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केरल में बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्ष के बीच आदिवासी ज्ञान से समाधान की नई पहल

केरल में मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ता जा रहा है। सरकार अब आदिवासी ज्ञान को समाधान मानते हुए गोथराभेरी योजना के तहत नई पहल कर रही है।

केरल के जंगलों के आस-पास बसे गांवों से आए दिन हाथी और अन्य जंगली जानवरों के हमले में लोगों की जान जाने की खबरें आती रहती है.

हाल के दिनों में मानव-वन्यजीव संघर्ष में वृद्धि देखी जा रही है. और इसके सामाजिक और राजनीतिक दोनों ही प्रकार के व्यापक प्रभाव पूरे राज्य में महसूस किए जा रहे हैं.

इन इलाकों में अक्सर हाथी गांवों में आ जाते हैं और किसानों के खेतों के पास तेंदुए दिखाई देते हैं. जिससे आदिवासी समुदाय और अन्य लोगों को कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, यहां तक की अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ता है.

लेकिन अब मानव और वन्यजीवों के बीच तनाव को कम करने का एक नया प्रयास चल रहा है. यह प्रयास उन लोगों को भरोसे में ले कर शुरू की जा रही है जो पीढ़ियों से प्रकृति के सबसे करीब रहते आए हैं यानि आदिवासी समुदाय.

दरअसल, मानव-पशु संघर्ष से निपटने के लिए केरल के वन विभाग द्वारा ‘गोथराभेरी’ (Gothrabheri) नाम की एक परियोजना शुरू की है, जो राज्य में आदिवासी समुदायों के पारंपरिक ज्ञान को एक मंच प्रदान करता है.

अब राज्य वन विभाग और केरल वन अनुसंधान संस्थान (KFRI) के संयुक्त प्रयास के तहत राज्य में पारंपरिक आदिवासी ज्ञान का एक बड़ा संग्रह तैयार हो रहा है.

राज्य के लगभग 300 आदिवासी गांवों को कवर करते हुए, करीब तीन महीने तक चले इस अभियान में आदिवासी ज्ञान के दुर्लभ, अनोखे और बेहद उपयोगी तथ्यों का संग्रह किया गया.

केरल के जंगलों में और आसपास कुल 37 समुदाय सदियों से निवास करते आए हैं. इनमें से कई समुदाय कभी जंगली जानवरों के साथ शांतिपूर्वक संबंध साझा करते थे, सदियों पुराने रीति-रिवाजों का पालन करते थे, जो प्रकृति के चक्र का सम्मान करती थीं.

अब जबकि उस संतुलन को बनाए रखना कठिन हो गया है ऐसे में अधिकारियों को उम्मीद है कि इन समुदायों के पास इसका हल हो सकता है.

पिछले कुछ महीनों में वन विभाग ने आदिवासी प्रतिनिधियों के साथ क्षेत्रीय बैठकें आयोजित कीं और उन्हें अपने अनुभव, सुझाव और विचार साझा करने का आग्रह किया.

इसका उद्देश्य इस ज्ञान को इकट्ठा करके वन और वन्यजीव प्रबंधन के लिए एक उपयोगी गाइड बनाना है जो विज्ञान और वास्तविक अनुभव दोनों को दर्शाता हो.

आदिवासी समुदाय के ज्ञान को दी जा रही तवज्जो

केरल के वन मंत्री श्री ए के ससीन्द्रन ने दो दिन पहले गोथराभेरी के राज्य स्तरीय सम्मेलन के समापन समारोह में कहा कि इस साल जंगली हाथियों के हमलों में मारे गए 19 लोगों में से 13 आदिवासी थे और ये सभी हमले जंगल के अंदर हुए थे. इसी बात को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार ने गोथराभेरी कार्यक्रम शुरू किया गया.

उन्होंने कहा, ”हम जानना चाहते थे कि पहले कम या बिलकुल न के बराबर होने वाले जानवरों के हमले अब क्यों हो रहे हैं. इसलिए हमने आदिवासियों से बात की और उनके पारंपरिक ज्ञान को एकत्रित किया जिससे वे पहले जंगली जानवरों के साथ मिलजुल कर रहते थे.”

उन्होंने यह भी बताया कि राज्य स्तर के अंतिम सम्मेलन का आयोजन उन विशेषज्ञों को आमंत्रित करने के लिए किया गया था जो 18 क्षेत्रीय सम्मेलनों से विभाग द्वारा एकत्रित सूचनाओं को व्यवस्थित करेंगे और अगले वर्ष की प्रबंधन योजना में शामिल करेंगे.

वहीं केरल वन बल के प्रमुख आईएफएस पी पुगाजेन्थी ने न्यूज एजेंसी पीटीआई को बताया, “आदिवासी समुदायों के पास जो पारंपरिक ज्ञान है, वह प्रकृति, पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन से गहराई से जुड़ा है. इसलिए हम योजना बना रहे हैं कि हम आदिवासियों से ही यह जानकारी एकत्र करेंगे और वन एवं वन्यजीव प्रबंधन में शामिल करेंगे.”

उन्होंने बताया कि क्षेत्रीय सम्मेलन में केरल के 37 आदिवासी समुदायों की बात विभाग ने सुनी.

उन्होंने आगे कहा, ”प्रकृति संरक्षण, टिकाऊ विकास, मानव-पशु संघर्ष कम करने और साथ रहने के बारे में कई बेहतरीन सुझाव मिले हैं. हमारी योजना है कि इन सभी को एक साथ जोड़कर एक उपयोगी प्रबंधन योजना बनाई जाए.”

उन्होंने बताया कि विभाग कुछ स्टार्ट-अप्स कंपनियों को भी बुलाने वाला है ताकि वे सम्मेलनों में मिले विचारों से कुछ उत्पाद बना सकें.

पुगाजेन्थी ने आगे कहा कि आदिवासी समुदाय हमारे सभी प्रबंधन प्रयासों में शामिल रहे हैं और उनका योगदान केवल शारीरिक श्रम तक सीमित नहीं है बल्कि बौद्धिक स्तर पर भी होगा.

उन्होंने बताया कि पहले भी आदिवासी समुदाय को वन और वन्यजीव प्रबंधन में शामिल करने के कुछ प्रयास हुए होंगे. लेकिन देश में पहली बार इतना बड़ा प्रयास किया गया है कि उनके पारंपरिक ज्ञान को इकट्ठा करके वन और वन्यजीव प्रबंधन में इस्तेमाल किया जाए.

पूरा आदिवासी समाज इस परियोजना के साथ

वहीं इडुक्की के कोविलमलाई के रहने वाले और केरल के इकलौते आदिवासी राजा, रमन राजमन्नन (Raman Rajamannan) ने बताया कि राज्य का पूरा आदिवासी समाज इस परियोजना को लेकर उत्साहित है और इसका स्वागत करता है.

राजामन्नन ने पीटीआई से कहा, “यह हमारी लंबे समय से मांग रही है कि इस मुद्दे पर हमारी बात सुनी जाए. जंगली सूअरों की समस्या से हम भी जूझ रहे हैं, जिसके कारण हमें अपनी ज्यादातर पारंपरिक फसलें छोड़कर व्यावसायिक फसलों पर निर्भर होना पड़ा है. इससे हमें आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह का नुकसान हुआ है.”

उन्होंने बताया कि केरल के आदिवासी समुदायों में जंगलों और वन्य जीवों के प्रति गहरी ज़िम्मेदारी की भावना पाई जाती थी.

उन्होंने कहा कि पहले जंगल और उसके जीव-जंतुओं के प्रति एक पवित्र सम्मान था, जो अब बहुत कम हो गया है. हाथियों को ‘पट्टी’ और बाघ-तेंदुओं को ‘थाथन’ जैसे स्नेहपूर्ण शब्दों से बुलाया जाता था, जैसे बड़ों को सम्मान देते हुए बुलाया जाता है.

उन्होंने आगे कहा, “हमारे समाज में भी कुछ लोग गलत काम करते हैं और हो सकता है कि उन्हीं के कारण हमें अब लगातार बढ़ रहे जंगली जानवरों के हमलों का सामना करना पड़ रहा है, जो किसी अभिशाप से कम नहीं है. इसलिए यह बहुत जरूरी है कि हम याद रखें कि हम पहले कैसे शांति से रहते थे और उसी जीवनशैली को फिर से अपनाने का प्रयास करें.”

उन्होंने बताया कि यह परियोजना वन और वन्यजीव प्रबंधन में आदिवासी समुदायों के पारंपरिक ज्ञान को पहले ही अपना चुकी है और इसे जमीनी स्तर पर लागू करने से आदिवासियों और आम जनता दोनों को बहुत फायदा होगा.

उन्होंने कहा कि वे हमारी बातें सुन रहे हैं इसीलिए हम दिल से उनका साथ दे रहे है.

मानव-पशु संघर्ष का राजनीतिकरण

हालांकि, मानव-पशु संघर्ष सिर्फ़ केरल तक सीमित नहीं है लेकिन राज्य में राजनीतिक दखल के कारण इस पर लगातार बहस तेज़ हो रही है. सबसे हालिया उदाहरण मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन हाथियों को मारने के आह्वान है.

साल 2020 और 2024 के बीच इन संघर्षों में लगभग 460 लोगों की मौत हो गई और 4527 लोग घायल हुए. ज़्यादातर मामले सांप के काटने, हाथियों, जंगली सूअरों और बाघों से हुए हमलों के कारण हुए हैं.

मानव-पशु संघर्ष का ख़तरा स्पष्ट है, इसकी जड़ में छिपे कारणों को तो सभी जानते हैं लेकिन उन पर ध्यान कम ही दिया जाता है. केरल राज्य योजना बोर्ड की रिपोर्ट में भी माना गया है कि मानव-वन्यजीव संघर्ष ज़्यादातर इंसानों की वजह से ही होते हैं.

राज्य में अक्सर समस्याओं और समाधानों पर गंभीर बहस नहीं होती बल्कि राजनीतिक दोषारोपण और दिखावा होता है.

राज्य मंत्रिमंडल द्वारा हाल ही में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम में संशोधन करके वध की अनुमति देने की सिफारिश करने के निर्णय को मलप्पुरम जिले में आगामी नीलांबुर विधानसभा उपचुनाव से पहले एक राजनीतिक चाल के रूप में देखा जा रहा है. यह इलाका मानव-पशु संघर्षों से ग्रस्त है. हालांकि, केरल सरकार की इसी तरह की मांग को पहले केंद्र ने खारिज कर दिया था.

अधिक जुर्माना और नए नियमों के ज़रिए वन कानूनों को सख्ती से लागू करने के मकसद से केरल वन अधिनियम में लाए गए संशोधनों को उच्च श्रेणी के किसानों के ज़ोरदार विरोध के चलते सरकार ने पहले ही रद्द कर दिया था.

वन विभाग और कई सरकारी संस्थाओं ने मिलकर कई प्रभावी कदम उठाए हैं, जैसे जंगल की सीमा पर हल्दी के पौधे लगाना और जंगल में पानी के कुएं बनाना. लेकिन इन कोशिशों को बड़े पैमाने पर लागू करने और इनके बारे में लोगों को बताने की बहुत कम कोशिश हुई है.

केरल में वन्यजीवों से संघर्ष बढ़ने के पीछे वन्यजीव कार्यकर्ता कई मुख्य कारण बताते हैं: जंगलों में अवैध गतिविधियां जिनसे वन्यजीव प्रभावित होते हैं, ऐसी फसलें उगाना जो जंगली जानवरों को आकर्षित करते हैं, जानवरों के प्राकृतिक आवासों और रास्तों पर अतिक्रमण और पर्यटन से जुड़े लोग जानबूझकर पर्यटकों का मनोरंजन करने के लिए जंगली जानवरों को बुलाते हैं.

लेकिन राज्य सरकार ने इन बुनियादी मुद्दों को काफी हद तक नज़रअंदाज़ कर दिया है. इसके बजाय, वह अपनी बात को सही ठहराने के लिए विदेशों में चल रही हत्याओं का हवाला देती है.

इकोलॉजिस्ट कई बिंदुओं पर इस तुलना को चुनौती देते हैं.

ऑस्ट्रेलिया में, जब कंगारुओं की आबादी लाखों में पहुंच जाती है, तब उनकी संख्या नियंत्रित करने के लिए उन्हें मारा जाता है. केरल में हाथियों की कुल संख्या लगभग 2000 और बाघों की संख्या लगभग 170 है.

साथ ही ऑस्ट्रेलिया मानवीय तरीकों से जीव-जंतुओं का प्रबंधन कर रहा है और यूरोप ने वन्यजीव प्रबंधन में नैतिकता, विज्ञान और कानून को आपस में जोड़ लिया है.

ये मुद्दे इकोलॉजिस्ट का एक समूह द्वारा मुख्यमंत्री के हाथियों को मारने के आह्वान का विरोध करते हुए दायर की गई एक सामूहिक याचिका में उठाए गए थे.

उन्होंने यह भी बताया कि केरल में जंगली हाथियों की संख्या पांच सालों में 58 फीसदी तक कम होकर 2017 के 5,706 से 2023 में मात्र 2,386 रह गई है.

सोसायटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ क्रुएल्टी अगेंस्ट एनिमल्स-इडुक्की के अध्यक्ष और केरल राज्य पशु कल्याण बोर्ड के पूर्व सदस्य एम एन जयचंद्रन की अध्यक्षता वाले पैनल ने इस मुद्दे के समाधान के लिए वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता पर भी ज़ोर दिया.

पहाड़ी इलाकों में मानव-पशु संघर्षों को लेकर राजनीति काफी तेज है, जहां ज्यादातर ईसाई किसान सबसे ज़्यादा आवाज़ उठाते हैं. ईसाई पादरी अक्सर विरोध प्रदर्शन करते हैं और चर्च के नेता इस मामले में खुलकर राजनीतिक पक्षधरता दिखाते हैं.

जहां कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट और सीपीएम के नेतृत्व वाली लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट अब तक एक-दूसरे पर मानव-पशु संघर्षों को लेकर तुष्टीकरण की राजनीति करने का आरोप लगा रहे थे.

वहीं केरल में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए भी नीलांबुर उपचुनाव में मानव-पशु संघर्ष को लेकर नाराजगी को भुनाने की कोशिश कर रही है.

केरल की सीपीएम सरकार ने केंद्र सरकार से पशु वध की मंज़ूरी मांगी है, इसलिए अब ज़िम्मेदारी केंद्र पर थोपने की कोशिश हो सकती है. केंद्र सरकार के राज्य की मांग को मान लेने में कोई हैरानी नहीं होगी.

केरल के सामने एक गंभीर चिंता यह है कि जंगली सूअरों का खतरा शहरों तक फैल रहा है.  जंगली सूअरों के खतरे से निपटने के लिए राज्य सरकार ने पहले ही स्थानीय प्रशासन को इंसानी जान के लिए खतरा बन चुके सूअरों को मारने की इजाज़त दे दी है.

पिछले तीन सालों में लगभग 5 हज़ार जंगली सूअर मारे जा चुके हैं.

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