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लोकसभा चुनाव 2024: रतलाम-झाबुआ भीलों की भूमि जो दिग्गज़ों के मुकाबले के लिए मशहूर है

झाबुआ को भीलों की राजनीति और सांस्कृतिक पहचान की दृष्टि से भीलों की राजधानी भी माना जाता है. लोकसभा के लिहाज से देखें तो पश्चिम मध्य प्रदेश की आदिवासी समुदाय की आरक्षित 3 सीटें, गुजरात की 2 और राजस्थान की 2 लोकसभा सीटें झाबुआ के आसपास आती हैं. ऐसे में लोकसभा चुनाव के लिहाज से ये सीट बेहद अहम बन जाती है.

जैसे-जैसे देश में लोकसभा चुनाव 2024 (Lok Sabha Elections 2024) की सरगर्मियां बढ़ रही है, राजनीतिक दलों के बीच देश के आदिवासी समुदाय (Tribal Communities) को अपनी ओर खींचने की कोशिश शुरू हो गई हैं. सत्तारूढ़ बीजेपी और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के अलावा क्षेत्रीय दल भी आदिवासियों के बीच अपना आधार बनाने की कोशिश में लगे हैं.

देश की लगभग नौ प्रतिशत आबादी वाले आदिवासी समाज के लिए लोकसभा में 47 सीटें आरक्षित हैं. देशभर में आदिवासियों के लिए मध्य प्रदेश में सबसे अधिक लोकसभा सीटें आरक्षित हैं. मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) में 6 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. जिनमें बैतूल, धार, खरगोन, मंडला, रतलाम और शहडोल शामिल है.

तो आज हम बात करेंगे आदिवासी बहुल रतलाम-झाबुआ सीट (Tribal dominated Ratlam-Jhabua seat) की…

रतलाम-झाबुआ सीट

रतलाम-झाबुआ लोकसभा सीट के आठ विधानसभा क्षेत्रों में से तीन झाबुआ में हैं. ये वो सीट हैं जो 72 सालों में 14 बार कांग्रेस ने जीती हैं. पहले ये सिर्फ झाबुआ सीट कहलाती थी. परिसीमन के बाद इसे झाबुआ-रतलाम कहा जाने लगा.

झाबुआ-रतलाम संसदीय क्षेत्र कांग्रेस की परंपरगत सीट है. रतलाम-झाबुआ एसटी सीट पर हुए 18 चुनावों और उपचुनावों में से कांग्रेस ने 14 बार ये सीट जीती है. जबकि बीजेपी ने दो बार, 2014 और 2019 में ये सीट जीती है.

दशकों से इस सीट पर दो लोगों का दबदबा रहा है…जिनमें दिग्गज आदिवासी नेता दिलीप सिंह भूरिया और कांतिलाल भूरिया का नाम शामिल है.

दिलीप सिंह भूरिया, जिन्होंने कांग्रेस के लिए पांच बार सीट जीती और आखिरी बार 2014 में बीजेपी की टिकट पर इस सीट को जीता. क्योंकि कांतिलाल भूरिया और दिग्विजय सिंह की राजनीति का शिकार हुए दिलीप सिंह बाद में कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में चले गए.

दिलीप सिंह भूरिया के बीजेपी में जाने के बाद 1998 से 2019 तक पूर्व केंद्रीय मंत्री और पूर्व राज्य कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया इस सीट से 5 बार सांसद रहे.

2014 में मोदी लहर में वो चुनाव हार गए. उन्हें बीजेपी के दिलीप सिंह भूरिया ने 1 लाख से ज़्यादा वोटों को हराया. लेकिन एक साल के अंदर ही 2015 में बीजेपी सांसद दिलीप सिंह भूरिया का निधन हो गया. सीट के लिए उपचुनाव हुआ और कांतिलाल भूरिया फिर चुनाव जीत गए. उपचुनाव में कांतिलाल भूरिया ने बीजेपी की प्रत्याशी और दिलीप सिंह भूरिया की बेटी निर्मला भूरिया को 88 हजार वोटों से हराया.

झाबुआ-रतलाम संसदीय सीट 3 जिलों झाबुआ, अलीराजपुर और को मिलाकर बनायी गई है.

अलीराजपुर ज़िले की अलीराजपुर, जोबट विधानसभा सीट; झाबुआ ज़िले की झाबुआ, थांदला, पेटलावद विधानसभा सीट; रतलाम ज़िले की रतलाम ग्रामीण, रतलाम शहर, सैलाना विधानसभा शामिल हैं.

2023 के विधानसभा चुनाव में कैसा रहा पार्टियों का प्रदर्शन?

2023 के विधानसभा चुनावों में यहां बीजेपी ने बेहतर प्रदर्शन किया और 8 विधानसभा क्षेत्रों में से 4 में जीत हासिल की और एक में कुछ सौ वोटों से हार गई. रतलाम-झाबुआ एसटी सीट और गुना मध्य प्रदेश में कांग्रेस के दो गढ़ थे, जिन्हें 2019 के लोकसभा चुनावों में मोदी लहर पर सवार होकर बीजेपी ने जीत लिया था, जबकि उस समय मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी.

क्यों अहम है झाबुआ

दरअसल, झाबुआ (Jhabua) पश्चिम मध्य प्रदेश की आदिवासी राजनीति (Tribal Politics) का केंद्र है. पश्चिम मध्य प्रदेश के धार, रतलाम और इससे गुजरात के दाहोद, महिसागर एवं पंचमहाल जिले सटे हुए हैं और राजस्थान के बांसवाड़ा, डूंगरपुर और प्रतापगढ़ जिले लगे हैं. यह सभी भील आदिवासी बहुल इलाके हैं.

झाबुआ को भीलों की राजनीति और सांस्कृतिक पहचान की दृष्टि से भीलों की राजधानी भी माना जाता है. लोकसभा के लिहाज से देखें तो पश्चिम मध्य प्रदेश की आदिवासी समुदाय की आरक्षित 3 सीटें, गुजरात की 2 और राजस्थान की 2 लोकसभा सीटें झाबुआ के आसपास आती हैं. ऐसे में लोकसभा चुनाव के लिहाज से ये सीट बेहद अहम बन जाती है.

पीएम मोदी ने झाबुआ से किया लोकसभा चुनाव का आगाज

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने भी लोकसभा चुनाव 2024 (LS Polls 2024) के लिए अपने चुनाव प्रचार अभियान का आगाज मध्य प्रदेश के आदिवासी अंचल झाबुआ से ही किया है.

पीएम मोदी ने 11 फरवरी को झाबुआ जिले में जनजातीय महासभा को संबोधित किया और इस दौरान 7550 करोड़ रुपये की विभिन्न विकास परियोजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास किया.

पीएम मोदी ने कहा कि मैं एमपी के लिए 24 गुना अधिक राशि दे रहा हूं. कांग्रेस के गड्ढे भरने के लिए हम पूरी मेहनत से काम कर रहे हैं. कांग्रेस के नेता कहने लगे हैं कि हम मोदी के खिलाफ किस मुंह से वोट मांगने जाएं.

बीजेपी के लिए चुनाव प्रचार की शुरुआत झाबुआ से करने की एक बड़ी वजह है. यह सीट कांग्रेस पार्टी का गढ़ रही है. यहां पर बीजेपी अभी तक सिर्फ़ दो बार ही जीत पाई है और कांग्रेस पार्टी ने यह सीट 14 बार जीती है.

झाबुआ भील आदिवासियों का गढ़ है और यहां से मध्यप्रदेश ही नहीं गुजरात और महाराष्ट्र के भील आदिवासियों को भी संदेश जाता है. इसलिए शायद प्रधानमंत्री की पहली चुनाव सभा झाबुआ में ही रखी गई थी.

झाबुआ के आदिवासी

2011 की जनगणना के मुताबिक, झाबुआ में आदिवासी आबादी करीब 86 फीसदी है और ग्रामीण हिस्सों में साक्षरता दर 35 फीसदी है. यहां भील, भिलाला और बारेला समुदायों की अधिकांश आदिवासी आबादी रहती है.

लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों में बेहद अहम होने के बावजूद झाबुआ की 80 फीसदी से अधिक आदिवासी आबादी के लिए गरीबी से छुटकारा पाना एक दूर का सपना बना हुआ है. क्योंकि यहां के लगभग आधे स्थानीय लोग गरीबी रेखा से नीचे आते हैं. जिले की 49.62 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे है.

यहां पर आदिवासी कपास और सोयाबीन जैसी नकदी फ़सलों की खेती करता है. लेकन उसके खेत छोटे हैं और बीज-दवाई पर ख़र्च लगातार बढ़ रहा है. इसलिए उत्पादन सीमित ही रहता है.

यहां का आदिवासी आज भी सेठ-साहूकारों से ही कर्ज़ लेता है. इस ज़िले में शायद ही कोई भील परिवार ऐसा मिलता है जो सेठ के कर्ज़ में ना डूबा है. इस कर्ज़ को चुकाने के लिए उसे मज़दूरी करने के लिए बाहर जाना पड़ता है.

राज्य के सबसे गरीब में से एक इस जिले में किसी भी बड़े उद्योग की कमी के कारण बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है. भील समुदाय के प्रभुत्व वाला यह जिला भारी प्रवासी संकट से परेशान है.

यहां के लोगों का कहना है कि अगर यहां बड़े उद्योग होते तो जिले में पलायन की समस्या इतनी बड़ी नहीं होती. रोजगार के अलावा जिले के आदिवासी गांवों में पीने के पानी की समस्या, अनाज और राशन समय पर न मिलने की समस्या भी है. लोगों के पास काम नहीं है ऐसे में वो सरकार की तरफ से मिलने वाले राशन पर निर्भर हैं लेकिन इन्हें वो भी कई-कई महीनों तक नहीं मिलता है.

झाबुआ के आदिवासी गांवों के घरों में आपको बुर्जुग लोग ही देखने को मिलेंगे क्योंकि युवक और युवतियां मजदूरी करने के लिए दूसरे शहरों में पलायन कर गए हैं. इन गांवों के ज्यादातर युवा मजदूरी करने के लिए गुजरात चले गए हैं.

इतना ही नहीं सिंचाई और जल स्रोतों के अभाव के कारण कृषि भी पर्याप्त रोजगार पैदा करने में विफल रही है. यहां पर इंफ्रास्ट्रक्चर का भी खस्ताहाल है.

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