमारी टीम जब शूटिंग में व्यस्त थी तो उनसे मेरी लंबी बातचीत हुई थी. यह बातचीत आदिवासी समुदाय की महिलाओं के बारे में मेरी धारणाओं को तोड़ रही थी. 

रंजीता मूर्मु कहती हैं कि बेशक आपको हमारे शराब बेचने में हमारे समाज का उन्मुक्त माहौल नज़र आता होगा. आपको लगता होगा कि देखो आदिवासी समुदाय में महिलाएँ खुलेआम शराब बना और बेच सकती हैं. उनके शराब पीने को भी बुरा नहीं माना जाता है. 

जब आप दूर खड़े हो कर देखते हैं तो ऐसा नज़र आना स्वभाविक भी है. आप यह भी समझती होंगी कि आदिवासी औरतों को बाक़ी समुदायों की औरतों की तुलना में अधिकार ज़्यादा हासिल हैं. 

मैंने उनके इस बात का जवाब देने के कोशिश में कहा था, “ मैंने सुना तो यही है कि आदिवासी औरतों को अपना जीवन साथी चुनने के मामले में या फिर उस रिश्ते से बाहर आने में किसी की अनुमति की ज़रूरत नहीं होती है.” 

रंजीता ने सिर्फ़ मैट्रिक तक की पढ़ाई की है. लेकिन उनकी बातचीत से साफ़ था कि वो आदिवासी महिलाओं के मसलों समझती हैं. इसके साथ ही वो इन मसलों के समाधान और उसके लिए संघर्ष को भी जानती हैं. 

वो कहती हैं, “अगर आप हमारे समाज में झांकेगी तो पाएँगी कि हमारे मर्द कुछ ही दिन खेत में काम करते हैं. जब खेतों में काम नहीं होता है तो उनका ज़्यादा टाईम शराब पीने में ही बीत जाता है. उन्हें घर-परिवार या फिर बच्चों की पढ़ाई लिखाई की कोई फ़िक्र नहीं होती है. “ 

रजींता कहती हैं कि परिवार के लिए खाना जुटाना और बच्चों को सँभालना यह सब काम औरतों के जिम्मेदारी बन जाता है. लेकिन परिवार और समाज के फ़ैसलों में आदिवासी समुदाय औरतों को शामिल नहीं करता है. 

वो कहती हैं, “गाँव में मुखिया, माँझी और पंच सब का ज़ोर कमजोर औरतों पर चलता है. वह किसी को डायन घोषित करके प्रताड़ित करते हैं तो किसी का बिटलाह (बहिष्कार) का फ़रमान जारी कर देते हैं.”

रंजीता एक गहरी साँस लेती हैं और आगे बोलती हैं, “हमारे समाज के रूढ़िगत नियम औरतों को बोलने और विरोध करने का हक़ नहीं देते हैं. ये नियम औरतों को नेतृत्व देना तो छोड़िए प्रतिनिधित्व तक नहीं देते हैं.”

जब वो बात कर रहीं थीं तो उनके चेहरे के भाव भी लगातार बदल रहे थे. इसी क्रम में वो बड़े दृढ़ निश्चय के भाव के साथ बोली कि अब बदलाव हो रहा है. अब औरतें समाज के सम्मान और रूढ़ीगत नियमों (Costmary Law) के नाम पर प्रताड़ना बर्दाश्त नहीं करना चाहती हैं. 

निर्मला पुतुल के साथ चित्रिता सान्याल

यह बात सही है कि अभी भी आपको आदिवासी इलाक़ों से डायन या फिर बहिष्कार के नाम पर आदिवासी औरतों की प्रताड़ना की ख़बरें मिलती होंगी. लेकिन अब ये ख़बरें दबती नहीं हैं.

इन ख़बरों में अब आप एक और बात नोटिस करेंगे कि ये ज़ुल्म कमजोर और अकेली पड़ गई औरतों पर ज़्यादा होता है. लेकिन इन मामलों में औरतें आवाज़ भी उठा रही हैं और लड़ भी रही हैं.

वो आगे कहती हैं कि आदिवासी औरतों को चुप कराने की बहुत कोशिशें होती हैं. उनको डराने, मार-पीट कर या फिर बदनाम कर चुप रहने को मजबूर किया जाता है. लेकिन आप देखेंगे कि अब आदिवासी औरतें चुप नहीं हो रही हैं. 

इस संघर्ष की ही देन है कि अब औरतें मुखिया भी बन रही हैं. अब माँझी थान में भी औरतों की मौजूदगी मिलती है. रंजीता ने बताया कि वो ख़ुद एक स्वयं सहायता समूह की सदस्य हैं. 

रंजीता की बातें उन आदिवासी औरतों के दावों की तस्दीक़ कर रहीं थीं जिन दावों को आमतौर पर समाज को बदनाम करने की साज़िश बता कर ख़ारिज कर दिया जाता है. 

अभी पिछले दिनों दुमका की रजनी मूर्मु का लिखा पढ़ा और उन्हें कई बार सोशल मीडिया पर सुना. उन्होंने अपने समाज में व्याप्त कई बुराई पर उँगली उठाई तो कुछ लोग उन्हें बदनाम करने पर उतारू हो गए. उन्होंने हाल ही में बताया कि उनकी जान को ख़तरा भी हो सकता है. 

रजनी मूर्मु एक पढ़ी लिखी संताली महिला हैं. आदिवासी समुदाय के मसलों पर उनकी राय और समझ बिलकुल स्पष्ट है. विस्थापन, ज़मीन अधिग्रहण, वन अधिकार या फिर रोज़ी रोटी के सवाल, इन मसलों पर वो मुखर हैं. 

उनका लिखा पढ़ेंगे तो यह भी समझते देर नहीं लगेगी कि वो आदिवासियों के संघर्ष को कमजोर करने की चालाकियों को भी खूब समझती हैं. लेकिन वह यह नहीं मानती हैं अगर समाज के अंदर की बुराई को उजागर किया जाता है तो उससे आदिवासी समुदाय की बड़ी लड़ाई यानि जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई कमज़ोर होती है. 

आदिवासी समुदाय में ठेकेदार टाइप के लोग रजनी मूर्मु और उनके जैसी दूसरी महिलाओं को सोशल मीडिया और दूसरे मंचों पर घेरते हैं. उन्हें लाइमलाइट का भूखा और आदिवासी समाज को बदनाम करने वाली औरत के तौर पर पेश करने की कोशिश की जाती है.

लेकिन यह भी सच है कि इस तरह की महिलाओं की आवाज़ को अब ख़ारिज नहीं किया जा सकता है. समाज में ये आवाज़ें बदलाव के अंकुर पैदा कर रही हैं. इसके साथ ही आवाज़ उठाने वाली औरतों की तादाद में भी इज़ाफ़ा कर रही हैं. 

संताल परगना की यात्रा में कई महिलाओं से मेरी मुलाक़ात और लंबी बातचीत हुई. इनमें नेता, अध्यापिका, पत्रकार, कवि और सामाजिक कार्यकर्ता सभी शामिल थीं. एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी, जैसे जैसे मुलाक़ातों का यह सिलसिला आगे बढ़ रहा था, इनकी समझ, संघर्ष और क्षमता के प्रति मेरे मन में सम्मान बढ़ रहा था.

ऐसा नहीं था कि मैं आदिवासी मर्दों से नहीं मिल रही थी या फिर सिर्फ़ आदिवासी औरतों की स्थिति या राय जानने निकली थी. दरअसल यह कहानी तो मैंने सोची ही नहीं थी. मेरी बात तो औरतों और मर्दों दोनों से ही हो रही थी. अलग अलग कहानियों के सिलसिले में यह बातचीत चल रही थी.

लेकिन बातचीत के इस सिलसिले में मुझे यह लगा कि आदिवासी समुदाय के मसलों पर पुरूष या तो जानबूझकर कुछ बातों को टाल जाते है या उन्हें अंदाज़ा ही नहीं है कि समुदाय के भीतर भी कुछ बदलाव की बेचैनी है. 

इस सिलसिले में दुमका ज़िले की मसलिया ब्लॉक के एक गाँव की बाहमुनी बास्के से हुई बातचीत का ज़िक्र ज़रूरी लगता है. एक रिटायर्ड टीचर की पत्नी बाहमुनी ज़्यादा पढ़ी लिखी नहीं हैं. लेकिन समाज के मसलों की बारीकियों को समझती हैं.

कुछ दिनों पहले ही उनके घर के ही सामने के घर में एक औरत को डायन बता कर मार दिया गया. आमतौर पर इस तरह की घटनाओं में औरतें चुप ही रहती हैं. गाँव के बुजुर्ग और पंच ही इस तरह के मामलों में बोलते हैं.

लेकिन बाहमुनी इस मामले में हमसे खुल कर बात कर रही थीं. उनका कहना था कि जिसने डायन बता कर अपनी ही बड़ी भाभी को मार दिया, अपराधी है. उसे सज़ा मिलनी चाहिए, जिससे इस तरह का अपराध करने से लोग डरें. 

बाहमुनी कहती हैं, “हमारे गाँव में अब जागरूकता आ रही है, लेकिन कुछ परिवार अभी भी ग़रीबी और दूसरी वजहों से पीछे छूट रहे हैं. उन्हीं परिवारों की औरतों के साथ इस तरह का अपराध होता है.” 

बाहमुनी बताती हैं कि जिसने डायन बता कर अपनी ही भाभी को मार दिया उसकी पत्नी काफ़ी दिनों से बीमार थी. यहाँ के डॉक्टरों ने बताया था कि उसे इलाज के लिए राँची भेजना ज़रूरी है. लेकिन या तो उसके इलाज के लिए पैसे नहीं थे या फिर वो पैसा ख़र्च नहीं करना चाहता था.

इसलिए किसी ओझा के पास चला गया. ओझा के इशारे पर उसने एक निर्दोष और कमजोर औरत को कुल्हाड़ी से काट डाला. बाहमुनी कहती हैं कि औरतों को दबा कर कोई समाज आगे नहीं बढ़ सकता है. यह बात आदिवासी समुदाय को जितनी जल्दी समझ में आ जाए उतना अच्छा है.

वो कहती हैं, “वैसे इस बात की उम्मीद कम ही है कि समुदाय के पुरूष औरतों को फ़ैसलों में शामिल करने को आसानी से तैयार होंगे. इसके अलावा औरतों को प्रताड़ित करने के मामले में भी पुरुषों को जब तक क़ानून का डर नहीं होगा, वो नहीं रूकेंगे.”

इस अनुभव में एक और लड़की से हुई बातचीत जोड़नी है. शिखा पहाड़िन नाम की इस लड़की से साहिबगंज में मुलाक़ात हुई थी. पहाड़िया आदिवासी समुदाय पर साहिबगंज के कई जाने माने लोगों से बातचीत हुई. लेकिन शिखा अपने समुदाय को जितना बेहतर जानती हैं, उतना पहाड़िया समुदाय को कोई समझता है ऐसा नहीं लगा.

शिखा आदिवासी समुदायों के लिए संविधान में किये गए विशेष प्रावधानों, क़ानूनों और योजनाओं को जानती और समझती हैं. लेकिन वो अपने समाज की विरोधाभासों को भी जानती हैं. वो झारखंड से होने वाली मानव तस्करी पर काम करती हैं.

उनके साथ बिताया एक दिन मानो कोई वर्कशॉप अटेंड करना था. जिसमें आपको एक बेहद काबिल अध्यापक के साथ फ़ील्ड में जा कर चीजों को समझने का मौक़ा मिले. वो कहती हैं, “औरतों के लिए समाज के लिए लड़ना और समाज में अपने लिए लड़ना दोनों ही ज़रूरी काम है. ”

आदिवासी औरतों से मुलाक़ातों के इस सिलसिले में जानी मानी कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता निर्मला पुतुल मूर्मु और दुमका ज़िला पंचायत अध्यक्ष जॉयस बेसरा से मैंने लंबी बातचीत रिकॉर्ड की है. वो आप अलग से देख पाएँगे. 

लेकिन इन दोनों औरतों के बारे में इतना आपको बताती चलूँ कि वो अपने समाज की ख़ासियत, दर्द और उसकी दवा को पुरूषों से बेहतर समझती हैं. 

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