HomeAdivasi Dailyआंध्र प्रदेश: पडेरू के विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह की चुनौतियां

आंध्र प्रदेश: पडेरू के विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह की चुनौतियां

जब आहार संबंधी आदतों की बात आती है तो लगभग आधे यानि 49.5 फीसदी खाना पकाने के लिए लकड़ी का उपयोग करते हैं. वहीं 84 फीसदी लोग संतुलित आहार के बारे में पूरी तरह से जागरूक नहीं हैं और केवल 52.75 फीसदी लोग ही दिन में दो बार भोजन करते हैं.

एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि आंध्र प्रदेश (Andhra Pradesh) के पडेरू (Paderu) राजस्व मंडल में रहने वाले बड़ी संख्या में आदिवासी अभी भी खुले स्थानों का उपयोग शौचालय के रूप में करते हैं. जिसके बाद ये मामला बेहतर स्वच्छता सुविधाओं की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है.

प्राथमिकता के आधार पर लुप्तप्राय जनजातीय समूहों के जीवन स्तर में सुधार के उद्देश्य से सरकार द्वारा बनाए गए विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों (Particularly Vulnerable Tribal Groups – PVTG) के अंतर्गत ये आदिवासी आते हैं.

अध्यन के मुताबिक पडेरू डिवीजन में 55.75 प्रतिशत पीवीटीजी अभी भी शौचालय के लिए खुली जगहों का उपयोग करते हैं.

यह अध्ययन आंध्र विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कॉलर मणिकुमार बाबू मनुकोंडा (Manikumar Babu Manukonda) द्वारा आयोजित किया गया था.

यह अध्ययन पडेरू में आदिवासी समुदायों के जीवन पर प्रकाश डालता है. यह रिसर्च पीवीटीजी और गैर-विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों यानि गैर-पीवीटीजी की सामाजिक-आर्थिक और स्वास्थ्य स्थिति पर प्रकाश डालता है. जिसमें पडेरू पीवीटीजी गदाबा (Gadaba), खोंड (Khond) और पोरजा (Porja) पर विशेष ध्यान दिया गया है.

अध्ययन में कुल 400 उत्तरदाताओं को शामिल किया गया था. जिससे इन आदिवासी समुदायों की चुनौतियों के बारे में दिलचस्प आंकड़ें सामने आए. अध्ययन के हिस्से के रूप में जियोग्राफिक इनफार्मेशन सिस्टम (जीआईएस) का उपयोग पहली बार सामाजिक कार्य विभाग में किया गया था.

अध्ययन से पता चलता है कि शिक्षा के मामले में लगभग आधे यानी 49.4 फीसदी ने प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की है. हालांकि इनके शिक्षा पाने के दृढ़ संकल्प को दर्शाता है. वहीं 56.5 फीसदी ने अपने बच्चों को सरकार द्वारा प्रदान की गई शिक्षा पर संतुष्टि व्यक्त की जो कि शिक्षा में प्रगति का संकेत देता है.

जबकि 21.5 फीसदी लोग अपने पिछड़ेपन के लिए निरक्षरता और कम शिक्षा को जिम्मेदार मानते हैं. जो विकसित न होने और गरीबी के चक्र को तोड़ने में शिक्षा के महत्व को दर्शाता है.

वहीं 33.5 फीसदी स्कूल छोड़ने वालों के लिए गरीबी को कारण के रूप में देखा जाता है, जो शिक्षा में आर्थिक असमानताओं को दूर करने के महत्व पर जोर देता है.

अध्यन के मुताबिक करीब आधे यानि 47 फीसदी वन उपज पर निर्भर हैं, तो 65 फीसदी उत्तरदाता निम्न आय वर्ग से हैं, जिनमें से 44.5 फीसदी के 3 से 4 बच्चे हैं.

आवास की स्थिति के संदर्भ में 48.5 फीसदी पारंपरिक झोपड़ियों में रहते हैं. जबकि 96.5 फीसदी के पास अपने घर हैं. हालाँकि उन्हें अभी भी आधुनिक सुविधाओं तक पहुँचने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. इनमें से 46.75 फीसदी को सड़क के नलों से पानी मिलता है.

जब आहार संबंधी आदतों की बात आती है तो लगभग आधे यानि 49.5 फीसदी खाना पकाने के लिए लकड़ी का उपयोग करते हैं. वहीं 84 फीसदी लोग संतुलित आहार के बारे में पूरी तरह से जागरूक नहीं हैं और केवल 52.75 फीसदी लोग ही दिन में दो बार भोजन करते हैं. जो पर्याप्त पोषण प्राप्त करने में उनके सामने आने वाली चुनौतियों को उजागर करता है.

यहां यह जानना जरूरी है कि है कि सभी उत्तरदाता गरीबी रेखा से नीचे (Below Poverty Line) श्रेणी में आते हैं.

स्वास्थ्य समस्याओं वाले 37 फीसदी लोग पारंपरिक इलाज विधियों का उपयोग करते हैं, जो स्वदेशी स्वास्थ्य देखभाल ज्ञान के महत्व को दर्शाता है.

अध्यन में जन्म और मृत्यु के बारे में जागरूकता की कमी को 41 फीसदी शिशु मृत्यु दर के लिए एक कारक के रूप में जिम्मेदार ठहराया जाता है जो स्वास्थ्य देखभाल शिक्षा और पहुंच की आवश्यकता को रेखांकित करता है.

इसके अलावा 30 फीसदी का कहना है कि उनके पास स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच नहीं है, जो बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की तत्काल आवश्यकता को दर्शाता है.

हालांकि स्वास्थ्य देखभाल की तस्वीर अपेक्षा के मुताबिक उत्साहजनक है. 63.25 फीसदी लोग उचित अस्पताल सुविधाओं का उपयोग करते हैं, जो सुलभ स्वास्थ्य सेवाओं के महत्व पर जोर देते हैं.

जब आजीविका के साधनों की बात आती है तो 27.5 फीसदी लोग पारंपरिक कृषि पद्धतियों के प्रति अपना समर्पण दिखाते हुए सभी प्रकार के बाजरा की खेती करते हैं. जबकि 71.25 फीसदी लोग सिंचाई के प्राथमिक स्रोत के रूप में कुओं पर निर्भर हैं.

अध्यन से जो जरूरी बात सामने आई है वो ये है कि 58 फीसदी ने वन क्षेत्र में ही रहने की इच्छा व्यक्त की, जो उनके पर्यावरण के साथ उनके गहरे संबंध को उजागर करता है. वहीं अफसोस की बात है कि एक विशाल बहुमत यानि 68.25 फीसदी लोग 2006 के वन अधिकार अधिनियम से अनजान हैं, जो बेहतर जागरूकता और शिक्षा की आवश्यकता पर जोर देता है.

इसके अलावा 58.5 फीसदी का मानना है कि वे आदिवासियों के लिए बजट आवंटन के बारे में जानते ही नहीं है और 42.5 फीसदी लोगों को लगता है कि सरकारी अधिकारियों के साथ उनके खराब संबंध हैं. जो बेहतर प्रशासन और सामुदायिक सहभागिता की आवश्यकता पर जोर देता है.

सरकारी योजनाओं के संबंध में आधे से अधिक आबादी यानि 55.75 फीसदी असंतुष्ट हैं, जो अधिक प्रभावी नीतियों और कार्यान्वयन की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हैं. वहीं 63.50 फीसदी का दावा है कि भूमि हस्तांतरण विनियमन अधिनियम ठीक से लागू नहीं किया गया है, जो भूमि अधिकार संरक्षण की आवश्यकता का संकेत देता है.

वहीं एकीकृत जनजातीय विकास एजेंसी (Integrated Tribal Development Agency) और उसके कार्यक्रमों के बारे में इन आदिवासियों के बीच जागरूकता बहुत अधिक है. 65.25 फीसदी लोगों को इसके बारे में जानकारी है, जो इन समुदायों तक पहुंचने में सरकारी पहल की प्रभावशीलता को दर्शाता है.

68.75 फीसदी उत्तरदाताओं के मुताबिक, सरकारी अधिकारी अक्सर सत्ताधारी पार्टी के राजनेताओं के साथ मिल जाते हैं, जो निष्पक्ष शासन की आवश्यकता को दर्शाता है.

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