HomeAdivasi Dailyबाघ संरक्षण और आदिवासी अधिकारों पर प्रहार

बाघ संरक्षण और आदिवासी अधिकारों पर प्रहार

बैगा और सोलीगा जैसी जनजातियों के बारे में यह साबित हो चुका है कि वन्यजीवों के साथ उनका सह-अस्तित्व लाभकारी रहा है. इसके बावजूद बड़े पैमाने पर विस्थापन जारी है, जो उन नीतियों से प्रेरित है जो अधिकारों पर पर्यटन और सफारी को प्राथमिकता देती हैं. यह समय की मांग है कि संरक्षण प्रथाओं में बदलाव हो. ऐसा बदलाव जो जैव विविधता को संरक्षित करने में आदिवासी समुदायों द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करता हो.

बाघ संरक्षण यानि प्रोजेक्ट टाइगर (Project Tiger) एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है. 2006 में बाघों की संख्या घटकर 1,411 रह गई थी. लेकिन 2022 तक यह संख्या प्रभावशाली ढंग से बढ़कर 3,167 हो गई है.

बाघों की संख्यां में यह सुधार इसलिए हुआ है क्योंकि 1973 में देश में कुल 9 टाइगर रिजर्व थे, साल 2023 तक देश में टाइगर रिजर्व की संख्या बढ़ते-बढ़ते 54 पर पहुंच गई है.

बाघों की संख्या में यह वृद्धि संरक्षणवादियों के लिए एक जीत का संकेत है. लेकिन जब जंगलों को टाइगर रिजर्वों में चिन्हित किया गया तो उस जंगल के भीतर और आसपास रहने वाले आदिवासी समुदायों पर भी गहरा प्रभाव पड़ा है.

बाघ संरक्षण प्रयासों की आड़ में अक्सर स्थानीय जनजातियों की भूमि पर अतिक्रमण, पर्यावरण संरक्षण और स्थानीय समुदायों के अधिकारों और कल्याण के बीच संतुलन बनाने की जटिल चुनौती रहती है.

बाघों की सुरक्षा के लिए सरकार की रणनीति की जांच करते समय एक महत्वपूर्ण मुद्दा ‘स्वैच्छिक पुनर्वास’ कार्यक्रम को लागु करना रहा है.

जनजातियों को रिजर्व से बाहर निकालने के उद्देश्य से इस पहल के क्रियान्वयन के कारण काफी आलोचना हुई है. आलोचकों का तर्क है कि इस कार्यक्रम में अक्सर सहमति का अभाव होता है और पर्याप्त मुआवजा भी नहीं दिया जाता है.

इसके अलावा आदिवासियों के मुआवजे के लिए निर्धारित धन के दुरुपयोग के मामले भी सामने आए हैं, जिससे मौजूदा शिकायतें और बढ़ गई हैं.

कुल मिलाकर यह स्थिति वन्य जीव संरक्षण लक्ष्यों (Wildlife Protection Goals) और निवासियों के कल्याण (Habitants Rights) के बीच असमानता को दर्शाता है.

बाघों के आवासों के भीतर बफर और कोर ज़ोन की स्थापना के चलते आदिवासी परिवारों को स्थानांतरित किया गया है. अब इन प्रयासों पर होने वाले ख़र्चों की जांच भी हो रही है.

वन्य जीव संरक्षण की नीति की वजह से सोलिगा, कट्टुनायकन और पनिया जैसे समुदायों के सामने पारंपरिक जीवनशैली और प्रकृति के साथ उनके संबंध ख़तरे में पड़ गए हैं.

आदिवासी समुदाय – संरक्षण के गुमनाम हीरो

टाइगर रिज़र्व से जुड़ी स्टडी यह बताती हैं कि यह धारणा सिरे से ग़लत हैं कि जनजातीय समूह बाघों के आवासों को नुकसान पहुँचाते हैं. इसके बजाय रिसर्च से पता चलता है कि ये समुदाय वास्तव में बाघों की आबादी बढ़ाने और वन्यजीवों की भलाई को प्राथमिकता देने में मदद कर सकते हैं.

वन क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति अक्सर ख़तरा पैदा करने के बजाय संरक्षण प्रयासों का समर्थन करती है.

इस बात का उदाहरण भारत के कर्नाटक में बिलिगिरी रंगास्वामी मंदिर (BRT) टाइगर रिजर्व है. इस रिजर्व में स्थानीय सोलिगा जनजाति बाघों के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से रहती है.

एक अध्ययन से पता चला है कि 2010 से 2014 तक BRT टाइगर रिजर्व में बाघों की आबादी 35 से करीब दोगुनी होकर 68 हो गई. यह वृद्धि दर बाघों की आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि के औसत से कहीं अधिक है.

सोलिगा जनजाति अपने प्राकृतिक परिवेश के प्रति सम्मान रखती है और विशेष रूप से बाघों का सम्मान करती है.

इस क्षेत्र में सोलिगा और बाघों के बीच संघर्ष या शिकार की घटनाओं का दस्तावेजों में दर्ज कोई मामला नहीं है. इन निष्कर्षों से पता चलता है कि सोलिगा जैसे समुदाय पीढ़ियों से वन्यजीवों के साथ शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में हैं.

बाघ संरक्षण और आदिवासी अधिकारों पर ग्राउंड रिपोर्ट

ये समुदाय संरक्षण प्रयासों को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकते हैं.

लेकिन बांदीपुर और मुदुमलाई टाइगर रिजर्व के परिदृश्य में आदिवासी समुदायों और संरक्षण पहलों के बीच एक मुश्किल संबंध को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है.

इन रिजर्वों में बाघों सहित अन्य वन्यजीव आबादी रहती है और यह एक अलग कहानी बताती है.यहां देखा गया है कि संरक्षण प्रयास कैसे सोलीगा कट्टुनायकन, पनिया और माउंटडेन चेट्टी जैसी जनजातियों को प्रभावित करते हैं.

उदाहरण के लिए, मुदुमलाई में 100 से अधिक आदिवासी परिवारों ने हाल ही में 10 लाख रुपए या फिर इतने की भूमि की पेशकश करने वाली पुनर्वास योजना के हिस्से के रूप में उनके जबरन पुनर्वास के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया.

पनिया और कट्टुनायकन जनजातियों जैसे कई परिवारों का कहना ​​है कि उन्हें मुआवज़ा नहीं मिला है. जिसके वजह से वे मांग कर रहे हैं कि या तो उन्हें जंगल में वापस बसा दिया जाए या फिर मुआवज़े में वृद्धि की जाए.

इससे ऐसा लगता है कि बाघ और अन्य वन्य जीव संरक्षण से जुड़ी नीतियों के तहत पुनर्वास प्रयासों में पारदर्शिता की ज़रुरत है.

एक तरफ बाघ अभयारण्यों में पर्यटकों की संख्या बढ़ती जा रही है. वहीं जंगल के मूल निवासी जो वास्तव में जंगल के मालिक और रक्षक हैं उनको बाघ संरक्षण के नाम पर विस्थापित किया जा रहा है.

एक वन अधिकारी ने नाम ना छपाने की शर्त पर कहा “बाघ अभयारण्यों में पर्यटन एक नकारात्मक पहलू है” जो पर्यटन को बढ़ावा देने और आदिवासी अधिकारों की उपेक्षा के बीच एक बड़े विरोधाभास को दर्शाता है. यह विरोधाभास तब स्पष्ट हो जाता है जब ये रिजर्व पर्यटकों का स्वागत करते हैं जबकि पर्यावरण संरक्षण की आड़ में अपने संरक्षकों को विस्थापित करते हैं.”

संरक्षण और जनजातीय अधिकारों के बीच संतुलन

जैव विविधता का संरक्षण कभी-कभी उन मूल निवासी और आदिवासी समूहों की कीमत पर होता है, जिन्होंने लंबे समय से जंगल और पर्यावरण की देखभाल की है.

अक्सर यह देखा गया है कि बाघ संरक्षण के प्रयासों में आदिवासियों के अधिकारों का ख़्याल ही नहीं रखा जाता है.

भारत जैसे जैव विविधता वाले देश में यह संघर्ष विशेष रूप से स्पष्ट है. उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ में अचानकमार टाइगर रिजर्व को ही लें. यहां बैगा जनजाति को बाघों की आबादी के लिए कोई ख़तरा न होने के बावजूद विस्थापन का सामना करना पड़ रहा है.

जबकि 2011 और 2015 के बीच रिजर्व में बाघों की संख्या 12 से बढ़कर 28 हो गई, फिर भी बैगा लोगों की पैतृक भूमि ख़तरे में है.

यह परिदृश्य एक घटना नहीं बल्कि एक बड़ी प्रवृत्ति का हिस्सा है जहां संरक्षण उपायों के कारण अनजाने में या कई बार जानबूझ कर भी मूल निवासियों को हटाया और हाशिए पर डाल दिया जाता है.

इस सिलसिले में सबसे बड़ा उदाहरण 2019 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत दस लाख से अधिक वनवासियों को हटाने का फ़ैसला है. इस फ़ैसले ने पूरे देश में हंगामा मचा दिया था.

सरकार के आग्रह पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस आदेश पर रोक लगा दी थी. लेकिन इसके बावजूद इसने भारत में वन अधिकारों के विवादास्पद मुद्दे और मूल निवासियों की कमज़ोर स्थिति की ओर ध्यान आकर्षित किया.

कान्हा टाइगर रिजर्व की स्थिति इस दुविधा का एक उदाहरण है. जहां बैगा और गोंड आदिवासी परिवारों को उचित मुआवज़ा या उचित पुनर्वास के बिना विस्थापित कर दिया गया. वन्यजीव संरक्षण में उनके महत्वपूर्ण योगदान की जड़ें उनके पुराने रीति-रिवाजों और ज्ञान में निहित हैं.

भारत और विश्व स्तर पर प्रचलित वर्तमान संरक्षण रणनीति अक्सर मूल निवासी समुदायों और उनके पर्यावरण के बीच लाभकारी संबंधों को पहचानने में विफल रहती है.

बैगा और सोलीगा जैसी जनजातियों के बारे में यह साबित हो चुका है कि वन्यजीवों के साथ उनका सह-अस्तित्व लाभकारी रहा है. इसके बावजूद बड़े पैमाने पर विस्थापन जारी है, जो उन नीतियों से प्रेरित है जो अधिकारों पर पर्यटन और सफारी को प्राथमिकता देती हैं.

इसलिए समय की मांग है कि संरक्षण प्रथाओं में बदलाव हो. ऐसा बदलाव जो जैव विविधता को संरक्षित करने में आदिवासी समुदायों द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करता हो.

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