HomeIdentity & Lifeबाप का नाम लिया तो जात से गए

बाप का नाम लिया तो जात से गए

आपके नाम के साथ जो उपनाम या सरनेम जुड़ा है... क्या वो मां का है या पिता का?शायद ज्यादातर का जवाब होगा... पिता का, है ना? लेकिन भारत में एक ऐसी जनजाति भी है जहां पिता का नाम इस्तेमाल करना मना है... अब ये मामला हाई कोर्ट पहुंच चुका है.

भारत के पूर्वोत्तर राज्य मेघालय के हाईकोर्ट के सामने एक अनोखा लेकिन ज़रूरी मामला आया है.

यहां की खासी जनजाति के बच्चे अपना सरनेम मां से लेते हैं.

मेघालय के आदिवासी समुदायों की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को समझने वालों को यह बात अचंभित नहीं करती है.

लेकिन मेघालय के बाहर शायद ही किसी को यह पता होगा कि खासी जनजाति के बच्चों के लिए अपनी मां से सरनेम लेना अब सिर्फ़ परंपरा का हिस्सा नहीं है.

अब इस समुदाय में यह बाक़यदा क़ानून व्यवस्था है कि बच्चे को अपनी मां का सरनेम ही इस्तेमाल करना होगा.

अगर बच्चा अपने पिता का कुल नाम इस्तेमाल करता है तो उसे अनुसूचित जनजाति का प्रमाण पत्र नहीं मिल सकेगा.

अब एक संगठन ने इस व्यवस्था को चुनौती देते हुए मामला हाईकोर्ट में पेश किया है.

मेघालय हाई कोर्ट ने भी इस मामले को ज़रूरी मानते हुए इसका संज्ञान ले लिया है.

खासी जनजाति में मातृसत्तात्मक परंपरा सदियों से चली आ रही है. यानी इस जनजाति में बच्चे मां का उपनाम अपनाते हैं.

इस समुदाय में संपत्ति बेटी को ही मिलती है. इसके अलावा पारिवारिक पहचान भी मां के नाम से ही तय होती है.

मेघालय हाई कोर्ट इस कानून की समीक्षा करने के लिए तैयार हो गया है.

मामला क्या है?

साल 1997 में बना खासी हिल्स स्वायत्त जिला (खासी सामाजिक रीति-रिवाज) अधिनियम (Khasi Hills Autonomous District (Khasi Social Custom of Lineage) Act) मातृसत्तात्मक व्यवस्था को संरक्षित करने के उद्देश्य से लागू किया गया था.

2020 में राज्य के सामाजिक कल्याण विभाग ने इस सिलसिले में एक आदेश जारी किया था.

इस आदेश के अनुसार 1997 का कानून किसी व्यक्ति माता या पिता में से किसी का भी उपनाम इस्तेमाल कर सकता है.

इसके अलावा इस आदेश में यह भी स्पष्ट किया गया था कि खासी औरत अपने पति का उपनाम इस्तामाल कर सकती है.

यानी कोई खासी व्यक्ति किसका उपनाम लगाता है, इससे अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र का कोई लेना देना नहीं है.

लेकिन समाज कल्याण विभाग द्वारा यह पत्र 21 मई 2024 को को वापिस ले लिया गया था.

इसके बाद कथित रूप से अधिकारियों ने उन खासी व्यक्तियों को अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र देना बंद कर दिया जिन्होंने अपने पिता या पति के उपनाम का इस्तेमाल किया.

सिंगखॉग रिम्पेई थाइमाइ (Syngkhong Rympei Thymmai) नामक संगठन ने इस पर आपत्ति जताते हुए एक याचिका दाखिल की थी.

पितृसत्तात्मक व्यवस्था की वकालत करने वाले इस संगठन का कहना है कि 2023 के संशोधित अधिनियम के हिसाब से अगर कोई आवेदक रक्त संबंध और वंशावली की शर्तों को पूरा करता है, यानी अगर व्यक्ति खासी मां-बाप से पैदा हुआ है तो सिर्फ उपनाम के आधार पर उसे एसटी सर्टिफिकेट देने से इनकार नहीं किया जाना चाहिए.

इस याचिका पर कोर्ट ने हाल ही में सुनवाई की है.

कोर्ट ने क्या कहा ?

इस याचिका की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश आई.पी. मुखर्जी और न्यायमूर्ति डब्ल्यू. डिएंगदोह की बेंच कर रही है.

इस बेंच ने कहा है कि इस जनहित याचिका के निपटारे के लिए फिलहाल हलफनामों (एफिडेविट) की ज़रूरत नहीं है. अगर आगे चल कर ज़रूरत पड़ी तो कोर्ट हलफनामा मंगा सकता है.

कोर्ट ने इस मामले को पूरे खासी समुदाय से जुड़े होने के कारण, जल्दी समाधान की आवश्यकता जताई है.

साथ ही कोर्ट ने राज्य के एजवोकेट जनरल और याचिका कर्ता के वकील को इस याचिका की कॉपी भेजने के निर्देश भी दिए हैं.

क्या है ‘खासी हिल्स ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट खासी सोशल कस्टम ऑफ लाइनेज एक्ट, 1997’?

यह कानून मेघालय की खासी हिल्स स्वायत्तशासी जिला परिषद (KHADC) द्वारा 1997 में बनाया गया था. इसका उद्देश्य खासी समाज की पारंपरिक मातृसत्तात्मक व्यवस्था को कानूनी संरक्षण देना था.

इस कानून के तहत वंशावली (Lineage) मां की तरफ से चलती है यानी खासी समाज में व्यक्ति की पहचान मां की ओर से होती है. बच्चे को मां का उपनाम लेना होता है. संपत्ति और कुल की ज़िम्मेदारी बेटी के पास जाती है, विशेष रूप से सबसे छोटी बेटी (Ka Khadduh) के पास.

इस कानून में ये भी कहा गया था कि कोई व्यक्ति तभी खासी समुदाय का हिस्सा माना जाएगा,

जब वह किसी खासी मां की संतान हो और खासी क्लैन (Kur) से जुड़ा हो. अगर कोई व्यक्ति अपने पिता या पति का उपनाम लगाता है, तो वह खासी वंश का हिस्सा नहीं माना जा सकता है.

क्या संशोधन हुए हैं?

साल 2023 में इस एक्ट में कुछ ज़रूरी बदलाव किए गए थे.

ये बदलाव कुल या परिवारों को नियमों का पालन कराने की व्यवस्था पर निगरानी के लिए किए गए थे.

मसलन एक बदलाव में कहा गया था कि सभी दोरबार कुर (Dorbar Kur) और सेंग कुर  (Seng Kur) यानि कुल और परिवारों को खासी स्वायत परिषद (KHADC) में पंजीकृत (register) करना अनिवार्य किया गया था.

साल 2023 का संशोधन यह व्यवस्था भी करता है कि अगर किसी परिवार में ख़ासी मां से संतान पैदा नहीं हो पाए, वहाँ खासी पुरुष गैर‑खासी महिला से विवाह करके बच्चे को अपने वंश में शामिल कर सकता है.

इस क़ानून में वंश और परिवार प्रमाण पत्रों (Clan/Kur Certificate) को भी कानूनी पहचान दी गई।

केवल वंश या परिवार के प्रमाणपत्र मिलने पर वह व्यक्ति खासी Tribe Certificate (ST Certificate) के पात्र हो सकता है।

एक विशेष ट्रब्यूनल (Khasi Clan Administration Tribunal) बनाया गया है, जो कुर यानि वंश से जुड़े विवाद—जैसे खासी सदस्यता, उत्तराधिकार, गोद लेना, गैर-खासी से विवाह जैसे मामलों को देखेगा.

पिता का उपनाम क्यों नहीं चलता?

खासी समाज का कहना है कि उनका वंशज या कुल (Clan/Kur) एक महिला से शुरू हुआ. बच्चे मां के गर्भ से जन्म लेते हैं.  

इसी वजह से वे मातृसत्तात्मक परंपरा को अपना मानते हैं और संपत्ति, कुलनाम व उपनाम मां की तरफ से चलता है.

यह परंपरा महिलाओं को संपत्ति और पहचान में अधिकार देती है, जिससे समाज में उनका योगदान और सम्मान बढता है.

खासी कुल प्रमुखों के संघ का मानना है कि यदि खासी लोग पिता का उपनाम अपनाने लगेंगे तो यह उनकी मातृसत्तात्मक परंपरा को खतरे में डाल देगा. इससे खासी समुदाय की पहचान कमज़ोर हो जाएगी. उनकी ऐतिहासिक पहचान और समाज की संरचना टूट जाएगी.

कहां-कहां और है मातृसत्तात्मक व्यवस्था?

हालांकि भारत का ज्यादातर इलाका पितृसत्तात्मक है, लेकिन बहुत से समुदाय अपनी मातृपंरपरा को आज भी कायम रखे हुए हैं.

मेघालय के खासी, जैंतिया और गारो के अलावा असम के तिवा व राभा, केरल के नायर और एझावा जनजातियों के अलावा अरुणाचल के आपातानी जैसे समुदायों में भी मातृसत्तात्मक व्यवस्था किसी न किसी रूप में मौजूद है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments