असम में माटक समुदाय (Matak community) सहित 6 आदिवासी समूह अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतर आए हैं और विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया है. वे मशाल जुलूस, रैलियों और प्रदर्शनों के माध्यम से सरकार पर दबाव बना रहे हैं. उनकी मुख्य मांग अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा है.
चुनाव के इस माहौल में यह आंदोलन राज्य सरकार के लिए एक चुनौती बन गया है.
बीते 10 दिनों से माटक समुदाय विरोध प्रदर्शन कर रहा है. इस समुदाय ने दो विशाल रैलियां आयोजित की हैं, जिनमें हर बार 30 से 40 हजार आदिवासी मशाल लेकर विरोध दर्ज कराने पहुंचे हैं.
माटक समुदाय के करीब 20 हज़ार सदस्यों ने 26 सितंबर की रात को डिब्रूगढ़ में एक बड़ी विरोध रैली निकाली.
उन्होंने असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के बातचीत के प्रस्ताव को खारिज कर दिया और अनुसूचित जनजाति का दर्जा और पूर्ण स्वायत्तता की अपनी मांग को और ज़ोरदार किया.
समुदाय के नेताओं ने ज़ोर देकर कहा कि जब तक सरकार उनकी पुरानी मांगों को पूरा करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाती, तब तक यह आंदोलन जारी रहेगा.
दरअसल, मुख्यमंत्री ने 25 सितंबर को तिनसुकिया में बड़े विरोध प्रदर्शन के बाद माटक संगठनों के नेताओं को बातचीत के लिए आमंत्रित किया था.
लेकिन समुदाय के बातचीत से इनकार करने से तनाव बढ़ गया है, जिससे पहचान और अधिकारों के लंबित मुद्दों पर सरकार और माटक समुदाय के बीच बढ़ती खाई का पता चलता है.
यह विरोध प्रदर्शन 6 सितंबर को मोरान समुदाय द्वारा ST दर्जे की मांग को लेकर किए गए इसी तरह के बड़े प्रदर्शन के बाद हुआ है.
माटक समुदाय की मुख्य मांगें हैं – अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा और साथ ही अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और प्रशासनिक निर्णय लेने का अधिकार यानी पूर्ण स्वायत्तता.
मटक समुदाय की यह मांग काफी पुरानी है. इस संबंध में उनके प्रतिनिधियों ने सरकार के साथ कई बार बातचीत की है लेकिन कोई ठोस हल नहीं निकल सका. अब असम विधानसभा चुनाव नज़दीक आने के कारण मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा पर दबाव बढ़ गया है.
माटक समुदाय
18वीं सदी से ही माटक समुदाय का इतिहास असम के राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य से जुड़ा हुआ है. वे मुख्य रूप से असम के डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया जिलों में रहते हैं.
आहोम साम्राज्य के पतन के दौरान माटक समुदाय ने अपनी राजनीतिक पहचान स्थापित की। उनकी परंपराएं, भाषा और संस्कृति महापुरुषिया संप्रदाय से प्रभावित हैं. ब्रिटिश शासन और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान माटक समुदाय के नेताओं ने भी सक्रिय भूमिका निभाई.
असम के आदिवासियों का लंबा संघर्ष
हालांकि, माटक समुदाय ही नहीं बल्कि पांच अन्य आदिवासी समूह – चाय जनजाति (टी ट्राइब), ताई अहोम, मोरान, चुटिया और कोच राजबोंगशी भी इन्हीं मांगों को लेकर आंदोलनरत हैं. ये सभी छह समुदाय मिलकर राज्य की कुल आबादी का लगभग 12 फीसदी हिस्सा हैं.
ये वही समुदाय हैं, जिन्हें 2014 का आम चुनाव जीतने के बाद भाजपा सरकार ने एसटी का दर्जा देने का वादा किया था.
असम के विभिन्न जातीय समूहों में आदिवासी समुदाय सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े रहे हैं. माटक, मोरान और चाय जनजाति जैसे समुदाय कई सालों से एसटी का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं.
भूमि अधिकार, शिक्षा और रोजगार में असमानता उनकी मुख्य समस्याएं हैं. इसके अलावा, अपनी सांस्कृतिक पहचान और भाषा को बचाना भी एक बड़ी चुनौती है.
माटक आंदोलन का मुख्य कारण
2019 में केंद्र सरकार ने माटक सहित छह आदिवासी समुदायों को एसटी सूची में शामिल करने की प्रक्रिया शुरू की. लेकिन अभी तक कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है. इससे माटक समुदाय में निराशा बढ़ गई है और वे सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. उनका तर्क है कि वे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से अन्य एसटी समूहों के बराबर हैं.
मांगें क्यों पूरी नहीं हुईं?
असम के जातीय संतुलन और राजनीतिक परिस्थितियों के कारण एसटी का दर्जा देने में देरी हो रही है. डर है कि एसटी सूची में नए समूहों को शामिल करने से मौजूदा समूहों को नुकसान हो सकता है.
इसके अलावा कानूनी और प्रशासनिक बाधाएं भी एक बड़ी समस्या हैं. पहचान के मुद्दे पर विशेषज्ञ भी बहस कर रहे हैं.
अन्य आदिवासी आंदोलनों से तुलना
माटक आंदोलन अनोखा नहीं है. बोडो, कार्बी, दिमासा और चाय जनजाति ने भी अपने अधिकारों के लिए लंबे समय तक संघर्ष किया है. इन सभी आंदोलनों ने सामाजिक न्याय, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सांस्कृतिक संरक्षण जैसे समान मुद्दों को उठाया है.
आगे का रास्ता
माटक और अन्य आदिवासी समुदायों की मांगों को लोकतांत्रिक और संवैधानिक ढांचे के भीतर पूरा किया जाना चाहिए. सरकार को नीतिगत साहस दिखाना चाहिए और इन समुदायों को एसटी का दर्जा देना चाहिए. शिक्षा, स्वास्थ्य और सांस्कृतिक संरक्षण पर विशेष ध्यान देना चाहिए.
इसके अलावा, समुदाय की भागीदारी से प्रभावी नीति बनाने और उसे लागू करने में मदद मिलेगी.
अगर इन छह समुदायों को एसटी का दर्जा मिल जाता है तो राज्य में आदिवासी आबादी बढ़कर 40 फीसदी तक पहुंच जाएगी.
इसी बात को लेकर राज्य के गैर-आदिवासियों में यह आशंका है कि अगर राज्य में एसटी आबादी 40 प्रतिशत तक पहुंच गई, तो असम भी नागालैंड और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों की तरह ‘पूर्ण एसटी राज्य’ बन जाएगा.
ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार के लिए राज्य को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करना एक मजबूरी बन जाएगा. इसके बाद केंद्र सरकार को राज्य के सभी कार्यों के लिए उनकी अनुमति लेनी अनिवार्य हो जाएगी.