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ग्रेट निकोबार विकास परियोजना की बहस के बीच आदिवासी अस्तित्व फिर सवालों के घेरे में

सोनिया गांधी ने कहा कि जब शोम्पेन और निकोबारी जनजातियों का अस्तित्व ही दांव पर हो, तो हमारी सामूहिक अंतरात्मा चुप नहीं रह सकती और न ही रहनी चाहिए. भावी पीढ़ियों के प्रति हमारी प्रतिबद्धता एक अत्यंत विशिष्ट पारिस्थितिकी तंत्र के इस बड़े पैमाने पर विनाश की अनुमति नहीं दे सकती.

केंद्र सरकार ग्रेट निकोबार द्वीप पर 72,000 करोड़ रुपये से अधिक की लागत से 166 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले एक बिजली संयंत्र, टाउनशिप, ट्रांसशिपमेंट बंदरगाह और हवाई अड्डे का निर्माण कर रही है.

यह द्वीप दुनिया के कुछ अछूते जैव विविधता वाले हॉटस्पॉट में से एक है और निकोबारी और शोम्पेन जनजातियों का निवास स्थान है. इस द्वीप के जंगल और तट कई स्थानिक और लुप्तप्राय प्रजातियों का घर हैं.

द्वीप का पर्यावरण, पारिस्थितिकी और जनजातियां अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (FRA), वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 जैसे विभिन्न कानूनों और EIA अधिसूचना, 2006 और CRZ अधिसूचना, 2011 जैसी अधिसूचनाओं के तहत संरक्षित हैं.

लेकिन इन सभी सुरक्षा उपायों को व्यवस्थित रूप से समाप्त कर दिया गया है और वनों की कटाई और निर्माण के लिए मंज़ूरियां जारी कर दी गई हैं.

शुरुआत से ही पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों, वन्यजीव विशेषज्ञों, नागरिक समाज संगठनों और विपक्षी दल कांग्रेस ने पर्यावरण और यहां की जनजातियों के लिए ख़तरा बताते हुए इस परियोजना का विरोध किया है.

अब कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने ‘ग्रेट निकोबार के समग्र विकास’ परियोजना को लेकर मोदी सरकार की कड़ी आलोचना की है और इसे एक “नियोजित दुस्साहस” बताया है.

उन्होंने कहा है कि ये प्रोजेक्ट द्वीप के मूल निवासी आदिवासी समुदायों के अस्तित्व को ख़तरा पैदा करता है और इसे असंवेदनशील तरीके से आगे बढ़ाया जा रहा है.

कानूनी प्रक्रियाओं का मजाक उड़ाती है यह परियोजना

दरअसल, सोनिया गांधी ने अंग्रेजी अखबार द हिंदू में ‘निकोबार में एक पारिस्थितिक आपदा का निर्माण’ शीर्षक से प्रकाशित एक लेख में लिखा कि यह परियोजना निकोबार द्वीप के आदिवासी समुदायों के अस्तित्व के लिए गंभीर खतरा है. इस प्रोजेक्ट को लागू करने में “सभी कानूनी और विचार-विमर्श प्रक्रियाओं का मजाक” उड़ाया जा रहा है.

अपने लेख में उन्होंने कहा है कि जब शोम्पेन और निकोबारी जनजातियों का अस्तित्व ही दांव पर हो तो सामूहिक चेतना चुप नहीं रह सकती और न ही उसे चुप रहना चाहिए.

उन्होंने आगे लिखा है, “भविष्य की पीढ़ियों के प्रति हमारी प्रतिबद्धता एक अत्यंत विशिष्ट पारिस्थितिकी तंत्र के इतने बड़े पैमाने पर विनाश की अनुमति नहीं दे सकती. हमें न्याय के इस उपहास और हमारे राष्ट्रीय मूल्यों के साथ इस विश्वासघात के विरुद्ध अपनी आवाज उठानी चाहिए.”

अपने लेख में सोनिया गांधी ने मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि पिछले 11 वर्षों में इस सरकार के कार्यकाल के दौरान “अधूरी और बिना सोचे-समझे नीति-निर्माण” की कोई कमी नहीं रही है.

सोनिया ने कहा, “योजनाबद्ध कुप्रयासों की इस कड़ी में नवीनतम है ग्रेट निकोबार मेगा-इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना. 72,000 करोड़ रुपये का यह पूरी तरह से गलत खर्च द्वीप के आदिवासी समुदायों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा करता है. इससे दुनिया के सबसे अनोखे वनस्पतियों और जीवों के पारिस्थितिकी तंत्रों में से एक के लिए ख़तरा पैदा करता है और प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है.”

उन्होंने आगे लिखा है, “फिर भी इसे असंवेदनशील तरीके से आगे बढ़ाया जा रहा है, जिससे सभी कानूनी और विचार-विमर्श प्रक्रियाओं का मजाक उड़ाया जा रहा है.”

उन्होंने बताया कि ग्रेट निकोबार द्वीप दो मूल समुदायों निकोबारी जनजाति और शोम्पेन जनजाति का घर है, जो एक विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूह हैं.

अपने लेख में सोनिया कहती हैं, “निकोबारी आदिवासियों के पैतृक गांव इस परियोजना के प्रस्तावित भू-क्षेत्र में आते हैं. 2004 में हिंद महासागर में आई सुनामी के दौरान निकोबारी लोगों को अपने गांव छोड़ने पड़े थे. यह परियोजना अब इस समुदाय को स्थायी रूप से विस्थापित कर देगी, जिससे उनके अपने पैतृक गांवों में लौटने का सपना टूट जाएगा.”

उन्होंने आगे कहा कि एक प्रमुख चिंता मूल निवासी आदिवासी समुदायों का “उजाड़ना” भी है. क्योंकि आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए स्थापित संवैधानिक और वैधानिक निकायों को इस पूरी प्रक्रिया में दरकिनार किया जा रहा.

उन्होंने लिखा, “इस पूरी प्रक्रिया में आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए स्थापित संवैधानिक और वैधानिक संगठनों को दरकिनार किया गया है. संविधान के अनुच्छेद 338-ए के अनुसार सरकार को राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग से परामर्श करना चाहिए था. लेकिन वह ऐसा करने में विफल रही है. स्थानीय समुदायों की सुरक्षा के लिए स्थापित उचित प्रक्रिया और नियामक सुरक्षा उपायों की अनदेखी की गई है.”

सोनिया गांधी ने कहा कि भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 में उचित मुआवज़ा और पारदर्शिता के अधिकार के तहत किए गए सामाजिक प्रभाव आकलन (SIA) में निकोबारी और शोम्पेन को इस प्रक्रिया के हितधारकों के रूप में माना जाना चाहिए था और उन पर परियोजना के प्रभाव का मूल्यांकन किया जाना चाहिए था. हालांकि, इसमें उनका कोई भी उल्लेख नहीं किया गया.

सोनिया ने कहा, “सरकार को ग्रेट निकोबार और लिटिल निकोबार द्वीप समूह की जनजातीय परिषद से परामर्श करना चाहिए था. इसके बजाय परिषद के अध्यक्ष की इस अपील की अनदेखी की गई है कि निकोबारी आदिवासियों को उनके पैतृक गांवों में लौटने की अनुमति दी जाए.”

गांधी ने लिखा, “वन अधिकार अधिनियम (2006), जो शोम्पेन को वनों की रक्षा, संरक्षण, विनियमन और प्रबंधन का अधिकार देता है, उनको किसी भी नीतिगत कार्रवाई का आधार होना चाहिए था. इसके बजाय इस मुद्दे पर शोम्पेन से परामर्श नहीं किया गया है, एक तथ्य जिसकी पुष्टि अब जनजातीय परिषद ने भी की है. देश के कानूनों का खुलेआम मज़ाक उड़ाया जा रहा है. अनजाने में देश के सबसे कमज़ोर समूहों में से एक को इसकी अंतिम कीमत चुकानी पड़ सकती है.”

सोनिया ने लिखा कि इस परियोजना का पर्यावरणीय प्रभाव भी गंभीर है.

उन्होंने स्वतंत्र अनुमानों का हवाला देते हुए कहा कि परियोजनाओं के लिए काटे जाने वाले पेड़ों की संख्या 32 से 58 लाख के बीच है और कहा कि इस वनों की कटाई के बदले में प्रतिपूरक वनरोपण की योजना हरियाणा में बनाई जा रही है और विडंबना यह है कि इस भूमि को हरियाणा सरकार ने खनन के लिए “नीलाम” कर दिया है.

उन्होंने कहा कि प्रतिपूरक वनरोपण उस क्षेत्रीय और जैविक विविधता वाले जंगलों के नुकसान की भरपाई नहीं कर सकता.

इसके अलावा सोनिया गांधी ने भूकंप-प्रवण क्षेत्र में विशाल बुनियादी ढांचे के निर्माण से उत्पन्न होने वाले भूकंपीय जोखिमों के बारे में भी चिंता व्यक्त की. साथ ही कहा कि इससे न केवल पारिस्थितिकी बल्कि जीवन और निवेश भी ख़तरे में पड़ सकता है.

राहुल गांधी ने भी परियोजना पर उठाए सवाल

सोनिया गांधी की यह टिप्पणी लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी द्वारा जनजातीय मामलों के मंत्री जुएल ओराम को लिखे गए पत्र के कुछ दिनों बाद आई है.

राहुल गांधी ने ग्रेट निकोबार परियोजना को मंजूरी देने में वन अधिकार अधिनियम (FRA) के कथित उल्लंघन पर गहरी चिंता व्यक्त की थी और सरकार से कानून के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन सुनिश्चित करने का आग्रह किया था.

राहुल ने जनजातीय मामलों के मंत्रालय को पत्र लिखकर बताया था कि उन्हें निकोबार परियोजनाओं के लिए केंद्र सरकार द्वारा मंज़ूरी दिए जाने के दौरान वन अधिकार अधिनियम के उल्लंघन की जानकारी मिली है.

उन्होंने 4 सितंबर को जुएल ओराम को लिखे अपने पत्र में लिखा, “मैं ग्रेट निकोबार परियोजना के लिए मंज़ूरी दिए जाने में वन अधिकार अधिनियम (FRA) के उल्लंघन पर अपनी गहरी चिंता व्यक्त करने के लिए यह पत्र लिख रहा हूँ. लिटिल निकोबार और ग्रेट निकोबार की जनजातीय परिषद ने मेरे ध्यान में लाया है कि FRA के तहत निकोबारी और शोम्पेन सहित जनजातीय समुदायों से उचित परामर्श नहीं किया गया.”

राहुल गांधी ने ओराम को लिखा कि ऐसे आरोप हैं कि समुदायों से अनापत्ति प्रमाण पत्र (NOC) अपर्याप्त जानकारी के आधार पर दबाव में प्राप्त किया गया था और परिषद ने बाद में इस विशाल परियोजना के विवरण के बारे में जानने के बाद इसे वापस ले लिया था.

इसके अलावा कांग्रेस नेता और पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश भी ग्रेट निकोबार परियोजना पर अपनी चिंताओं को उजागर करते रहे हैं और दावा करते रहे हैं कि यह पारिस्थितिकी और क्षेत्र के वनवासियों और आदिवासियों के अधिकारों के लिए हानिकारक है.

क्या है ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट

ग्रेट निकोबार मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट बंगाल की खाड़ी में अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के सबसे दक्षिणी द्वीप ग्रेट निकोबार द्वीप समूह (Great Nicobar Island) के लिए केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित एक बड़े पैमाने पर इंफ्रास्ट्रक्चर और विकास योजना है.

इस परियोजना में ग्रेट निकोबार द्वीप पर एक ट्रांसशिपमेंट पोर्ट, एक अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा एक टाउनशिप और 160 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में फैले एक बिजली संयंत्र का निर्माण शामिल है.   मोदी सरकार का दावा है इससे भारत की समुद्री सुरक्षा और व्यापार को बढ़ावा मिलेगा.

प्रोजेक्ट को मिली मंजूरी में धोखाधड़ी

केंद्र सरकार, जो वास्तव में परियोजना प्रस्तावक है, मंज़ूरी देने और पर्यावरण कानूनों व वन अधिकार अधिनियम (FRA) के कार्यान्वयन और अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए ज़िम्मेदार रेगुलेटरी अथॉरिटी भी है.

अंडमान और निकोबार प्रशासन द्वारा 28 जुलाई, 2020 को जारी एक आदेश में अंडमान और निकोबार द्वीप समूह औद्योगिक विकास निगम (ANIIDCO), जो 2020-21 में 303.6 करोड़ रुपये के कारोबार वाली एक सरकारी कंपनी है, उसको 92,000 करोड़ रुपये की इस परियोजना का प्रस्तावक नामित किया गया.

ANIIDCO ने 7 अक्टूबर, 2020 को वन भूमि के डायवर्जन और आदिवासी अभ्यारण्य को अनारक्षित करने की मंज़ूरी के लिए आवेदन किया था. 8 सितंबर, 2020 को अंडमान और निकोबार प्रशासन के आदिवासी कल्याण निदेशालय ने ट्राइबल रिजर्व को अनारक्षित करने के संबंध में जनजातीय कार्य मंत्रालय से विचार मांगे.

18 नवंबर, 2020 को जनजातीय कार्य मंत्रालय ने एक अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी किया, जिसमें कहा गया कि उसे वन अधिकार अधिनियम (FRA) के कार्यान्वयन पर कोई आपत्ति नहीं है.

पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) के 3 अगस्त, 2009 के आदेश में वन भूमि के हस्तांतरण के लिए एफआरए के अनुपालन को पूर्वापेक्षा बना दिया गया है.

इस तरह दोनों प्रस्तावों पर आगे बढ़ने के लिए यह दिखाना आवश्यक हो गया कि एफआरए के अधिदेश का अनुपालन किया गया है, वन अधिकारों का निपटारा किया गया है और आदिवासी समुदायों ने अपनी वन भूमि के हस्तांतरण के लिए सहमति दे दी है.

इसके बाद वन अधिकार अधिनियम के तहत समितियों के गठन के 21 दिनों के भीतर, निकोबार के उपायुक्त ने 18 अगस्त, 2022 की तारीख वाला एक प्रमाणपत्र जारी कर दिया. जिसमें कहा गया कि सभी दावों का निपटारा कर दिया गया है और आदिवासी समुदायों ने परियोजना के लिए वनों के परिवर्तन पर सहमति दे दी है.

जबकि लिटिल निकोबार और ग्रेट निकोबार की जनजातीय परिषद ने जनजातीय मामलों के मंत्री जुएल ओराम सहित अधिकारियों को कई पत्र भेजे हैं, जिनमें कहा गया है कि यह दावा झूठा है और न तो उनके अधिकारों का निपटारा किया गया है और न ही उन्होंने वन भूमि के हस्तांतरण पर सहमति दी है.

26 मई, 2025 तक इन पत्रों की कोई एक्नॉलेजमेंट नहीं मिली, जब ओराम ने कहा कि उनका मंत्रालय उनकी आपत्तियों की जांच करेगा.

उन्होंने कहा, “सबसे पहले हमें यह निर्धारित करना होगा कि क्या ‘ग्राम सभा’ ​​(इस मामले में जनजातीय परिषद) हुई थी, ग्राम सभा ​​ने क्या सिफारिशें की थीं और क्या कोई उल्लंघन हुआ है.”

हालांकि, ओराम के मंत्रालय द्वारा की गई कार्रवाई के बारे में कोई जानकारी नहीं है. परियोजना पर काम ऐसे चल रहा है मानो निकोबारियों की आपत्तियां मौजूद ही न हों.

अंडमान और निकोबार की जनजातियां

पूर्वी तट पर एक छोटे से क्षेत्र को छोड़कर, पूरे द्वीप को अंडमान और निकोबार (आदिवासी जनजातियों का संरक्षण) विनियमन, 1956 के तहत एक आदिवासी आरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया था.

क्योंकि इस विनियमन द्वारा वनों और आदिवासी अधिकारों की रक्षा की गई थी और आदिवासियों को अपने वनों पर अप्रतिबंधित अधिकार प्राप्त थे इसलिए यहां वन अधिकार अधिनियम (FRA) को कभी लागू नहीं किया गया और निकोबारी और शोम्पेन जनजातियों के व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकारों के निपटान के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए.

अंडमान और निकोबार प्रशासन द्वारा जनजातीय मामलों के मंत्रालय (MoTA) को दी जाने वाली मासिक रिपोर्टों में भी यही बात कही गई है.

यहां की शोम्पेन जनजाति का बाहरी दुनिया से बहुत कम या कोई संपर्क नहीं है और वे शिकारी-संग्राहकों का एक पूर्व-कृषि समुदाय हैं.

उन्होंने हमारे कानूनों को स्वीकार नहीं किया है और वे उस समाज का हिस्सा नहीं हैं जिसे इन कानूनों से लाभ मिलता है. वे हज़ारों वर्षों से इस द्वीप पर रह रहे हैं और उन्हें अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का एक अनुल्लंघनीय अधिकार है.

वे वन अधिकार अधिनियम (FRA) को नहीं समझते हैं और न ही यह कि अगर वे इसके लिए सहमत होते हैं तो उनकी ज़मीनें छीनी जा सकती हैं.

FRA का ढाँचा उन जनजातियों पर लागू होता है जो अपने अधिकारों का दावा करने, वन अधिकारों का दावा करने और उन अधिकारों को छोड़ने के लिए सहमति देने में सक्षम हैं. शोम्पेन अकेला रहना चाहते हैं और सरकारी नीति उन्हें उनकी मर्ज़ी पर छोड़ देती है.

शोम्पेन के आवास को बाधित नहीं किया जा सकता. सरकार द्वारा किसी भी परियोजना के लिए इसे छीना नहीं जा सकता.

प्रॉक्सी के माध्यम से उनकी सहमति लेने की स्पष्ट अवैधता के अलावा, प्रस्तावित भूमि परिवर्तन अपने आप में न तो विवेकपूर्ण है और न ही न्यायसंगत.

दिलचस्प बात यह है कि सरकार ने नीति आयोग के माध्यम से साल 2019 में अंडमान और निकोबार जनजातीय अनुसंधान संस्थान के संस्थापक और ऑनररी डायरेक्टर विश्वजीत पंड्या से ग्रेट निकोबार परियोजना के बारे में जनजातीय लोगों की राय जानने के लिए एक रिपोर्ट बनवाई थी.

हालांकि सरकार ने यह रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की है. लेकिन पंड्या के साथ एक इंटरव्यू के हिस्से के रूप में ” One Land Many Voices ” टाइटल से एक वीडियो रिपोर्ट यूट्यूब पर उपलब्ध है.

वीडियो में, एक शोम्पेन व्यक्ति, जो शोम्पेन भाषा से परिचित एक निकोबारी व्यक्ति द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देता है और स्पष्ट रूप से कहता है: “हमारी पहाड़ियों पर मत चढ़ो”, “हमारी पहाड़ियों के पास मत आओ.”

इसलिए, इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि शोम्पेन अपने जंगलों के वनीकरण के लिए सहमत होने के बजाय, अकेला रहना चाहते हैं.

जहां तक निकोबारी लोगों की बात है, 2004 की सुनामी के बाद से उनकी दुर्दशा दयनीय रही है. ये लोग जीविका के लिए जंगलों का उपयोग करते थे. उनको उनके तटीय गांवों से “राहत” के लिए कैंपबेल खाड़ी के “अस्थायी आश्रयों” में स्थानांतरित कर दिया गया था, लेकिन पिछले दो दशकों से उन्हें वहीं रोक कर रखा गया है.

निकोबारी लोग लगातार सरकार को पत्र लिखकर तट पर अपनी पारंपरिक भूमि और गांवों में लौटने का अनुरोध करते रहे हैं लेकिन सरकार ने उनकी बात नहीं मानी है.

अब, पश्चिमी और दक्षिणी तटों पर स्थित निकोबारी गांवों और जंगलों को परियोजना क्षेत्र में शामिल कर लिया गया है.

सरकार के मुताबिक, इसके लिए सहमति बरनबास मंजू (लिटिल एंड ग्रेट निकोबार ट्राइबल काउंसिल के अध्यक्ष) द्वारा हस्ताक्षरित अनापत्ति प्रमाण पत्र (NOC) के माध्यम से प्राप्त की गई थी.

लेकिन मंजू द्वीप पर रहने वाले 1,000 से अधिक निकोबारी लोगों की ओर से सहमति नहीं दे सकते. एफआरए इसकी अनुमति नहीं देता है.

मंजू और आदिवासी बस्तियों के अन्य कप्तानों ने 22 नवंबर, 2022 को जनजातीय कार्य मंत्रालय, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन के सभी अधिकारियों को एक पत्र लिखा… जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि मंजू द्वारा हस्ताक्षरित अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) मान्य नहीं है.

यह पत्र 12 अप्रैल, 2023 की हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट में प्रकाशित हुआ था. हालांकि, सरकार इस पत्र के बारे में अनभिज्ञता जता रही है.

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