मणिपुर राज्य, जिसे अक्सर “पूर्वोत्तर भारत का गहना” कहा जाता है…वो अद्भुत सुंदरता और विविधता वाला क्षेत्र है. यह भारत और म्यांमार की सीमा पर बसा है और यहां कई समुदाय, भाषाएं और परंपराएं एक साथ रहती हैं. लेकिन इसकी हरी-भरी पहाड़ियों और घाटियों के पीछे जातीय, राजनीतिक और भौगोलिक मतभेदों की एक गहरी कहानी छिपी है.
पिछले दो साल में मैतेई और कुकी-ज़ो समुदायों के बीच व्याप्त जातीय हिंसा के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है.
ये हिंसक और अस्थिर करने वाले संघर्ष सुर्खियों में रहते हैं और मणिपुर के बारे में देश की सोच को प्रभावित करते हैं. लेकिन इस भेदभावपूर्ण माहौल में छोटी अल्पसंख्यक जनजातियों की लंबे समय से चली आ रही परेशानियों पर ज़्यादातर ध्यान नहीं दिया जाता.
ये समूह, जिनमें अक्सर कुछ हज़ार लोग ही होते हैं, राज्य में सबसे कमजोर तबकों में से हैं. विस्थापन, हाशिए पर धकेलने और पहचान मिटाने जैसे उनके अनुभवों को नज़रअंदाज़ किया जाता है क्योंकि बड़े जातीय समूहों की आवाज़ ज़्यादा बुलंद होती है.
यह चुप्पी कोई संयोग नहीं है बल्कि यह सिस्टम की अनदेखी, ऐतिहासिक भेदभाव और एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था का नतीजा है जो उनकी मौजूदगी को शायद ही कभी स्वीकार करती है.
ये छोटी जनजातियां हैं – कोइरेंग, ऐमोल, चिरु, पुरुम, खारम और कोम.
बदलाव, हाशिए पर धकेलना और राजनीतिक बहिष्कार
कई दशकों से मणिपुर जातीय संघर्ष, विद्रोह और जवाबी कार्रवाई से प्रभावित रहा है. हिंसा के हर दौर में लोगों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा. राहत शिविर, जले हुए गांव और पलायन राज्य के इतिहास का एक दुखद हिस्सा बन गए हैं.
मैतेई या कुकी-ज़ो परिवारों का विस्थापन कभी-कभी राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान खींचता है लेकिन छोटी अल्पसंख्यक जनजातियां अक्सर रिकॉर्ड से गायब हो जाती हैं. उनके विस्थापन का कोई खास ध्यान नहीं दिया जाता, इसके बारे में कम जानकारी होती है और इसे शायद ही कभी मान्यता मिलती है.
ज्यादातर लोग बाहरी इलाकों में रहते हैं. ये ऐसे इलाके हैं जो अब हिंसक समुदायों के बीच बफर ज़ोन या “पतली लाल रेखा” का काम करते हैं. उनकी लोकेशन उन्हें आसान निशाना बनाती है. जो गांव कभी सांस्कृतिक केंद्र हुआ करते थे, वे अब शक और हमले की जगह बन गए हैं.
परिवार अपने पुराने घर छोड़कर दूर के शहरों में शरण लेते हैं या सुरक्षा और रोज़ी-रोटी की तलाश में इम्फाल, शिलांग, गुवाहाटी या दिल्ली जैसे शहरों में अस्थायी तौर पर चले जाते हैं.
इन अल्पसंख्यकों के लिए विस्थापन एक बार की त्रासदी नहीं बल्कि एक लगातार चलने वाली स्थिति है. हिंसा की हर घटना उन्हें और मुश्किल में डाल देती है, फिर भी उनकी यह हालत शायद ही कभी सुर्खियों में आती है.
मणिपुर के ध्रुवीकृत परिदृश्य में तटस्थता एक सिद्धांत भी है और एक ख़तरा भी.
कोइरेंग, ऐमोल, चिरु, पुरुम, खारम और कोम जैसी छोटी जनजातियों ने ऐतिहासिक रूप से मैतेई, नागा और कुकी समुदाय के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखे हैं और खुले तौर पर किसी के साथ गठबंधन करने से बचते रहे हैं. लेकिन संघर्ष के समय तटस्थता शायद ही कभी बर्दाश्त की जाती है.
बड़े समूहों के बीच फंसे होने पर उन पर अक्सर संदेह किया जाता है. किसी का पक्ष लेने से इनकार करने पर उन्हें बलि का बकरा बना दिया जाता है और मुखबिर, सहयोगी या देशद्रोही करार दिया जाता है.
परिणाम यह हुआ कि उन्हें दोहरी मुश्किलों का सामना करना पड़ा… एक तरफ लड़ने वाले गुटों से बाहरी ख़तरा और दूसरी तरफ बड़े आदिवासी समुदाय से अंदरूनी अलगाव. तटस्थता, शांति के लिए एक रुख के तौर पर सम्मान पाने के बजाय, शक का कारण बन जाती है. यह उन्हें ऐसे संघर्ष में बाहरी बना देती है जो असल में कभी उनका था ही नहीं.
मणिपुर की राजनीति लंबे समय से इस सोच में फंसी रही है कि आदिवासी होने का मतलब या तो नागा होना है या कुकी. यह सोच छोटी जनजातियों के अस्तित्व को ही मिटा देती है. कोइरेंग, ऐमोल, कॉम जैसी जनजातियां न तो संख्या में बड़ी हैं और न ही राजनीतिक रूप से प्रभावशाली.
उनकी भाषाएं केवल कुछ हज़ार लोग ही बोलते हैं, उनकी परंपराएं मौखिक रूप से ही सुरक्षित हैं और उनकी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां उनके गाँवों से बाहर शायद ही जानी जाती हैं.
फिर भी उनका अपना अलग इतिहास और पहचान है, जो उतनी ही पुरानी और वैध है. इस दोहरी पहचान के बीच, कोइरेंग समुदाय ने हमेशा तटस्थता का रास्ता चुना.
औपनिवेशिक शासन के दौरान उन्होंने जनजातियों के बीच की प्रतिद्वंद्विता से खुद को दूर रखा, नागा-कुकी संघर्ष के दौरान भी तटस्थ रहे और किसी भी गुट के साथ नहीं जुड़े. इस स्वतंत्रता ने उनकी पहचान तो बचाई लेकिन उन्हें बिना किसी सहयोगी के अकेला भी छोड़ दिया.
संघर्ष के समय, तटस्थता कमजोरी बन जाती है…सभी को उन पर शक होता है, कोई उनकी रक्षा नहीं करता.
मणिपुर के अल्पसंख्यक जनजातियों का हाशिएकरण नई बात नहीं है, यह औपनिवेसिक और उसके बाद के इतिहास में जड़ा हुआ है.
ब्रिटिश शासन के दौरान, पहाड़ी और घाटी क्षेत्रों का प्रशासन अलग-अलग होता था. मैतेई बहुल घाटी को आधुनिक राजनीतिक ढांचे में शामिल कर लिया गया. जबकि पहाड़ी जनजातियों का प्रशासन ग्राम प्रमुखों के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से होता था.
यह द्वंद्व आज़ादी के बाद भी असमानता को और बढ़ा गया.
1949 में जब मणिपुर भारतीय संघ में शामिल हुआ तो यह असंतुलन और बढ़ गया. घाटी प्रशासनिक और राजनीतिक केंद्र बन गई, जहां ज़्यादातर विकास निवेश हुआ जबकि पहाड़ी इलाके उपेक्षित रहे.
सड़कें, स्कूल, अस्पताल और नौकरियों का विकास असमान रहा, जिससे कई पहाड़ी समुदाय अब भी सिर्फ़ अपनी आजीविका के लिए खेती पर निर्भर हैं.
छोटी अल्पसंख्यक जनजातियों के लिए तो हाशिए पर रहने की स्थिति और भी गंभीर थी. अक्सर पहाड़ी इलाकों में रहने वाली इन जनजातियों को विकास योजनाओं से पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया. जो सरकारी कार्यक्रम उन तक पहुंचते भी थे, वे भ्रष्टाचार और अक्षमता से ग्रस्त थे.
परिणाम यह है कि आज भी अभाव का यह पैटर्न जारी है…सीमित स्वास्थ्य सेवाएं, खराब शिक्षा की स्थिति और राज्य स्तर की योजना में लगभग कोई प्रतिनिधित्व नहीं. लोकतंत्र प्रतिनिधित्व का वादा करता है, लेकिन मणिपुर में छोटी जनजातियां राजनीतिक मंच पर शायद ही कभी जगह पा पाती हैं.
विधानसभा की 60 सीटों में से 19 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. फिर भी इन सीटों पर संख्या में ज़्यादा नागा और कुकी-ज़ो समूह का एकाधिकार है.
कोइरेंग, ऐमोल, कोम और चिरू जैसी छोटी जनजातियों के पास कोई खास निर्वाचन क्षेत्र नहीं है.
उनकी आबादी इतनी छोटी है कि वे फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (FPTP) वाले चुनाव में जीत नहीं पा सकतीं. नतीजतन, उनके मुद्दों पर शायद ही कभी चर्चा होती है, उनकी भाषाओं को मान्यता नहीं मिलती और उनके अधिकारों को आसानी से व्यापक जातीय श्रेणियों में शामिल कर लिया जाता है.
ब्युरोक्रेसी में भी इसी तरह का असंतुलन दिखता है. आदिवासी बहुल जिलों में महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर अक्सर मुख्य समुदाय के अधिकारी होते हैं, जिससे राज्य की नीति और जमीनी हकीकत के बीच का अंतर और बढ़ जाता है.
यहाँ तक कि “अप्रतिनिधित्व वाले जनजातियों” के लिए आरक्षित सरकारी नामित सीटों पर भी कभी-कभी बड़े समूहों के सदस्य आ जाते हैं, जो यह दिखाता है कि कैसे सबसे छोटी आवाज़ों को दबा दिया जाता है.
छोटी जनजातियों के लिए यह संघर्ष सिर्फ राजनीतिक या आर्थिक नहीं, बल्कि अस्तित्व से जुड़ा है. कुछ सौ लोग ही बोलने वाली भाषाएं विलुप्त होने के ख़तरे में हैं. रीति-रिवाज और त्यौहार भी खंडित रूप में ही बचे हैं.
मौखिक इतिहास, जो पहले पीढ़ियों में आगे बढ़ता था, अब पलायन और विस्थापन के कारण ख़तरे में है. सांस्कृतिक संरक्षण के लिए संस्थागत समर्थन के अभाव में ये समुदाय मुख्यधारा की संस्कृति में घुल-मिल जाने का ख़तरा झेल रहे हैं.
कई लोग सुरक्षा के लिए खुद को नागा या कुकी के रूप में पहचानते हैं, बड़े समूहों में शादी करते हैं या अपनी भाषा छोड़ देते हैं. इसका नतीजा सांस्कृतिक पहचान का खत्म होना है, मणिपुर की विविधता को समृद्ध करने वाली परंपराओं का धीरे-धीरे गायब हो जाना.
मणिपुर की अल्पसंख्यक जनजातियों की पीड़ा अदृश्यता से और भी बढ़ जाती है. मीडिया कवरेज मैतेई, नागा और कुकी-ज़ो पर केंद्रित है, छोटे समूहों की बहुत कम चर्चा होती है.
शांति, विकास या सुरक्षा पर राष्ट्रीय बहसों में उनके अस्तित्व को शायद ही कभी स्वीकार किया जाता है. यह अदृश्यता निराशा को जन्म देती है.
मान्यता के बिना, उनकी शिकायतों का समाधान नहीं होता; सहयोगियों के बिना, उनका विस्थापन स्थायी हो जाता है; राजनीतिक तंत्र के बिना, उनका अस्तित्व अनिश्चित हो जाता है. उनकी चुप्पी को अक्सर सहमति समझ लिया जाता है, जबकि वास्तव में यह डर और बहिष्कार से उपजी होती है.
न्याय की ओर एक कदम की जरूरत
अगर मणिपुर में भारत का लोकतांत्रिक दृष्टिकोण सार्थक होना है, तो इसे राज्य के सबसे छोटे समुदायों तक भी पहुंचाना होगा.
इन समुदायों के अस्तित्व को स्वीकार करना सिर्फ सांस्कृतिक संवेदनशीलता का मामला नहीं है बल्कि यह स्थायी शांति के लिए भी ज़रूरी है. इसके लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों, नामित सीटों या आनुपातिक प्रतिनिधित्व के माध्यम से राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना आवश्यक है.
समावेशी शांति प्रक्रिया में यह सुनिश्चित करना चाहिए कि छोटे जनजातीय समूह भी बातचीत की मेज पर हों. लक्षित विकास योजनाओं में स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और आजीविका सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए. भाषा डॉक्यूमेंटेशन और विरासत को बढ़ावा देने सहित सांस्कृतिक संरक्षण की पहलें ज़रूरी हैं.
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