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पारसनाथ ही नहीं माली पर्बत पर भी आदिवासी आस्था की लड़ाई जारी है

साल 2006 में विज्ञान और पर्यावरण के लिए गैर-लाभकारी केंद्र की एक रिपोर्ट में पाया गया कि ओडिशा ने खनन के लिए किसी भी अन्य भारतीय राज्य की तुलना में अधिक जंगलों को साफ किया था. जिसके चलते लाखों लोग विस्थापित हुए थे. विस्थापितों में मुख्य रूप से आदिवासी थे.

झारखंड का पारसनाथ विवाद हो या छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में खनन का विरोध, इन मुद्दों ने देश के आदिवासियों की पहचान और अस्तित्व से जुड़े मसलों को सतह पर ला दिया है.

ओडिशा के माली पर्बत के स्थानीय आदिवासी भी इस संकट से जूझ रहे है. ये लोग इस इलाके में खनन का विरोध कर रहे है. स्थानीय लोग जिसमें मुख्य रूप से आदिवासी, दलित और बहुजन शामिल है वो पिछले दो दशकों से एक ही मांग कर रहे है कि “हम मर जाएंगे, लेकिन माली पर्वत पर खनन नहीं होने देंगे.”

माली पर्बत ओडिशा के कोरापुट जिले में पोट्टांगी तहसील में स्थित है. इस पर्बत पर बॉक्साइट चट्टानों की खदान है. ऐसे में यहां प्रचूर मात्रा में वनस्पति और बॉक्साइट पर शुरु से ही आदित्य बिड़ला समूह के स्वामित्व वाली हिंडाल्को की नजर है.

साल 2003 में आदित्य बिड़ला ग्रुप ने 268.11 हेक्टेयर भूमि पर बॉक्साइट खनन करने के लिए ओडिशा सरकार से पट्टा प्राप्त किया. देखा जाए तो ये ज़मीन लगभग 6 लाख टन बॉक्साइट प्रति वर्ष की क्षमता के साथ 375 फुटबॉल मैदानों के बराबर है. उद्योग को 2006 में अपना पहला पर्यावरण मंजूरी समझौता (ECA) भी प्राप्त हुआ जो 2011 में समाप्त हो गया.

इसके साथ ही इस पर्बत को बचाने के लिए स्थानीय लोग का विरोध भी शुरु हो गया. लगभग 20 साल से ये लोग माली पर्बतक्षेत्र में हिंडाल्को कंपनी की बॉक्साइट खनन गतिविधियों का विरोध करते आ रहे हैं. इतने सालों में विरोध के चलते अदालती मामले, हिंसा और आपराधिक आरोप स्थानीय लोगों के जीवन का हिस्सा बन गए है. जमीनी संघर्ष के अलावा मामला कोर्ट में भी लड़ा जा रहा है. अब हाइकोर्ट में 30 जनवरी को सुनवाई होगी.

खनन का विरोध करते स्थानीय

ओडिशा भारत के बॉक्साइट रिजर्व का आधे से अधिक हिस्सा रखता है और इसका 95 प्रतिशत दक्षिण-पूर्व क्षेत्र में स्थित है, जिसे खान विभाग पूर्वी घाट मोबाइल बेल्ट (EGMB) कहता है. पिछले कई वर्षों में, कोरापुट, रायगढ़ और कालाहांडी जिलों में खनन के लिए बड़े पैमाने पर खेतों और जंगलों को साफ कर दिया गया है, जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर आदिवासी और दलित समुदायों का विस्थापन और पलायन हुआ है.

खनन का विरोध क्यों?

नियमगिरि (ओडिशा), रावघाट, नंदराज, हसदेव, बस्तर (छत्तीसगढ़), पारसनाथ (झारखंड) सब पहाड़ आदिवासियों के आस्था के क्षेत्र रहे हैं. माली पर्बत भी इसी श्रेणी में शामिल है. माली पर्बत के ऊपर आदिवासियों, दलितों और बहुजनों की सर्वोच्च पूर्वज पाकुली देवी का निवास स्थान है. यहां के स्थानीय समुदाय में परजा, कोंध, गदाबा और माली समुदाय शामिल हैं.

माना जाता है कि प्रस्तावित खनन क्षेत्र के केंद्र में एक विशाल गुफा है. इसके अंदर, एक विशाल पत्थर का टीला है, जिसे माली परबत के स्थानीय लोगों की देवी पाकुली देवी के रूप में पूजा जाता है. हर साल अप्रैल में यहां धार्मिक उत्सवों के साथ-साथ पवित्र अनुष्ठान आयोजित किए जाते हैं.

स्थानीय लोगों का कहना है कि खनन होने से, उनके धर्म और आस्था का प्रतीक पूरी तरह से मिटा दिया जाएगा.

अब तक क्या हुआ ?

माली पर्बत में खनन के उद्देश्यों के लिए पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया 2003 में शुरू हुई. 2006 में पर्यावरण मंजूरी दी गई और2007 में हिंडाल्को को खनन पट्टा दिया गया. लेकिन लोगों के संघर्ष के कारण, 2010 में खान ने संचालन बंद कर दिया. साल 2011 में पर्यावरण मंजूरी भी खत्म हो गई.

स्थानीयों का दावा है कि इसके बाद भी राज्य सरकार और अर्धसैनिक बलों के सहयोग के दम पर हिंडाल्को ने अवैध रूप से 2012 में खनन वापस शुरू कर दिया. हालांकि इस दौरान स्थानीय लोगों का आंदोलन भी तेज़ होता चला गया. जिसके चलते 2014-15 में फिर से खनन बंद हो गया और खनन पट्टा 2019 में समाप्त हो गया. साल 2021 में, 268.1 हेक्टेयर भूमि के पट्टे के नवीनीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई.

फोटो स्त्रोत : द कारवां

2021 के सितंबर और नवंबर में आयोजित ग्राम सभा की दोनों बैठकों में लगभग 4000 पुलिस और अर्धसैनिक बलों की तैनाती देखी गई. नवंबर 2021 में आयोजित दूसरी ग्राम सभा में स्थानीय लोगों का कड़ा विरोध देखा गया. इस सभा में करीब 1500 लोगों को ग्राम सभा में शामिल होने से रोक दिया गया था.

इस साल 5 जनवरी को ओडिशा उच्च न्यायालय ने कोरापुट के जिला प्रशासन को अनुसूचित क्षेत्रों के पंचायत विस्तार अधिनियम के तहत अनिवार्य रूप से प्रस्तावित खनन से संबंधित भूमि के निर्णय में स्थानीय लोगों की भागीदारी के साथ एक ‘मुक्त और निष्पक्ष ग्राम सभा’ आयोजित करने का आदेश दिया.

हाईकोर्ट के निर्देशानुसार 07 जनवरी को आयोजित ग्राम सभा में माली पर्वत क्षेत्र के 81 प्रतिनिधियों में से 72 के बहुमत ने खनन का विरोध किया. अब ओडिशा उच्च न्यायालय में मामले की अगली सुनवाई 30 जनवरी 2023 को है.

सिर्फ ओडिशा ही नहीं देश के दूसरे राज्यों में भी यही हाल

ये पहली बार नहीं है जब किसी क्षेत्र के आदिवासी वहां होने वाले खनन का विरोध कर रहे हो. ताज़ा उदाहरण छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य का है. छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य में कोयला खदानों को राज्य सरकार से अनुमति दिए जाने के बाद आदिवासी लगातार आंदोलन कर रहे हैं.

सरगुजा, कोरबा और सूरजपुर ज़िले में 1 लाख 70 हज़ार हेक्टेयर में फैला हसदेव अरण्य देश के सबसे विविध और खूबसूरत जंगलों में से एक है. आदिवासियों का कहना है कि कोयले के खनन की वजह से हसदेव अरण्य के 8 लाख पेड़ों को काटा जाना है. इसके अलावा यहाँ के कम से कम 10 हज़ार आदिवासी विस्थापित भी होंगे.

छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में पेड़ों की कटाई से पहले पूजा करते स्थानीय लोग

इससे पहले ओडिशा के ही नियामगिरी में आदिवासियों ने खनन का जमकर विरोध किया था. नियामगिरी हिल्स डोंगरिया कोंध का घर है, जो विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति समूह यानी PVTG है. वेदांता कंपनी को नियमगिरि में खनन करने से रोकने के लिए यहां के आदिवासियों ने एक दशक तक लंबा संघर्ष किया. साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद उसे रोका जा सका.

वहीं महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में सुरजागढ़ हिल्स में खनन के लिये पूरे पहाड़ को खत्म कर दिया गया, वहाँ की वनस्पति, जंगल, जीव, आदिवासियों के देवता सब खत्म हो गए. आज वहाँ पीने को साफ पानी नहीं है. धीरे धीरे खेती का क्षेत्र भी खत्म हो रहा है. ऐसे में ओडिशा के आदिवासी भी अपने भविष्य को लेकर चिंतिंत है. उन्हें डर है कि कही उनका अस्तित्व भी संकट में ना पड़ जाए.

क्या मानव जीवन की कीमत पर विकास संभव?

आदिवासियों के भूमि अधिकारों की सुरक्षा के लिए विशेष संवैधानिक और कानूनी प्रावधान है. इसके बावजूद वो भारत में सबसे ज्यादा विस्थापित,कमजोर और गरीब बने हुए हैं. लगभग सभी क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों की हालात बद-से-बदतर है. ऐसे में सवाल उठता है क्या सरकारों को सिर्फ आदिवासियों की जंगल-जमीन-पहाड़ चाहिए, उसके अंदर से खनिज-कोयलों को निकालना है. क्या आदिवासियों के हाल को नियती पर छोड़ देना चाहिए.

आजादी के 75 साल बाद भी आदिवासी इलाकों में न शैक्षणिक स्थिति सुधर हो रहा है न ही आर्थिक स्थिति को बदलने के प्रयास हो रहे है. आदिवासी क्षेत्रों में स्कूल, अस्पताल और बुनियादी सुविधाओं की कमी अभी भी देखी जा सकती है.

माली परबत में खनन का विरोध करने वालों का कहना है कि यह पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम का स्पष्ट उल्लंघन है जो अभी तक इस क्षेत्र में लागू नहीं किया गया है. हालाँकि यह क्षेत्र पाँचवीं अनुसूची के अंतर्गत आता है, लेकिन यहाँ लोगों के अधिकारों की लगातार अनदेखी की जाती है.

माली पर्वत की हरी-भरी भूमि को अक्सर ‘ओडिशा की सब्जी का कटोरा’ कहा जाता है, वहीं इस पर्वत से निकलने वाली नदियां कोलाब नदी का पोषण करती हैं, जो स्थानीय लोगों की जीवन रेखा है. भूमि के साथ-साथ खेती यहां के लोगों की आजिविका का साधन है. माली परबत को पैंगोलिन की लुप्तप्राय आबादी और पक्षियों की 100 से अधिक प्रजातियों का घर भी कहा जाता है जो खनन परियोजना से हानिकारक रूप से प्रभावित होंगे.

1 COMMENT

  1. आपकी खबरें वास्तव में हमारे समाज को झकझोर कर रख देती हैं वह इसलिए आधुनिकता के इस हालात में आदिवासियों की हालात बहुत बदतर है और वह चाहते ही क्या है कि प्रकृति अच्छी रहे उसके बाद भी उनके साथ लगातार अन्याय शुक्र है आप जैसे ईमानदार सामाजिक सरोकार के पत्रकारों का कि आपकी मीडिया इन चीजों को कम से कम दूरदराज बैठे सभी लोगों को पहुंचा रही है बहुत ज्यादा ध्यान आकर्षित करने की बात है एक तरफ तो हम कहते हैं कि प्राकृतिक धरोहर प्रकृति हमारी है दूसरी तरफ लगातार कुछ लालची कारोबारियों के चक्कर में कुछ लालची सरकारें इस प्रकार की नीतियां लाती हैं कि भोले भाले हजारों सालों से वहां रह रहे बासी को उजाड़ रहे हैं वह चाहते हैं बस की प्रगति सदैव बनी रहे और कुछ लोग चाहते हैं कि हम आज ही पृथ्वी को जितना चाहे उतना खोजने और जितना चाहे उतना खनन करने के बाद अपनी इच्छा अनुसार तत्व निकालकर उसे बंजर बना दें वाह रे राजनीति

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