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आदिवासी समुदाय की टोटम और गोत्र व्यवस्था क्या है

आदिवासी समुदाय में ‘प्रकृति’ उनके जीवन दर्शन के केंद्र में स्थित है. उनके  आस्था का केंद्र भी प्रकृति ही है. इसलिए प्रकृति में उपस्थित अनेक तत्वों को जो स्पष्ट रूप से दृष्टिमय था, उन्हें अपने समुदाय विशेष के साथ प्रतीकात्मक रूप से जोड़ दिया गया.

आदिवासी समाज के मूल आधार को यदि समझना है तो उनके सामाजिक-धार्मिक तत्वों के सबसे सूक्ष्म तत्व को समझना आवश्यक है.

आदिवासी समाज के इस सूक्ष्म तत्व को हम टोटम या कुलचिन्ह की अवधारणा में देख सकते हैं. समाजशास्त्री दुर्ख़ेईम ने ऑस्ट्रेलिया के अरुणटा आदिवासियों के मध्य अपने अध्ययन में इस अवधारणा की वैज्ञानिकता को सिद्ध किया था. 

प्राचीन समय में जब आदिवासी समाज कुछ परिवारों के झुंड में रहता था तब कई प्रकार की प्रतिस्पर्धा उनमें होती थी. यह प्रतिस्पर्धा आंतरिक और बाहरी दोनों होता था.

आंतरिक प्रतिस्पर्धा समाज के भीतर होता था और बाहरी प्रतिस्पर्धा दो गाँव, टोला या दो समूह के बीच होता था. आंतरिक प्रतिस्पर्धा अनेक कारकों के लिए होती थी किंतु ‘महिला’ या साथी की आवश्यकता के लिए यह संघर्ष आपसी घर्षण का सबसे प्रमुख कारण था.

परिवार और समाज के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक हो गया कि समाज के अंदर के घर्षण पर नियंत्रण हो. इस आंतरिक प्रतिस्पर्धा को रोकने के लिए यह निर्णय हुआ कि यदि किसी व्यक्ति को ‘महिला’ या जीवन साथी की आवश्यकता है तो वह इसे किसी अन्य आदिवासी समुदाय या गाँव से प्राप्त करेगा. इसे ही सामाजिक विद्वानों ने “सामाजिक अनुबंध” का नाम दिया था. 

अब समाज के पास एक बड़ी समस्या थी कि, एक आदिवासी समुदाय दूसरे आदिवासी समुदाय से पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी पहचान में अंतर कैसे रख पाएगा.

तब आदिवासी समाज ने अपने वातावरण में उपस्थित जीवित और निर्जीव तत्वों को अपने समुदाय के विशिष्ट पहचान के लिये प्रतीकात्मक रूप से उपयोग में लाना शुरू किया. यहीं से टोटम (कुलचिन्ह) या गोत्र की शुरुआत होती है.

आदिवासी समुदाय में ‘प्रकृति’ उनके जीवन दर्शन के केंद्र में स्थित है. उनके  आस्था का केंद्र भी प्रकृति ही है. इसलिए प्रकृति में उपस्थित अनेक तत्वों को जो स्पष्ट रूप से दृष्टिमय था, उन्हें अपने समुदाय विशेष के साथ प्रतीकात्मक रूप से जोड़ दिया.

इसी ‘प्रतीक’ को हम ‘टोटम या कुलचिन्ह’ कहते हैं. प्रत्येक टोटम को मानने वाले समूह ‘गोत्र’ कहलाये. ‘मिंज़’ एक गोत्र है जिसका ‘टोटम’ डुंगडुँगिया मछली है. उसी प्रकार, ‘लकड़ा’ गोत्र का टोटम है बाघ, पन्ना गोत्र का टोटम है लोहा, ‘तिग्गा’ का टोटम है बंदर.

इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि टोटम जीवित और निर्जीव दोनों हो सकतीं हैं. अब टोटम और गोत्र के आधार पर एक आदिवासी समुदाय दूसरे आदिवासी समुदाय से अंतर रख सकता था.

यह व्यवस्था अब विवाह के द्वारा आदिवासी समुदाय में महिलाओं के आदान प्रदान को नियंत्रित करने लगा. आज भी अनेक आदिवासी गाँव मिलेंगे जो एक ही गोत्र के हैं. एक टोटम और गोत्र के समूह के सदस्य यह मानते हैं कि कालांतर में उन सबके पुरखे “कोई” एक ही थे. इस प्रकार वो सभी आदिकाल से एक ही परिवार के वंशज हैं. 

अनेक पुस्तकों में यह वर्णित है कि हम आदिवासियों की उत्पत्ति इन्हीं टोटम से हुआ है; मैं इसके समर्थन में नहीं हूँ. टोटम एक प्रतीकात्मक वस्तु या जीव है और जिसका उद्देश्य मात्र, वृहद् आदिवासी समाज के अन्तर्गत आने वाले विभिन्न छोटे आदिवासी समूहों को विशिष्ट पहचान देने के लिए बनाया गया था.

प्राचीन काल से ही, वैवाहिक संबंध सामान गोत्र के बीच संभव नहीं था. आज भी गोत्र के बाहर विवाह प्रचलन में है.

आदिवासी समाज में देव एवं देवी कि अवधारणा नहीं थीं. वो प्रकृति पूजक थे. इसलिए स्वयं को उन्होंने कभी किसी अवतरित मनुष्य का वंशज नहीं माना.

आदिवासी समाज की यह सबसे बड़ी विशेषता थी. वहीं ‘अन्य’ समाज में गोत्र इस प्रकार से तय नहीं होते हैं. टोटम को आदिवासी समाज ने अपने वातावरण के आस पास के अवलोकन के आधार पर चुना था.

किसी समूह ने ख़ास वृक्ष को, तो किसी ने बाघ, भालू, मछली, लोहा, लता, नाग, धान इत्यादि का चुनाव अपने कुल चिन्ह के रूप में किया.

पिछली शताब्दी तक झारखंड के अनेक सुदूर गाँव या टोला अपने टोटम या गोत्र के नाम से जाने जाते थे. पूरा का पूरा एक टोला एक ही गोत्र का होता था. आज भी खूँटी और तोरपा जैसे ग्रामीण इलाक़ों में गोत्र आधारित गाँव हैं.

टोटम अब आदिवासी समुदाय में स्त्री या महिला के वैवाहिक आदान प्रदान के लिए एक प्रतीक बन गया.

दो विभिन्न गोत्रों के समुदायों में वैवाहिक संबंध ने उनमें आर्थिक, धार्मिक एवं आपसी निर्भरता को और प्रगाढ़ कर दिया.

सरल अर्थों में हम कह सकते हैं कि विवाह संबंध दो जोड़ो का नहीं होकर दो गाँव या दो टोलों का हो गया।विषम परिस्थितियों में अब वो गाँव जिनमें वैवाहिक संबंध था, एक दूसरे का साथ देने के लिए हमेशा तैयार थे। दूसरा, अब इस गाँव से आपको कोई शत्रुता नहीं होनी थी. 

समाज ने टोटम को एक ‘पवित्र और आराध्य’ इकाई के रूप में स्थापित कर दिया। विवाह को आदिवासी समाज एक बहुत ही दिव्य प्रक्रिया मानता है.

स्त्री पुरूष का यह समागम एक नव जीवन सृजन करने में सक्षम होती है। यह शक्ति इसके अलावा मात्र ‘सृष्टि’ के पास है. टोटम और गोत्र की महत्ता इसलिए और अधिक हो जाती है.

मनुष्य और एक पशु में सबसे बड़ा अंतर, “निकट-अभिगमन निषेध” की धारणा के कारण है। इस अवधारणा के अनुसार, रक्त संबंधी में किसी भी प्रकार का लैंगिक संबंध पूर्ण रूप से निषेध होता है.

सामाजिक विज्ञान में यह बहुप्रचलित सिद्धांत है कि जिस भी काल में मनुष्य को इस निषेध का बोध हुआ होगा, यही वह काल था, जब मनुष्य के मध्य “संस्कृति” का उदय हुआ था. 

गोत्र की पवित्रता और इसके कड़ाई से पालन के लिए अनुशासन बनाये रखना आवश्यक था. आदिवासी समाज में नियम का पालन करवाने के लिए कोई ठोस लिखित क़ानून नहीं है.

आज भी पड़हा न्याय व्यवस्था अलिखित है. इसलिए  आदिवासी समाज में जब भी नियम बने हैं और उनको कड़ाई से पालन करवाना होता तो हमेशा ऐसे नियमों को आस्था के साथ जोड़ दिया जाता था.

आस्था, आदिशक्ति, पुरखों पर विश्वास और भविष्य की अनिश्चतता हमेशा से आदिवासी समाज में सामाजिक नियंत्रण का कार्य करती आयी हैं.

टोटम को लेकर भी यह निषेध पारित हुआ कि जिनका जो टोटम होगा वो उसका सेवन नहीं कर सकेंगे और प्रत्येक गोत्र के लोग अपने अपने टोटम को आराध्य मानेंगे.

अब इस व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति या समुदाय अपने गोत्र के टोटम की रक्षा करने के लिए बाध्य था क्योंकि वह आराध्य था.

आदिवासी समुदाय का एक और खूबसूरत पहलू इस टोटमवाद में झलकता है. प्राकृतिक संतुलन एवं उसके दोहन को यह नियंत्रित रखती है. उपभोग नियंत्रित रहता है.

एक समुदाय, उस तत्व की रक्षा करता है और अन्य उसका सेवन के लिए स्वतंत्र होते हैं. यह सतत् विकास की अवधारणा का परिचायक है जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने महत्वाकांक्षी नीति एसडीजी 2030 में अपनाया है.

मैं बहुत दृढ़ता से यह नहीं कह सकता कि आदिवासी समाज अनुवांशिकी (जेनेटिक्स) को अपने लंबे अनुभव के आधार पर समझ पाये थे या नहीं.

किंतु हाँ, जब समाज ने टोटम के आधार पर सम-गोत्र विवाह पर मज़बूती से प्रतिबंध लगा दिया तो यह समाज के लिए अनुवांशिक उद्विकास के क्रम में यह बेहद हितकर हुआ.

यहाँ अनुवांशिकी की समझ बहुत जटिल है. यदि हम सम गोत्र विवाह के दुष्प्रभाव को समझना चाहते हैं तो ‘जेनेटिक पूल’, ‘फाउंडर इफ़ेक्ट’, ‘रिसेसिव डिजीस’, वेरिएशन, हार्डी-वेनबर्ग संतुलन इत्यादि के अवधारणाओं को समझना होगा. पर यह जटिल है.

इसलिए सरल शब्दों में यह बता दूँ कि यदि कोई समाज अपने ही निकट संबंधियों से विवाह संबंध स्थापित करता है तो उनमें अनुवांशिक दोष और दुष्प्रभाव अधिक देखने को मिलते हैं. इस तथ्य को विश्व के अनेक अग्रणी संस्थाओं ने अपने शोध में सिद्ध किया है.

टोटम को लेकर आदिवासी समुदाय का बौद्धिक विश्लेषण बेहद परिपक्व और खूबसूरत है. उन्होंने ऐसे तत्वों को टोटम की परिधि से दूर रखा जिनका सामाजिक और सामूहिकता महत्व था.

केकड़ा (सरहुल पर्व), हवा, नदी, सूर्य, चंद्रमा, पहाड़, जंगल, नदी इत्यादि को इस परिधि से दूर रखा. यह व्यवस्था इसलिए बनाया गया ताकि इसका इस्तेमाल सभी सामूहिक रूप से कर सकें.

इंडोनेशिया की ओरंग रिम्बा जनजाति में जब किसी बच्चे का जन्म होता है तो उसकी गर्भनाल को सेंटुबुंग पेड़ के नीचे दफ़्न किया जाता है. अब उस बच्चे का दायित्व होता है कि वह जीवन भर उस पेड़ की रक्षा करे और उसके साथ एक पवित्र बंधन में बंध जाता है.

सुखद अनुभूति के साथ साझा कर रहा कि जब बड़े बेटे की नाभी झड़ी थी तो माँ ने नाभी के उस भाग को आँगन में एक वृक्ष के नीचे विधि विधान के साथ गाड़ दिया था.

मीलों दूर आदिवासी समुदाय में समानता देख कर महसूस हुआ कि आदिवासी होने के बावजूद, हम सब कितने ही स्वयं के विषय में जानते हैं? सोचना होगा !

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