सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की बेंच ने एक महत्वपूर्ण फ़ैसले में यह तय कर दिया है कि राज्यों को दलितों और आदिवासी समुदायों (Scheduled Casts and Scheduled Tribes) को मिलने वाले आऱक्षण (reservation) का बंटवारा किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में यह अधिकार राज्य सरकारों को दे दिया है.
इस फ़ैसले से सुप्रीम कोर्ट ने साल 2004 में 5 जजों की सुप्रीम कोर्ट बेंच का फ़ैसला पलट दिया है. 2004 में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने कहा था कि राज्य सरकारों को यह अधिकार नहीं है कि वह अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजातियों के भीतर वर्गीकरण या उप वर्गीकरण करें.
सर्वोच्च अदालत के 5 जजों की इस बेंच ने यह माना था कि अनुसूचित जाति और जनजाति की सूचि में किसी भी तरह का बदलाव करने का अधिकार सिर्फ़ संसद को ही है. इस बारे में बेंच ने संविधान की आर्टिकल 341 का हवाला दिया गया था.
सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच के फ़ैसले पर काफ़ी बहस हो रही है. यह बहस अपेक्षित भी है क्योंकि यह मामला सामाजिक शोषण, पिछड़ेपन और संविधान में निहित बराबरी के हक़ से जुड़ा हुआ है.
सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले ने जहां एक बड़े सवाल का जवाब दिया है वहीं कई नए सवाल भी पैदा हो गए हैं. इस फ़ैसले पर अभी तक ज़्यादातर राजनीतिक दलों ने चुप्पी साधी हुई है. सरकार की तरफ से भी इस मुद्दे पर कोई हलचल नज़र नहीं आ रही है.
इसके अलावा इस फ़ैसले से बुद्धिजीवियों और क़ानून के जानकारों के बीच भी बहस चल रही है. इस बहस में कई सवाल शामिल हैं. मसलन पहला सवाल तो यही है कि सुप्रीम कोर्ट ने साल 2004 के अपने ही फ़ैसले पर फिर से विचार क्यों किया?
इसके बाद सवाल आता है कि सुप्रीम कोर्ट ने कोटा के भीतर कोटा यानि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के भीतर उप-समूह बनाने के अनुमति जिस आधार पर दी है वह कितना सही है?
सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले में क्रीमी लेयर पर विस्तार से चर्चा भी की गई है. क्या यह फ़ैसला सरकारों को कोटा के भीतर कोटा लागू करने का आदेश है या फिर यह राज्य सरकारों की मर्ज़ी पर छोड़ दिया गया है?
आईए इन चार ज़रूरी सवालों को समझने की कोशिश करते हैं –
आरक्षण के बंटवारे पर 2004 का फ़ैसला
साल 1999 में पहले एक ऑर्डिनेंस और फिर एक एक्ट (ordinance and act) के ज़रिये अनुसूचित जातियों को चार समूहों में बांट दिया गया. इन समूहों को A, B, C और D कहा गया. इस चार समूहों में अनुसूचित जाति को मिलने वाले आरक्षण को अलग अलग प्रतिशत में बांट दिया गया.
तत्कालीन आंध्र प्रदेश सरकार ने इस फ़ैसले के समर्थन में तर्क देते हुए कहा कि अनुसूचित जातियों में कुछ समूह ऐसे हैं जिनको विकास का लाभ नहीं मिला है. सरकार ने कहा कि समाज के ऐसे समूहों को यह फ़ैसला आगे बढ़ने में मदद करेगा.
आंध्र प्रदेश सरकार के इस फ़ैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई. लेकिन कोर्ट ने सरकार के फ़ैसले को दी गई चुनौती को ख़ारिज कर दिया.
लेकिन साल 2004 में सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की बेंच ने आंध्र प्रदेश सरकार के फ़ैसले के असंवैधानिक क़रार दे दिया. अदालत ने कहा कि संविधान की धारा 341 यह प्रावधान करती है कि संसद से पास क़ानून के अनुसार राष्ट्रपति ही अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की सूचि को जारी कर सकते हैं.
इस फ़ैसले में कहा गया कि राष्ट्रपति की तरफ से जारी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सूचि में कोई भी बदलाव सिर्फ़ संसद में कानून बना कर ही किया जा सकता है. यानि राज्य सरकार को यह अधिकार नहीं है कि वह अनुसूचित जाति या जनजाति के भीतर उप समूह बना कर आरक्षण का बंटवारा कर दे.
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने अपने आदेश में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 341 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को समरुप (Homogenous) समूह माना गया है. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकारों को यह अधिकार नहीं है कि वे इस वर्गीकरण का उपवर्गिकरण भी करें.
यह मुद्दा 7 जजों की बेंच के पास कैसे पहुंचा
पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग (सरकारी सेवाओं में आरक्षण) क़ानून 2006, के ज़रिए सरकार की सीधी भर्तियों में अनुसूचित जाति को 25 प्रतिशत और पिछड़ी जातियों को 12 प्रतिशत आरक्षण दिया गया. इस कानून में कहा गया कि आधी नौकरियां बाल्मिकी और मजहबी सिख समुदाय के लिए आरक्षित होंगी.
इस क़ानून को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में चुनौती दी गई. हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट बेंच के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि अनुसूचित जातियों में कुछ जातियों को प्राथमिकता देने का राज्य सरकार का फ़ैसला असंवैधानिक है.
इसी तरह से साल 2006 में हरियाणा सरकार ने भी अनुसूचित जातियों के कोटा को बांटने का फैसला किया और उसे भी हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया.
यह सब होने के बाद साल 2009 में तमिलनाडु विधान सभा ने एक क़ानून पास किया. इस क़ानून के ज़रिए राज्य सरकार ने अनुसूचित जनजातियों के एक उपसमूह अरुनातातियार के लिए कोटा के भीतर कोटा का प्रावधान कर दिया.
राज्य सरकार ने तर्क दिया कि अनुसूचित जातियों में यह उप समूह सबसे पिछड़ा और कमज़ोर है. साल 2020 में इस कानून को सीधा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने साल 2004 में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच के फ़ैसले पर संदेह व्यक्त किया.
इस बेंच को लगा कि इंदिरा सहानी केस 1992 में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच यह तय कर चुकी थी कि पिछड़ी जातियों में उप समूह बनाया जा सकता है. यानि आरक्षण का बंटवारा अलग अलग जातियों में किया जा सकता है.
हांलाकि 2004 में सुप्रीम कोर्ट की जिस बेंच ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के बंटवारे को ख़ारिज करते हुए इंदिरा सहानी केस को उदाहरण मानने से इंकार कर दिया था. क्योंकि इंदिरा सहानी केस पिछड़ी जातियों से संबंधित था और उनके सामने दलित और आदिवासी समुदायों के आरक्षण में बंटवारे का सवाल था.
इस पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस मामले को एक बड़ी बेंच को भेज दिया.
ताज़ा फ़ैसले में 7 जजों की बेंच ने क्या तर्क दिये हैं
सुप्रीम कोर्ट में 7 जजों की बेंच में से 6 जजों ने फैसला देते हुए 2004 के फ़ैसले को ग़लत बताया है. मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और मनोज मिश्रा ने कहा है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समरूप (homogenous Group) नहीं हैं जैसा कि 2004 के फ़ैसले में माना गया है.
उन्होंने कहा है कि अनुसूचित जातियों या जनजातियों की एक सूचि जारी करने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें बराबर या एक जैसा ही माना जा सकता है. मुख्य नायाधीश ने कहा है कि यह बात तो सही है कि ऐसी जातियों को जो भेदभाव और शोषण का शिकार रही हैं उन्हें अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति कहा गया है.
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि इन जातियों के बीच कोई फ़र्क नहीं है. इस सिलसिले में डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहां पर कुछ अनुसूचित जातियों के साथ अन्य अनुसूचित जातियां भेदभाव करती हैं.
इसके साथ ही मुख्य न्यायाधीश ने यह तर्क भी दिया है कि इस फ़ैसले के ज़रिए सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति द्वारा जाति अनुसूचित जाति या जनजाति की सूचि में किसी तरह का बदलाव नहीं कर रही है. इसके साथ ही यह स्पष्ट किया गया है कि इस फ़ैसले से संविधान के आर्टिकल 341 का उल्लंघन नहीं होता है.
क्रीम लेयर के बारे में फैसला क्या कहता है
फ़िलहाल क्रीमी लेयर का सिध्दांत सिर्फ ओबीसी यानि अन्य पिछड़ी जातियों के आरक्षण पर लागू होता है. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण पर फ़ैसला सुनाने वाली बेंच में शामिल बीआर गवई (Justice B R Gavai) ने क्रीमी लेयर पर अपना विचार विस्तार से लिखा है. उन्होंने है कि अनुसूचित जाति और जनजाति में जो लोग आगे बढ़ चुके हैं उनको पहचान कर आरक्षण के दायरे से बाहर करना ज़रूरी है.
जस्टिस गवई ने कहा है कि एक आईएएस अधिकार के बच्चे और एक गांव में पल रहे बच्चे को एक ही जाति का होने के बावजूद बराबर नहीं माना जा सकता है. उनके इस विचार से अन्य तीन जजों ने भी सहमति व्यक्त की है. लेकिन उनके ये विचार सरकार को अनुसूचित जाति या जनजाति के लिए आरक्षण मे क्रीमी लेयर लागू करने का निर्देश का हिस्सा नहीं है.